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संपादकीय : क्या सुप्रीम कोर्ट पर ताला जड़ देना चाहिए?

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका के बाबत देश का मार्गदर्शन करने का प्रयास किया है। यह कहना असंसदीय होगा कि उपराष्ट्रपति पद पर बैठे ‘व्यक्ति’ सरकार की चमचागीरी करते हैं, लेकिन यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि उपराष्ट्रपति सरकार की प्रशंसा कर रहे हैं। न्यायालयों को राष्ट्रपति के लिए किसी भी मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा तय करने का कोई अधिकार नहीं है। हमारे उपराष्ट्रपति ने मार्गदर्शन करते हुए कहा है कि अदालतों को ‘सुपर पार्लियामेंट’ की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए। राष्ट्रपति संवैधानिक रूप से सर्वोच्च पद है और उससे संविधान की गरिमा और सुरक्षा की अपेक्षा की जाती है, लेकिन क्या राष्ट्रपति ने पिछले दस वर्षों में ऐसा किया है? क्या राष्ट्रपति ने अपना कर्तव्य निभाया? इस पर विचार करना जरूरी है। राष्ट्रपति कई ‘फैसलों’ को महीनों तक पॉकेट में बंद करके रखते हैं। ये अच्छा नहीं है। फिर भी यह कहना होगा कि उपराष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय का मार्गदर्शन किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो बिल राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए गया हो, उस पर एक निश्चित समयसीमा के भीतर पैâसला लेना अनिवार्य है। इससे उपराष्ट्रपति को झटका लगा और उन्होंने कहा, ‘ऐसे लोकतंत्र की देश को उम्मीद नहीं है। मैंने अपने जीवन में ऐसा कभी नहीं देखा।’ उपराष्ट्रपति को इस तरह के लोकतंत्र का अंदाजा नहीं था। तो उन्हें किस तरह के लोकतंत्र की उम्मीद है? तमिलनाडु के राज्यपाल महोदय ने विधानसभा द्वारा पारित दस विधेयकों को बिना किसी कारण के लटकाए रखा और एम. के. स्टालिन की सरकार अड़चन में आ गई। सरकार सुप्रीम कोर्ट गई और सुप्रीम कोर्ट ने देश के सभी राज्यपालों को कठोर शब्द सुनाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में देशभर के राज्यपालों द्वारा राज्य में
जनता द्वारा नियुक्त सरकारों को अनदेखा
करने के प्रयासों पर तीखे प्रहार किए। सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि राज्यपालों को राजनीतिक लाभ के लिए राज्य विधानसभाओं पर नियंत्रण नहीं रखना चाहिए। राज्यपाल जैसी संवैधानिक संस्थाएं भाजपा की गंदी राजनीति का अड्डा बन गई हैं। विपक्षी सरकारों को गिराने की साजिशें राजभवन में होती हैं। यह किस संवैधानिक अधिनियम में फिट बैठता है? महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने सीधे तौर पर अस्थिरता और फूट को बढ़ावा दिया। कोश्यारी का व्यवहार एक तरह से बेशर्मीभरा था। एक तो उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव नहीं होने दिया और दूसरा यह कि विधायकों को सूरत भगा ले जाने में राजभवन की मदद मिली। बहुमत परीक्षण का आदेश अवैध रूप से दिया गया और महाराष्ट्र में एक गैरसंवैधानिक सरकार स्थापित की गई। इन सभी संविधानेतर घटनाओं की शिकायत राष्ट्रपति से लेकर चुनाव आयोग तक की गई, लेकिन तीन साल बाद भी संविधान के अनुरूप कोई निर्णय नहीं लिया जा सका। राष्ट्रपति महाराष्ट्र में संविधान की हत्या को रोक सकते थे, लेकिन राष्ट्रपति ने इसे नजरअंदाज कर दिया। क्या उपराष्ट्रपति धनखड़ को इस तरह के लोकतंत्र की उम्मीद थी? उपराष्ट्रपति ने बकवास राज्यपाल को संविधान की रक्षा के लिए मार्गदर्शन नहीं दिया और उन्होंने राजनीतिक दबाव में महाराष्ट्र के मामले पर निर्णय लेने वाले सुप्रीम कोर्ट को भी कठोर शब्द नहीं सुनाए। आज अगर जजों ने कुछ गलत किया तो महाराष्ट्र के मामले में भी गलत किया। लेकिन चूंकि महाराष्ट्र में संविधान की हत्या सरकार द्वारा प्रायोजित थी इसलिए उपराष्ट्रपति को शायद यह नजर नहीं आया, उन्होंने इस पर आंखें मूंद लीं। महाराष्ट्र के इस
असंवैधानिक सत्तांतरण
मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दलबदल विरोधी कानून को लेकर संविधान की १०वीं अनुसूची को बरकरार नहीं रखा और चोरी और झूठ बोलने वालों के सरदार को पैâसले का अधिकार दे दिया। उपराष्ट्रपति को इसका संवैधानिक अफसोस भी होना चाहिए था। पिछले दस सालों से सुप्रीम कोर्ट पर राजनीतिक दबाव है और भाजपा हाई कोर्ट और निचली अदालतों में ‘नौकरभरती’ की तरह नियुक्तियां करने लगी है। इसलिए न्यायाधीश ‘सुपर-पार्लियामेंट’ की बजाय एक विचारधारा के हाथ के रूप में कार्य कर रहे हैं। राष्ट्रपति संविधान का पालन नहीं करते, बल्कि सरकारी आदेशों का पालन करते हैं। ऐसे आरोप आम हो गए हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री जब राष्ट्रपति भवन जाते हैं तो उन्हें ‘दही चना’ खिलाया जाता है। मोदी को भी यही खिलाया गया। राष्ट्रपति भवन में संविधान की ऐसी दही कभी नहीं खिलाई गई। राष्ट्रपति और राज्यपाल के पद का अधोपतन पिछले १० वर्षों में सबसे ज्यादा हुआ है। खुद की पार्टी की मूक कठपुतलियों को संवैधानिक पदों पर बैठाया गया। मणिपुर तीन साल तक जलता रहा और सरकार वहां की अबलाओं पर हो रहे अत्याचारों और हत्याओं को देखती रही। आश्चर्य तब होता है जब लोकसभा और राज्यसभा के सर्वशक्तिमान, जिन्होंने दो साल तक मणिपुर पर चर्चा की इजाजत नहीं दी, वे संसद के अधिकारों के बारे में बात करते हैं। क्या लोकतांत्रिक उपराष्ट्रपति से यह उम्मीद की जाती है कि वह संसद में विपक्ष के नेता के भाषण के दौरान उनका ‘माइक’ बंद कर दें? न्यायाधाrशों से ‘सुपर पार्लियामेंट’ होने की अपेक्षा नहीं की जाती है, लेकिन सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश को संसद में लाने वाले कौन हैं? न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद का प्रलोभन देकर मनमाफिक काम कराने वाले कौन हैं? जब खुलेआम लोकतंत्र और संविधान की हत्या हो रही है तो पार्लियामेंट का गला घोंटने वाले कौन हैं? उपराष्ट्रपति के ‘कड़े बोल’ सुनने के बाद अब ऐसा लग रहा है कि सत्ता पक्ष कल संसद में मांग कर सकता है कि देश को सुप्रीम कोर्ट की जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट पर ताला जड़ देना चाहिए।

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