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ब्रज की एक संध्या

पावस बरसा,सावन बरसा
जल बरसा घनघोर,
ब्रज भूमि में काली घटाएं
छा गई चंहु और।
पावस बरसा——–
ग्वाल सखा संग कान्हा निकले
कालिंदी कुंज की ओर,
भूरी ,कजरी, काली धेनू
सब मिल रंभा रही जोर।
पावस बरसा ———-+
श्याम वर्ण,पीत वसन
हरित मुरलिया,धवल पुष्प माल
भाल सुहावे मोर मुकुट
कान्हा तो बने चितचोर।
पावस बरसा——–
धेनु चरावें, बांसुरी बजावें
ग्वाल सखा संग रार मचावें,
कदंब झार से झांक रहे
पपीहा खंजन और मोर।
पावस बरसा ———-
आज कन्हैया लग रहे अधूरे
अपनी राधा को कैसे भूले,
राधा लग रहीं कुछ रूठी
काहे ठाड़ी हैं दूर-दूर।
पावस बरसा——–
पल में कान्हा टोली से बाहर आए
अपनी राधा को हाथ बढ़ाएं,
पकड़ ले गये मझधार टोली के
मुरली बजाई बहुत जोर।
पावस बरसा ————
तर्जनी तनूजा लहर उठी
जबर तड़िता चमक गई ,
पांखुरयो भरी मंजूषा बिखर पड़ी
ब्रज भूमि संध्या में आज
आंनद लहर छाई चहूं और।
पावस बरसा सावन बरसा
जल बरसा घनघोर।
बेला विरदी।

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