मुख्यपृष्ठराजनीतिउत्तर की बात : कन्नौज में भाजपा के सामने अखिलेश की चुनौती

उत्तर की बात : कन्नौज में भाजपा के सामने अखिलेश की चुनौती

रोहित माहेश्वरी
लखनऊ

 

यूपी में चौथे चरण के चुनाव में प्रदेश की कुल १३ सीटों पर वोटिंग होगी। इन १३ सीटों में सबसे ज्यादा जिस सीट की चर्चा है, वो सीट कन्नौज है। इस सीट से सपा प्रमुख एवं पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मैदान में हैं। पिछले चुनाव में ये सीट भाजपा के सुब्रत पाठक ने सपा प्रमुख की धर्मपत्नी डिंपल यादव को हराकर जीती थी। इस बार अखिलेश ने खुद इस सीट से मोर्चा संभाला है। ऐसे में ये सीट सपा के साथ `इंडिया’ गठबंधन के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गई है। २०१४ की नरेंद्र मोदी की लहर में भी सपा के पास रही यह सीट २०१९ में राष्ट्रवाद के ज्वार में भाजपा के हाथ आ गई। भाजपा ने दोबारा इस सीट से मौजूदा सांसद सुब्रत पाठक को मैदान में उतारा है।
कन्नौज लोकसभा सीट समाजवादी पार्टी का गढ़ रही है। अखिलेश यादव पहली बार साल २००० में कन्नौज से सांसद बने थे, उपचुनाव में उन्होंने जीत हासिल की थी। उसके बाद वह २००४ और २००९ में भी इसी सीट से सांसद रहे। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद लोकसभा से इस्तीफा देने के चलते २०१२ में कन्नौज सीट पर हुए उपचुनाव में अखिलेश की पत्नी डिंपल निर्विरोध चुनी गई थीं।
२०१४ के आम चुनाव में भी डिंपल ने इसी सीट से जीत दर्ज की थी। हालांकि, साल २०१९ के चुनाव में वो भाजपा के सुब्रत पाठक से पराजित हो गई थीं। अखिलेश यादव वर्तमान में करहल विधानसभा सीट से विधायक हैं और उत्तर प्रदेश विधानसभा में नेता विपक्ष हैं। वो २०२२ में हुए विधानसभा चुनाव में करहल सीट से पहली बार विधायक बने थे। अखिलेश तीन बार कन्नौज सीट से सांसद रहे, जबकि एक बार आजमगढ़ से चुने जा चुके हैं।
कन्नौज सीट से अखिलेश सपा के लिए जीत की गारंटी रहे हैं। अखिलेश का कॉन्फिडेंस भी देखने लायक है। वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे हैं। उन्होंने कहा कि जनता ने मन बना लिया है कि `इंडिया’ गठबंधन भविष्य बनकर आ रहा है और भाजपा इस चुनाव में इतिहास बन जाएगी।
कन्नौज में अखिलेश का सामना भाजपा के सुब्रत पाठक से है। सुब्रत यहां के मौजूदा सांसद हैं। सुब्रत पाठक कन्नौज से ही चुनाव लड़ते आए हैं। २०१९ के चुनाव में उन्होंने डिंपल यादव को हराया था। सुब्रत पाठक भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष रह चुके हैं। उनका जन्म कन्नौज में ही हुआ। कन्नौज में वे भाजपा का चेहरा रहे हैं। पार्टी उन पर विश्वास जताती रही है।
२००९ के चुनाव में उन्हें अखिलेश के हाथों हार मिली थी, लेकिन इसके बाद भी २०१४ के चुनाव में पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया। इस चुनाव में उन्हें अखिलेश की धर्मपत्नी डिंपल से शिकस्त मिली। २०१९ के चुनाव में सुब्रत पाठक ने पलटवार किया और डिंपल को हराकर संसद पहुंचे। यानी सुब्रत के जरिए ही बीजेपी समाजवादी पार्टी का यह गढ़ भेदने में कामयाब हो पाई थी।
इस सीट पर १९९८ में पहली बार सपा के प्रदीप कुमार यादव ने साइकिल दौड़ाई थी। १९९९ में समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव यहां से जीते। मुलायम के ये सीट छोड़ने पर २००० में हुए उपचुनाव में अखिलेश यहां से सांसद निर्वाचित हुए। २००४ में अखिलेश इस सीट से सांसद बनकर दिल्ली पहुंचे। २००९ में भी अखिलेश ने ये सीट फतह की। हालांकि, २०१२ में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने ये सीट छोड़ दी। २०१२ में कन्नौज सीट पर हुए उपचुनाव में डिंपल यादव निर्विरोध निर्वाचित होकर संसद पहुंचीं। भाजपा को विकास, राष्ट्रवाद और रामकाज के सहारे फिर विजयश्री का भरोसा है। सपा ने पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक का नारा दिया है। हालांकि, यहां उनकी जीत का आधार हमेशा से एमवाई यानी मुस्लिम व यादव ही रहा है। इस बार अखिलेश मैदान में हैं, ऐसे में यूपी ही नहीं देशभर की निगाहें इस सीट पर लगी हैं। कन्नौज संसदीय सीट १९६७ में ​अस्तित्व में आई। इस सीट पर अब तक ७ बार आम और उपचुनाव सपा जीती है। भाजपा यहां सिर्फ दो बार जीत पाई है। पिछला चुनाव भले ही भाजपा ने जीता था, लेकिन जीत का अंतर मात्र १२ हजार वोट का था। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अखिलेश के मैदान में उतरने से भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई हैं। ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो ऐसा लगता है कि इस बार कन्नौजवासियों ने अखिलेश यादव को जीत के इत्र में भिगोने का मन बना लिया है।
(लेखक स्तंभकार, सामाजिक, राजनीतिक मामलों के जानकार एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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