मुख्यपृष्ठराजनीतिउत्तर की बात : यूपी में आसान नहीं बसपा की राह

उत्तर की बात : यूपी में आसान नहीं बसपा की राह

रोहित माहेश्वरी
लखनऊ

२०२४ के आम चुनाव में देशभर की निगाहें यूपी की ८० लोकसभा सीटों पर टिकी हुई हैं। असल में जिस दल का यूपी में सिक्का चलेगा, वही दिल्ली के गद्दी के उतना करीब होगा। यूपी में मुख्य मुकाबला इंडिया गठबंधन और एनडीए के बीच है। इंडिया गठबंधन में सपा-कांग्रेस शामिल हैं। वहीं एनडीए में भाजपा, रालोद, सुभासपा, अपना दल सोनेलाल और निषाद पार्टी शामिल हैं। इन सब के बीच बहुजन समाज पार्टी किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं है। बसपा अकेले मैदान में दम ठोक रही है। हालांकि, अकेले मैदान में उतरी बसपा की चमक पिछले बार की तुलना में कम लग रही है। बता दें कि २०१९ के आम चुनाव में सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन था। बसपा ने १० सीटें जीती थीं।
पिछले काफी समय से राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा थी कि बसपा इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनेगी। लेकिन जब-जब इस तरह की खबरें चर्चा में आई बसपा सुप्रीमो मायावती ने सामने आकर ऐसी तमाम खबरों और चर्चाओं का खंडन किया। हालांकि, कांग्रेस अंतिम समय तक इस बात के इंतजार में रही कि बसपा को इंडिया गठबंधन में शामिल कर लिया जाए, लेकिन बसपा अपने इरादे से टस से मस नहीं हुई। जैसे-जैसे चुनाव उफान पर आ रहा है, बसपा को इस बात का शायद अहसास होने लगा है कि इस बार मुकाबला कड़ा है।
बहुजन समाज पार्टी ने अब तक उत्तर प्रदेश में ३८ लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं, जबकि बाकी सीटों पर अभी भी मायावती ने पत्ते नहीं खोले हैं। पार्टी सूत्र कहते हैं कि मायावती ने सभी जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए टिकट दिए हैं। पार्टी जातिगत समीकरण को ध्यान में रखते हुए जिताऊ प्रत्याशियों पर दांव लगा रही है। वैसे तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि बसपा को प्रदेश की सभी ८० सीटों पर मजबूत प्रत्याशी मिलने में संकट का सामना करना पड़ रहा है।
बात २०१४ के आम चुनाव की ़करें तो इस चुनाव में भाजपा ने अपने सहयोगी अपना दल सोनेलाल के साथ मिलकर ७३ सीटें जीती थीं। सपा ५ और कांग्रेस २ सीटें जीतने में सफल रही थी। इस चुनाव में बसपा का वोट शेयर तो कम नहीं हुआ, लेकिन उसके खाते में एक भी सीट नहीं आई थी। इस चुनाव के बाद बसपा प्रदेश की राजनीति में अंतिम पायदान पर पहुंच गई थी। २०१४ के नतीजों से सबक लेते हुए बसपा ने २०१९ में अपनी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाने में परहेज नहीं किया। इस चुनाव में सपा, बसपा और रालोद का गठबंधन था। इस गठबंधन का सबसे ज्यादा लाभ भी बसपा को ही मिला। बसपा ने १० और सपा ने ५ सीटें जीती। रालोद के हाथ खाली ही रह गए। २०१९ के नतीजों के बावजूद बसपा सुप्रीमो मायावती का तर्क यह है कि गठबंधन की राजनीति में उन्हें नुकसान होता है, लेकिन ये बात आंकड़ों के लिहाज से ठीक नहीं बैठती है। २०१४ का चुनाव बसपा अकेले लड़ी थी और वो एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। इसीलिए उनका ये कहना गलत है कि बसपा का वोट ट्रांसफर होता है दूसरों का नहीं। ऐसा नहीं होता तो बसपा शून्य से दस सीटों पर नहीं पहुंचती। उत्तर प्रदेश में दलित मायावती का आधार वोट रहे हैं, जिनकी जनसंख्या में भागेदारी २१.६ प्रतिशत हैं। ये अकेले दम पर लोकसभा में चुनाव में मायावती को एक भी सीट नहीं जिता पाए। दलित वोट जीत में तभी तब्दील होते हैं, जब वे अन्य सामाजिक समूहों के मतों से जुड़ते हैं। बसपा के दलित वोटों में भाजपा ने सेंध लगाई है।
पार्टी संस्थापक कांशीराम ने बसपा आंदोलन के प्रथम चरण में अति पिछड़े, पिछड़े और मुसलमानों को जोड़ने का प्रयास किया था। वैसे आधार तल पर पिछड़ों, दलितों के बढ़ते सामाजिक और आर्थिक टकराव के कारण यह प्रयोग लंबे समय तक सफल नहीं रहा, फिर भी अति पिछड़े और मुस्लिम वोटों का एक छोटा प्रतिशत बसपा को मिलता रहा। वैसे इस चुनाव में फिजा बदली हुई है। इस बार सपा कांग्रेस में गठबंधन है। ऐसे में मुस्लिम, दलित और ओबीसी वोटर का झुकाव इंडिया गठबंधन की ओर दिख रहा है। इन हालातों में बसपा की मुश्किलें बढ़नी तय हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, बसपा ने पिछले कई वर्षों से आधारतल पर कोई आंदोलन नहीं चलाया है, जिससे उसके वैâडर और समर्थकों में निष्क्रियता आई है। इस बार भी उसका चुनाव प्रचार ठंडा ही है। अब यह देखना अहम होगा कि बसपा की एकला चलो रे का पैâसला उसके लिए कितना फायदेमंद साबित होगा।

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