रोहित माहेश्वरी
लखनऊ
यूपी की सियासत में किसी जमाने में बहुजन समाज पार्टी की धमक हुआ करती थी, लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक में बसपा सूबे की राजनीति में हाशिए पर पहुंच गई है। २०२४ के लोकसभा चुनाव में यूपी में बसपा का खाता ही नहीं खुला। बसपा प्रमुख मायावती के अकेले चुनाव लड़ने के पैâसले ने उनकी पार्टी का यूपी में पूरी तरह से सफाया हो गया है। बसपा को अपने अब तक के सियासी इतिहास में सबसे करारी हार का सामना करना पड़ा है। २०१९ लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ मिलकर लड़ा था। इस चुनाव में १० सीटें बसपा ने जीती थी, लेकिन २०२४ में बसपा १० से फिर एक बार शून्य पर सिमट गई। बसपा के लिए सबसे चौंकाने वाली बात यह भी है कि उससे दलित वोटबैंक छिटक गया। सूबे में कभी दलितों की एकछत्र नेता रहीं मायावती २०२४ के चुनाव में १० फीसदी से कम वोट ही उनके खाते में आए।
बसपा संस्थापक कांशीराम ने यूपी में दलित राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया, जिसका नतीजा रहा कि मायावती १९९५ में मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहीं। २००७ में बसपा ने पूर्ण बहुमत के साथ यूपी में सरकार बनाने में सफल रही, लेकिन यहीं से मायावती का सियासी आधार खिसकना भी शुरू हुआ। साल २०१२ में सत्ता गंवाने के बाद से बसपा सियासी हाशिए पर चलती चली जा रही है, उसने मायावती को बेचैन कर दिया है। २०२२ में बसपा के एक विधायक का जीतना और २०२४ में खाता न खुलना। यूपी की सियासत में मायावती एक अदना सी प्लेयर बन गई हैं।
१८वीं लोकसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने यूपी में भाजपा से ज्यादा सीटें जीत कर राज्य की राजनीति को नई दिशा दी है। अब बहुजन समाज पार्टी को भी लग रहा है कि राज्य में त्रिकोणात्मक राजनीति की स्थिति फिर से बन रही है और ऐसे में बसपा पहले की तरह फिर मजबूत हो सकती है। हालांकि, अभी तुरंत बसपा ने कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं शुरू की है, लेकिन जल्द ही पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम शुरू होंगे। बसपा के जानकार नेताओं का कहना है कि अब मायावती ब्रांड की राजनीति नहीं चलने वाली है।
यूपी में दलितों की सबसे बड़ी नेता मायावती मानी जाती थीं, लेकिन चुनाव दर चुनाव उनका वोटबैंक छिटकता जा रहा है। यूपी में दलितों की आबादी करीब २० फीसदी है। इस वोटबैंक को बसपा का बेस माना जाता था, लेकिन इस वोटबैंक में पहले भाजपा और अब सपा ने बड़ी सेंधमारी कर दी है। पिछले १० साल में पासी का एक बड़ा वोट बैंक भाजपा के साथ जुड़ा है, जबकि इस चुनाव में कुछ जाटव वोट सपा की तरफ खिसक गया, यानी मायावती का दलित वोट बंट गया है।
यूपी में बसपा के ढलान की सबसे बड़ी वजह मायावती का जमीनी कार्यकर्ता से जुड़ाव कम होना है। पिछले एक दशक में मायावती जमीन से कटती चली गर्इं और बसपा जमीन पर आती चली गई। इस बीच कई पुराने बसपा नेताओं ने पार्टी छोड़ दी और सबका आरोप था कि बसपा अब भाजपा की बी-टीम बन गई है। अखिलेश यादव ने इसका फायदा उठाया और बसपा के बड़े नेताओं को सपा में शामिल करा लिया। इनमें लालजी वर्मा, राम अचल राजभर, बाबू सिंह कुशवाहा शामिल हैं।
राजनीति के तेजी से बदलते हालातों के बीच बसपा के अंदर इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि पार्टी को अगर अपना खोया हुआ जनाधार वापस हासिल करना है तो बहनजी को अपने भतीजे आकाश आनंद को आगे करना होगा। गौरतलब है कि मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, लेकिन जैसे ही वे चुनाव प्रचार में भाजपा के खिलाफ आक्रामक हुए मायावती ने उनको अपरिपक्व बताते हुए उत्तराधिकारी के साथ-साथ पार्टी पद से भी हटा दिया।
इस बीच लोकसभा चुनाव में पश्चिम उत्तर प्रदेश के मायावती के गढ़ में नगीना सीट से आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद जीत गए। वे अपने को कांशीराम और मायावती का उत्तराधिकारी बता रहे हैं। उनके साथ युवाओं का जुड़ना जारी है, तभी बसपा के नेताओं को लग रहा है कि अगर आकाश आनंद को आगे नहीं किया गया तो दलित वोट का बड़ा हिस्सा खासकर युवा चंद्रशेखर के साथ चला जाएगा। वोट का बड़ा हिस्सा पहले ही भाजपा और सपा की ओर जा चुका है। ऐसे में यह देखना अहम होगा कि आने वाले दिनों में बहन मायावती आकाश को आगे करके पार्टी की गतिविधियों को दोबारा आगे बढ़ाएंगी या फिर वो अपने खोए जनाधार को वापस पाने के लिए कोई और कदम उठाएंगी।
(लेखक स्तंभकार, सामाजिक, राजनीतिक मामलों के जानकार एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)