रोहित माहेश्वरी
लखनऊ
यूपी में लोकसभा चुनाव के दो चरणों के मतदान में जबरस्त गिरावट आई है। कम मतदान ने हर दल के माथे पर शिकन ला दी है। पीएम मोदी, सीएम योगी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव, बसपा प्रमुख मायावती ने लोगों से ज्यादा से ज्यादा मतदान की अपील की थी, लेकिन किसी की अपील का कोई असर नहीं दिखाई दिया है।
यह आम धारणा रही है कि कम वोटिंग में भाजपा का नुकसान होता रहा है, पर इस बार की कम वोटिंग को समझना थोड़ा ज्यादा जटिल है। इसके पीछे एक नहीं कई कारण हैं। क्यों कम वोटिंग सत्ता पक्ष ही नहीं विपक्ष के लोगों के लिए भी चिंता का कारण है। जिस तरह पहले और दूसरे चरण में अपेक्षाकृत कम वोट पड़े हैं, उससे सभी दलों का गणित बिगड़ गया है। दो चरणों का मतदान संपन्न होने के बाद अब अगले चरण के मतदान के लिए कांग्रेस और भाजपा राजनीतिक गुणा-भाग में जुट गई हैं। भाजपा-कांग्रेस दोनों ही पार्टियां फीडबैक ले रही हैं।
यूपी में १९ अप्रैल को पहले चरण में प्रदेश में कुल ६१.११ फीसदी मतदान हुआ था। पिछले चुनाव के मुकाबले पहले चरण की इन सीटों पर करीब ५.३९ फीसदी कम वोट पड़े हैं। दूसरे चरण की वोटिंग प्रतिशत ५५.३९ रहा। पिछले आम चुनाव में इन सीटों पर ६२.१८ प्रतिशत वोट पड़े थे। इस हिसाब से साल २०२४ के चुनाव में दूसरे चरण में पिछले चुनाव के मुकाबले ६.७९ प्रतिशत कम वोटिंग हुई है। यूपी में इस बार कम मतदान की वजह से नतीजे कुछ अलग हो सकते हैं। खासकर भाजपा की उम्मीदों को झटका लग सकता है। पश्चिम में राजपूतों की, पिछड़ों में निषाद, विश्वकर्मा, लोधी और दलितों में गैर जाटव समुदाय की नाराजगी भी नजर आ रही है। संविधान बदलने, आरक्षण खत्म कर देने के मुद्दों से दलित वोट बैंक भी इस बार मतदान के प्रति उदासीन दिख रहा है। जिस तरह पहले दो चरणों के मतदान से पहले राजपूत समाज में भाजपा के प्रति नाराजगी सार्वजनिक तौर पर सड़कों पर दिखाई दी, उसने भाजपा के रणनीतिकारों की चिंता बढ़ा रखी है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बढ़ती गर्मी की वजह से तो वोटर नहीं निकल रहे, पर अन्य कुछ कारणों से भी मतदाता मतदान करने को लेकर उदासीन दिखते हैं। जनता के बीच जाकर उनके मुद्दों पर बात करने के बजाय सोशल मीडिया पर प्रचार ज्यादा है।
राजनीतिक दल अपने मुद्दों व प्रचार अभियान से जनता को उत्साहित नहीं कर पा रहे हैं। यही नहीं इस बार लोकसभा चुनाव राजनीतिक दल आधारित होने के बजाय प्रत्याशी आधारित देखा जा रहा है इसलिए प्रत्याशी के धर्म व जाति की वजह से वोटरों में भी धार्मिक व जातीय समीकरण हावी दिख रहे हैं। इस बार का मतदान काफी बिखरा नजर आ रहा है। चुनाव आयोग भी इस बात से संतुष्ट है कि पहले चरण के मुकाबले ईवीएम गड़बड़ी की शिकायतें कम मिली हैं, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी मतदान नहीं बढ़ना उनके लिए भी परेशानी का कारण है।
दो चरणों में अपेक्षाकृत कम मतदान ने दावेदारों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। माना जा रहा है कि इस बार चुनाव नतीजों में जीत-हार का अंतर कम रहेगा और कांटे की टक्कर से नतीजे निकलेंगे। मुकाबले राजनीतिक दल आधारित नहीं बल्कि उम्मीदवार आधारित ज्यादा हो रहे हैं। कम वोटिंग से किसे लाभ या किसे नुकसान होगा, इसे जानने की कोशिश में तरह-तरह के हवाई किले बनाए जा रहे हैं।भाजपा एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं के प्रभाव, विकास के मुद्दों, भगवान श्रीरामलला के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा आदि मुद्दों पर मतदाताओं से फीडबैक लेने में जुटी है। वहीं कांग्रेस भी अपनी न्याय की गारंटियों का मतदाताओं में कितना प्रभाव हुआ है, उसका आकलन करने में जुट गई है। सपा और बसपा ने भी अपने शीर्ष नेताओं से पहले दो चरणों के चुनाव का फीडबैक मांगा है।
उप्र में सबसे ज्यादा मुश्किलें भाजपा की बढ़ी हुई दिख रही हैं। भाजपा के रणनीतिकारों को अपना ४०० पार का लक्ष्य पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा है। आगामी ७ मई को तीसरे चरण के मतदान में १० सीटों के वोटर अपना वोट डालेंगे। इसके लिए भाजपा, सपा, कांग्रेस और बसपा ज्यादा से ज्यादा वोटिंग की कोशिशों में जुटे हैं। असल में भाजपा को लेकर जिस तरह की नाराजगी समाज के कई वर्गों में देखने को मिल रही है, वो उसकी चिंता की बड़ी वजह है। कुछ जानकारों का मानना है कि किसके पक्ष में ज्यादा वोट गया है, इस रुझान से निष्कर्ष निकालना काफी मुश्किल है।
(लेखक स्तंभकार, सामाजिक, राजनीतिक मामलों के जानकार एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)