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उत्तर की बात : यूपी में और तेज होगी, दलित वोटों की राजनीति!

रोहित माहेश्वरी
लखनऊ

लोकसभा चुनाव में इस बार बीजेपी को यूपी में अपेक्षित नतीजे हासिल नहीं हुए। वहीं लोकसभा चुनावों में बीएसपी अकेले ही चुनाव मैदान में उतरी थी पर एक भी सीट नहीं जीत सकी, जबकि २०१९ के चुनावों में समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव लड़ने के चलते पार्टी १० लोकसभा सीट जीतने में कामयाब हुई थी। जातीय समीकरणों की धुरी पर घूमती उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित आबादी की सदैव अहम भूमिका रही है। देश के सबसे बड़े राज्य में २१.१ प्रतिशत अनुसूचित जाति (एससी) यानी दलितों की आबादी है। आजादी के बाद कांग्रेस के साथ खड़ा रहा दलित तकरीबन ढाई दशक तक बसपा के साथ रहा, लेकिन इस चुनाव में बीजेपी के साथ इंडिया गठबंधन ने भी सेंध लगाई है। राज्य की ८० लोकसभा सीटों में से भले ही १७ ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं, लेकिन तकरीबन ४० सीटें ऐसी हैं जहां की २५ फीसदी से ज्यादा आबादी अनुसूचित जाति की है।
इस बार के लोकसभा चुनावों में बसपा ने अपनी दस सीटें ही नहीं गंवाई, बल्कि अपना वोट शेयर भी घटा लिया। बसपा यूपी में ९.३९ फीसदी वोट के साथ उस जगह पर पहुंच गई, जहां १९८९ में थी। बीती २३ जून को मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को एक बार फिर अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है। उन्हें दोबारा बहुजन समाज पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक भी बना दिया गया है। बता दें कि लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती ने अपने एक फैसले से सभी को चौंका दिया था. उन्होंने भतीजे आकाश आनंद को ‘अपरिपक्‍व’ बताकर पार्टी के नेशनल कोऑर्डिनेटर पद से हटा दिया था। साथ ही उन्हें परिपक्व होने तक अपना उत्तराधिकारी बनाने से भी मना कर दिया था।
लोकसभा चुनावों में जीत-हार का सबसे बड़ा पैâक्टर बना था दलित वोट। इसलिए प्रदेश की १० सीटों पर होने वाले उपचुनावों में यह भी तय होने वाला है कि भविष्य में दलित वोटों का मसीहा कौन बनने वाला है? जिस तरह बीएसपी से दलित वोट टूट रहे हैं, उस पर कब्जा करने की होड़ मची हुई है। कांग्रेस-समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी सभी के बीच दलित वोट की मारा-मारी तो रहेगी पर बीएसपी भी इस बार अपने कोर वोट बचाने के लिए अस्तित्व की लड़ाई लड़ेगी। इसलिए असली लड़ाई इस बार बीएसपी और चंद्रशेखर की पार्टी के बीच होने वाली है। दोनों ही दलों ने विधानसभा उपचुनाव में उतरने की हुंकार भरी है। जैसा कि सभी जानते हैं कि बीएसपी कभी भी उपचुनावों में अपने उम्मीदवार नहीं उतारती रही है पर इस बार परिस्थितियां बदली हुई हैं। बीएसपी को लग रहा है कि अपने समर्थकों को यूं ही अकेला छोड़ देने से कोई दूसरी पार्टी उन्हें हड़प सकती है इसलिए लगातार चुनाव मैदान में उतरना जरूरी है। शायद यही सोचकर बीएसपी ने एलान किया है कि वो इस बार विधानसभा उपचुनाव में पूरी तैयारी के साथ उतरेगी। जानकारों के मुताबिक, चंद्रशेखर की जीत ने ही मायावती को आकाश को दोबारा अपना उत्तराधिकारी घोषित करने को मजबूर किया है।
दूसरी तरफ लोकसभा चुनावों में अपनी पहली सीट जीतने वाली आजाद समाज पार्टी कांशीराम के मुखिया भीम ऑर्मी चीफ चंद्रशेखर भी इन चुनावों में ताल ठोंककर मैदान में उतरने का एलान कर चुके हैं। जाहिर है कि इस बार दलित वोटों के लिए तगड़ी लड़ाई होने वाली है। क्योंकि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की जीत का आधार भी दलित वोट रहे हैं। बड़ी संख्या में बीएसपी को मिलने वाले दलित वोट इस बार समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को शिफ्ट हुए थे। आजादी के बाद चार दशक तक केंद्र की सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी की झोली में जाने वाले जिस दलित वोट बैंक को कांशीराम-मायावती अपना बनाकर एक नहीं, चार-चार बार उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करने में कामयाब रही हैं। कभी दलित वोट कांग्रेस का कोर वोट बैंक होता था। कांग्रेस अपने परंपरागत वोट को फिर से हासिल करना चाहती है।
२०२२ में विधानसभा चुनाव भी बीएसपी ने अकेले लड़ा और केवल एक विधानसभा सीट से ही चुनाव जीत सकी थी। पूरे प्रदेश में अपनी कमजोर होती स्थिति को बचाने के लिए मायावती जरूर कोई नई रणनीति अपना सकती हैं। जिस तरह उन्हें कांग्रेस की ओर से बार-बार गठबंधन में शामिल होने का ऑफर दिया जा रहा है, उससे भविष्य में कुछ भी हो सकता है। इसी तरह आजाद समाज पार्टी ने जिस तरह चुनाव जीतने के बाद इंडिया गठबंधन के साथ जाने से इनकार कर दिया है, उससे एक बात पक्की हो चुकी है भविष्य में दलित वोट की लड़ाई बहुत कांटे की होने वाली है।

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