मनमानी की ऐंठ

तब तक रहते काम के, जब तक रहता काम।
बाद चूसकर फेंकते, लोग सड़क पर आम।।
सबको बांटी उम्रभर, जिसने ठंडी छांव।
फिर क्यों उसके ही जले, आज धूप में पांव।।
बदले कैसे सोचिये, उस घर के हालात।
आंगन की हर बात जब, बनी गली की बात।।
रहन-सहन से हो गए, कहने को धनवान।
होंगे कब व्यवहार में, पता नहीं इंसान।।
तन-मन-धन से जो रहा, सचमुच पहरेदार।
अंत उसी को चोर कह, दिया गया दुत्कार।।
रिश्ते-नाते-दोस्ती, किए सभी आजाद।
बार-बारी लूट जो, करते थे बर्बाद।।
मनमानी की ऐंठ जब, बंद करें संवाद।
होते तब हर बात पर, घर में रोज विवाद।।
दुनिया उतनी है कहां, अब संवेदनशील।
भरी तुम्हारे जो हृदय, नेह- स्नेह की झील।।
बैठे हल्दी गांठ पर, खूब करें आवाज।
पंसारी-सा हो गया, चूहों का अंदाज।।
गंगा जी में स्नान से, धुल जाते हैं पाप।
बढ़े रहे इस बात पर, पाप अनाप शनाप।।
देकर सदा ठगे गए, कहता है इतिहास।
भले समय हो, साथ हो, या फिर हो विश्वास।।
पथ पर कांटे हो बिछे, या मिले कभी फूल।
सौरभ रहा जमीर पर, तोड़े नहीं उसूल।।
-डॉ. सत्यवान सौरभ

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