२०१४ से देश में राजनीति का एक नया दौर शुरू हुआ और इस दौर में बनी एक नई जमात अंधभक्तों की जमात। इस जमात में पार्टी नेताओं, कार्यकर्ताओं से लेकर समाज के विभिन्न वर्गों के लोग पाए जाने लगे और धीरे-धीरे यह तादाद इतनी बढ़ी की देश में हर ओर इन्हीं का प्रभाव दिखने लगा। इतना प्रभाव कि उसके आभामंडल में खुद मोदी को भगवान होने का एहसास होने लगा और भक्तों का दास!
पिछले दो-चार दिनों से भाजपा के ‘भगवान’, अपने स्वार्थ के लिए दर-दर भटक रहे हैं। एक-एक सांसद के लिए झुक रहे हैं। एनडीए के घटक दलों के सांसदों वाले नेताओं के सामने नतमस्तक हो रहे हैं, उन्हें सम्मान दे रहे हैं, उनकी तरफ देख रहे हैं, हाथ मिला-मिलाकर बातें कर रहे हैं, सलाह-मश्विरा कर रहे हैं। उनके साथ आत्मीयता दर्शाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। कल तक लगभग सभी को खुद से दूर खड़े होने को मजबूर करने, सभी के अभिवादन को नजरअंदाज करने, सभी की ओर दुर्लक्ष करनेवाले मोदी अब सामने से सभी का अभिवादन कर रहे हैं। उन्हें सटाकर फोटो खिंचवा रहे हैं, इतना ही नहीं एनडीए के घटक दलों को सरकार में बराबर की हिस्सेदारी देने व उनके मुद्दों का समाधान करने का भरोसा भी दे रहे हैं। यह बदलाव निश्चित तौर पर काबिलेतारीफ है। पिछले दस वर्षों से सत्ता पक्ष के घटक दलों से लेकर विपक्ष की पार्टियां और क्या मांग रही थीं? यही तो उनकी डिमांड थी कि मोदी अहंकार छोड़ें और ‘सबके साथ, सबके विश्वास’ वाला अपना नारा अपनाएं। तब मोदी ने उनकी सुनी नहीं। खैर, जनता जनार्दन है। उसके झटके के बाद ही सही, वे सही राह पर तो आए। निश्चित ही इसका स्वागत होना चाहिए। परंतु उनका और स्वागत होता यदि ऐसी ही आत्मीयता वे अपनी खुद की पार्टी के सांसदों के प्रति भी दिखाते। एनडीए के घटक दलों का समर्थन लेने से पहले, एनडीए की बैठक में खुद को नेता घोषित करवाने से पहले भाजपा संसदीय दल की बैठक भी बुलवा लेते। खुद को नेता चुनवाने की औपचारिकता वहां भी पूरी करवा लेते। यह परंपरा का हिस्सा भी है। ऐसा करते तो कम से कम नव निर्वाचित भाजपाई सांसदों को भी तो कुछ अहमियत महसूस होती। दिखावे के लिए ही सही, अपने अंदरूनी अंधभक्तों का मन भी रख लेते। जैसे आपको १० वर्षों बाद पार्टी के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की सुध आई, कुछ सुध अपने २४० के आंकड़े की भी लेते। क्या ४०० सांसद चुनकर आते तब भी क्या उन्हें आप ऐसे ही नजरअंदाज करते। नहीं न! तब तो आप उनके बीच अपना डंका बजवा रहे होते और एनडीए के घटक दल आपका मुंह ताक रहे होते। ४०० नहीं आए तो क्या २४० की अहमियत खत्म हो गई? अरे, उन्हीं २४० की वजह से आप तीसरी बार पीएम बन रहे हैं। कुछ तो उनकी अहमियत रखते। मोदी विरोधी लहर में भी जीतकर आनेवाले सांसदों का कुछ तो मान करते, अपने अंधभक्तों का थोड़ा सा स्वाभिमान जिंदा रखते, तो क्या बिगड़ जाता।
अनिल तिवारी