मुख्यपृष्ठस्तंभअवधी व्यंग्य : गजल के उस्ताद

अवधी व्यंग्य : गजल के उस्ताद

एड. राजीव मिश्र
मुंबई

कहा जात है कि पढ़ाई होय चाहे कउनउ कला होय जब तक काबिल उस्ताद न मिली, कल्याण नही होइ सकत है। जब से गाँव के ठाकुर गुस्सैल सिंह के गजल लिखै के नशा मूड़े पर सवार भवा है। दिन-रात बहर, काफिया, रदीफ, वज्न के रट्टा मारि रहे हैं। रोज एक गजल लिखत हैं अउर फारि के फेंकि देत हैं। गजल नही बनत है तौ नाम से गुस्सैल सच में गुस्सा से आगबबूला होइ जात हैं। तब तक उन्है कोउ बतावा कि अइसन है बाबूसाहब, जब तक काबिल उस्ताद नही मिली तब तक गजल के गाजर न चबाय पइबा। गजलगोई मा शेर के चरबा करे के पड़ी। अब खोज शुरू भई एक काबिल उस्ताद के। केउ बताइस कि अलीगंज में कउनउ जनाब गुलफाम अली साहेब बहुतै बड़ा गजलकार हैं। इतने चौकस शायरीबाज हैं कि अपनी शायरी से ६-६ खवातीन घर मा बैठाईन है। अगर तुम उनसे शायरी सीखि गयो तो समझो तू गालिब के बराबर होइ जाबय। खैर, गुस्सैल सिंह दूसरे दिन होत सबेर अपने घोड़ा पे बैठ के गुलफाम अली के दरवाजे पर जाय धमके। ठाकुर साहब के आवा देखि गुलफाम अली के कंपकंपी छुटि गय अउर डेरात-डेरात पूछें, वैâइसे आयो सरकार? अइसा है गुलफाम मियाँ, हम इहाँ गजल सीखे खातिर आवा हई। इतना सुनतै गुलफाम अली पूरे फॉम में आई गए। अइसन है गजल कउनउ गाजर के हलुआ नही है कि गप्प से खाइ लेइहौ। उस्ताद के खिदमत करे के पड़त है तब जाइके ई हुनर अदमी में आवत है। सबसे पहिले तू अपने नाम के साथ तखल्लुस जोड़ो तब जाइके तुम्हरे शायरी में वजन पड़ी। खैर, काफी जद्दोजहद के बाद गुस्सैल सिंह के तखल्लुस ‘मासूम’ रखा गवा। दूसरे दिन जब ठाकुर साहब पहुँचें तो गुलफाम साहब कइनी के मुर्रा बनावत रहे और ठाकुर साहब के भी उही काम में लगाय दिहिन। काफी देर के बाद बाबूसाहब उस्ताद से पुछिन, गजल कब सिखइबो उस्ताद? अइसा है मासूम, एक बरिस उस्ताद के सेवा करो तब जाइके गजल के पाठ शुरू होइ। इतना सुनतै बाबूसाहब कइनी से गुलफाम साहब के तशरीफ के अइसन सेवा किहिन कि आज तक मुशायरा तो छोड़व, घर मा भी तशरीफ नही रख पावत हैं।

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