मुख्यपृष्ठस्तंभअवधी व्यंग्य : पिंडदान

अवधी व्यंग्य : पिंडदान

एड. राजीव मिश्र मुंबई
काल पुरखन के पानी देत चौदह दिन हुइ गवा, आज पितृ विसर्जन के दिन सुबहिये से महुआ के पेड़ के पाती पूरा गाँव छिनगावत अहइ। आज गिरजा गुरु के एक्कउ मिनट के मौका नही है। सुबह से शाम तक कुल १२ पिंडदान करवावय के है। गिरजा गुरु सुबहिये से कुर्ता-धोती के ऊपर चकाचक गमछा ओढ़ी के तैयार हैं। हालांकि, गाँव में बहुत लोग पूरा पितरपख अपने-अपने पुरखन के पानी देत रहे अब अलग बात है कि एक-दूसरे के तिलांजलि पर रिकिम-रिकिम के बात चल रही है। शहर से जगइया के ओकरे घर वाले जबरी बुलाये हैं कि छुट्टी लेइ लेव अउर आओ कम से कम जिनगी में एक बेरी तो पितरन के पिंडदान कइ जाओ। जगइया राजधानी के बड़के बिषबिद्यालय में पढ़ि के कामरेड हुइ गवा है तो अब पैलगी छोड़ि के लाल सलाम कइ रहा है। सुबहिये से धनिया काकी बहोरन के झकझोरि रहीं हैं, उठ रे बहोरना देख सुरुज देवता मूड़े पर चढ़ि गयें हैं अउर तू है कि मुँह ढाँकि के सोई रहा है। अरे आज पितृविसर्जन के दिन है ई नही कि उठि के पुरखन के दोनिया चढ़ाई देई, पानी पियाय देई। जगइया के देखो, सुबहिये उठि के पुरखन के तिरपित कइ दिहिस। चुप रह रे काकी का देखी जगइया के? उ ससुरा कबौ जब तक जियत रहे अपने बाप से सीधे मुँह बात नही किहिस अब पिंडदान कइ रहा है। अबहीं कालय फेरन दद्दा मिलें रहें कहत रहें कि दुइ दिन से जलेबी खाये के मन है पर जगइया जलेबी नही खियाइस अउर बात करत हय पुरखन के तिरपित करय के। कामरेड बहोरन के बात सुनिके धनिया काकी के देही में मानो आग लगि गवा होय। अइसन है बहोरना, उठ अउर निकरि घर में से नाही तो अबहिये तोर मुँह झउसि देब। जगइया के दद्दा के शुगर भवा है उ ओनकर तबियत के खातिर मिठाई नही खियावत है। तू का बोलि रहा है रे जे आपन अधमुआ बाप के छोड़ि के ढपली बजावै दिल्ली चला गवा। तू गियान देबे कि श्राद्ध होइ कि न होई। तैं का तिरपित करबे रे पुरखन के निकरि घर से तुरतै नाही तो मारि के मुँह के मुजफ्फरपुर कइ देबय। ये नन्हकू लेइ आव यहि कुलबोरना के भी आज श्राद्ध कइके यहिका भी पिंडदान कई देई।

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