मुख्यपृष्ठस्तंभराजस्थान का रण : प्रोजेक्ट्स भी भाजपा को फायदा नहीं दिला पाए

राजस्थान का रण : प्रोजेक्ट्स भी भाजपा को फायदा नहीं दिला पाए

गजेंद्र भंडारी

लोकसभा चुनाव में भाजपा को पीकेसी ईस्टर्न राजस्थान वैâनाल लिंक प्रोजेक्ट और यमुना जल प्रोजेक्ट का मुद्दा भी राहत नहीं दिला पाया। दोनों प्रोजेक्ट में १६ जिलों के १३ लोकसभा क्षेत्र शामिल हैं। इनमें सीधे तौर पर १०४ विधानसभा सीट जुड़ी हुई हैं। चुनाव में कांग्रेस ने इनमें से ज्यादातर सीटों पर भाजपा को मात दी। भाजपा इनमें से ६ लोकसभा सीट ही जीत पाई, जिसमें ४८ विधानसभा सीट शामिल हैं, जबकि कांग्रेस ने ७ लोकसभा सीट जीतकर ५६ विधानसभा सीट पर लीड बनाई। खास बात यह है कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने ही लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दोनों प्रोजेक्ट के विवाद को सुलझाया और दिल्ली में मध्य प्रदेश व हरियाणा के साथ अलग-अलग एमओयू किए। भाजपा ने इन बहुप्रतीक्षित प्रोजेक्ट्स को भुनाने के लिए संबंधित जिलों और लोकसभा क्षेत्रों में अभियान चलाया। मंत्री से लेकर विधायक, सांसद उम्मीदवारों ने इस चुनावी वैंâपेन को किया। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा, केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, जल संसाधन मंत्री सुरेश रावत ने प्रोजेक्ट स्थल का दौरा किया था। २८ जनवरी को दिल्ली में राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव और केंद्र सरकार के बीच समझौता पत्र पर हस्ताक्षर हुए थे। ८० हजार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन की सिंचाई और ३५ से ४० लाख आबादी को पानी मिलने की राह खुली।
राजस्थान पर सब हैं हैरान
लोकसभा २०२४ के इस चुनाव में राजस्थान के नतीजों में भाजपा को १४ बनाम ११ के आंकड़े ने सत्तारूढ़ भाजपा और उसके समर्थकों को बहुत बेचैन कर दिया है। भाजपा के किसी नेता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि राजस्थान के नतीजे इस तरह के रहने वाले है। खासकर साल २०१९ में अपने एक समर्थक के साथ सभी २५ लोकसभा सीटों पर परचम फहराने वाली भाजपा के लिए इन नतीजों को पचा पाना आसान नहीं है। चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने से पहले सभी लोकसभा क्षेत्रों में से ऐसे संकेत आ रहे थे कि मानो मतदाताओं का बड़ा वर्ग कह रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा से कोई प्यारा नहीं है, लेकिन नतीजे आए तो ऐसा लगा कि कुछ ही दिन में खंडित जनादेश देने वाले मतदाता ने कह दिया कि तेरा साथ इतना भी गवारा नहीं है। राजस्थान की सियासत के साहिल पर जिस तरह भाजपा की कश्तियां एक-एक कर डूबी हैं और जिस तरह कांग्रेस और उसके सहयोगी जीते हैं, उससे प्रदेश में हैरानियां तैर रही हैं। इससे प्रदेश नेतृत्व में एक तरह की छुपी हुई घबराहट सी है। इसकी वजह भी है। भाजपा के कार्यालय के भीतर और बाहर जिस तरह का माहौल इस समय है, उसे देखकर महसूस किया जा सकता है कि पार्टी में बड़ी स्तब्धता है। भाजपा ही नहीं, कुछ समय पहले तक राजनीतिक विश्लेषकों को भी इसी तरह के संकेत मिल रहे थे कि पार्टी एक बार फिर पहले जैसे समर्थन के साथ ही आ रही है, लेकिन चुनाव के बीच में पूरा खेल उलट-पलट गया।

बीजेपी का राजनीतिक समीकरण फेल
लोकसभा चुनावों के परिणामों में राजस्थान ने राजनीतिक समीकरणों की पुरानी घिसी-पिटी परिभाषा को बदल कर रख दिया है। साथ ही कई मिथकों को भी तोड़ दिया है। चुनाव की शुरुआत से ही भाजपा के नेता से लेकर कार्यकर्ता ओवर कॉन्फिडेंस में रहे। राजस्थान को भाजपा का गढ़ होने का मिथक पाल लिया। स्थानीय मुद्दे बजाय राष्ट्रीय मुद्दों के भरोसे रहे। यहां की जातिगत खांटी राजनीति को समझ कर सुलझाने वाला कोई नेता नहीं था। इससे परंपरागत राजनीतिक समीकरण बिगड़ गए। १ मार्च को भाजपा की लोकसभा प्रत्याशियों की पहली सूची आने के साथ जाट-राजपूत विवाद की जातिगत कहानी शुरू हो गई। लगातार चुनाव जीत रहे चूरू सांसद राहुल कस्वां का टिकट काटना भाजपा के लिए `कोढ़ में खाज’ बना। इसके बाद अलग-अलग इलाकों में पूरा चुनाव जाति केंद्रित हो गया। इस बात को समझकर डैमेज कंट्रोल करने वाला नेता भी पार्टी में नहीं था, बल्कि जीत के अति विश्वास में इस आग को और भड़का दिया। इस कारण कई सीटें भी हारे। जाट-राजपूत विवाद न सिर्फ चूरू, बल्कि पूरे राजस्थान में पैâल गया। राजस्थान में पूरे चुनाव का नेतृत्व मुख्यमंत्री भजनलाल ने किया। इनके अलावा कोई नेता प्रदेश में सक्रिय नहीं था। भजनलाल का भी पूरे प्रदेश का राजनीतिक कुल जमा अनुभव पांच महीने का है। वे पहली बार के विधायक हैं और उसके बाद सीधे मुख्यमंत्री। वैâबिनेट में कोई ऐसा मंत्री नहीं है, जिसकी प्रदेश स्तर पर पहचान हो। भाजपा के ज्यादातर नेता अपने इलाकों में फंसे थे।

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