अनिल तिवारी मुंबई
देश में रामराज्य का दावा आज किन परिस्थितियों में हो रहा है और यह कितना अर्थपूर्ण है, इसे खुद अयोध्या के ही विगत कुछ घटनाक्रमों से समझ लेते हैं। उत्तर प्रदेश के सैकड़ों पदच्युत तदर्थ शिक्षक रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होते ही सबसे पहले उनके दरबार में आजीविका बचाने की अर्जी लगाने पहुंचते हैं। मतलब यही न कि आज देश में बेरोजगारी का संकट दिन-प्रति-दिन विकराल हो रहा है, गहराता जा रहा है। शिक्षा और रोजगार के अभाव में छात्रों का भविष्य अंधकारमय है। अयोध्या के रौनाही थाना अंतर्गत एक २२ वर्षीय व्यक्ति का छत से लटका हुआ शव मिलता है। फॉरेंसिक जांच से पता चलता है कि उसे किसी ने मारकर लटका दिया था। मतलब, राज्य में षड्यंत्रकारियों और हत्यारों का बोलबाला है। एंटी करप्शन टीम बीकापुर और सोहावल तहसील में तैनात लेखपालों समेत अलग-अलग मामलों में खंड विकास अधिकारी को भी रंगे-हाथों धर दबोचती है। मतलब, नगर में रिश्वतखोरी का चरमोत्कर्ष है। थाना पूराकलंदर क्षेत्र अंतर्गत लूट का विरोध करने पर लुटेरे गृह स्वामी को गोली मार देते हैं। मतलब, गली-मोहल्लों में डकैती-लूटपाट और असुरक्षा का शीर्ष है। अयोध्या महामार्ग पर संदिग्ध लुटेरे डीसीएम रुकवाकर गुटखा-जर्दा लूट लेते हैं। मतलब, सरेराह नशे और धूर्तता का वर्चस्व है। परप्रांतियों से भूमाफियाओं का फ्रॉड होता है। मतलब, राज्य में धोखाधड़ी की मानसिकता है। बीच चौराहे दारोगा-सिपाहियों द्वारा कहीं बच्चों की डंडों से बेरहम पिटाई होती है, तो कहीं श्रद्धालुओं से मारपीट होती है। मतलब जनता पर दमन चक्र जारी है। वहां सरेआम ठगी का आलम तो यह है कि दर्शनार्थियों से ई-रिक्शा वाले २०-३० रुपयों की बजाय खुल्लम-खुल्ला ३५० से १,२०० रुपए प्रति व्यक्ति वसूल रहे हैं। ऑनलाइन दर्शन की जालसाजी हो रही है। इस पर कहीं श्रद्धालु युवती का अपहरण होता है, कहीं बलात्कार और ब्लैकमेलिंग होती है, कहीं से देह व्यापार के मामले आते हैं, तो कहीं सिपाही की आत्महत्या और कहीं हत्या हो जाती है। मतलब आधुनिक अयोध्या में हर ओर अपराध, अराजकता, अधर्म, अनीति और असुरक्षा का साम्राज्य है। अकेले अयोध्या में ही ऐसे तमाम मामले प्रतिदिन घटित हो रहे हैं। बेरोजगारी, शिक्षा का अभाव, षड्यंत्र, हत्या, रिश्वतखोरी, डवैâती, लूटपाट, असुरक्षा, नशा, धूर्तता, धोखाधड़ी, दमन, अपहरण, बलात्कार, ब्लैकमेलिंग, देह व्यापार, आत्महत्या, ठगी, जालसाजी, उस पर गुरु-शिक्षकों का तिरस्कार। श्री राम की अयोध्या में तो ऐसा कभी नहीं हुआ था। तब न केवल गुरु वशिष्ठ, विश्वामित्र व अन्य ऋषियों का आदर-सम्मान था, बल्कि सभी गुरु-महर्षि उनके राज में पूजनीय थे। किसी को भी कभी किसी अभाव का सामना नहीं करना पड़ा। आज गुरु-शिक्षक बेकार हैं। बेरोजगार हैं। इन समग्र समस्याओं पर काबू पाने में सरकार हर तरह से असफल साबित हो चुकी है।
अब थोड़ा और आगे बढ़कर फोकस राष्ट्रीय स्तर की पिछली घटनाओं पर कर लेते हैं। सत्ता बचाए रखने के लिए एजेंसियों का दमन चक्र तो वर्षों से जारी है। विपक्षी राज्यों के प्रमुखों और प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के नेताओं को कारागार में डाला जा रहा है। अर्थात, सत्ता में द्वेष और द्वंद की पराकाष्ठा है। चुनाव संपन्न कराने व मतगणना में ऑन वैâमरा धांधली, भ्रामक विज्ञापनों को प्रश्रय, धनाड्य मित्रों को मदद, किसान-मजदूरों की अनदेखी, रोजगार का गहरा संकट, महंगाई का उत्कर्ष, चुनावी वादों की खिलाफत, जनहित के विपरीत आचरण। इत्यादि…इत्यादि। अर्थात, सत्ता में जनता के प्रति जवाबदेही का जबरदस्त अभाव है। उस पर जिस राज में बेकाबू भीड़ पुलिस कार्यालय पर ही धावा बोल दे, शासन-प्रशासन से दो-दो हाथ करने पर उतारू हो जाए। जहां सड़कों पर महिलाओं व युवतियों की नग्न परेड निकाली जाए, उनसे सामूहिक बलात्कार किया जाए। उन्हें व उनके परिजनों को मौत के घाट उतार दिया जाए। छोटे-छोटे बच्चों तक को बख्शा न जाए और शासन चुप्पी साधकर उसका मूकदर्शक बना रहे, उनकी सुध तक न ली जाए, भला यह कौन सा रामराज्य है? जहां छोटे से बड़े सभी आकंठ भ्रष्टाचार, अनैतिक व्यवहार और झूठ के प्रचार में डूबे हों, किसी को भी समाज की सुध न हो, सभी कुछ केवल सत्ता प्राप्ति के दृष्टिकोण से होता हो, तो उसे किस दृष्टि से रामराज्य कहा जाएगा? सोचिए? कुछ दिनों पहले राज्य सत्ता को चुनाव और चुनावी चंदे में अपारदर्शिता के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार लगी थी, तो कोर्ट के न्याय पर ही ‘सत्ता’ का तंज आ गया। बौखलाहट में प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दल का खाता सीज हो गया और फिर खाते से भारी धनराशि भी निकाल ली गई। अर्थात यह सत्ता में खुल्लम-खुल्ला खीझ और खुन्नस वाले राज का उम्दा उदाहरण है। नफरत, क्रोध, लालच और दूराचार का अवगुण है। न कि रामराज्य का प्रारंभ!
अभी कुछ दिन पहले ही एक बेहद दुखद घटना घटित हुई है। जैन धर्मियों के सबसे बड़े धर्माचार्यों में से एक आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज महासमाधि में लीन हो गए। कोई उन्हें वर्तमान युग में ‘महावीर’ तो कोई वर्तमान ब्रह्मांड में देवता तुल्य मानता था। देश के बड़े-बड़े नेता तक उनके पैर छूकर उपदेश लेने अवश्य आते थे। राज्य सत्ता के नेता गण भी उनसे आशीर्वाद लेते रहते थे। उन्हीं महाराज जी से, जो कहा करते थे कि जो दूसरों के अवगुण देखता है और दूसरों को सुखी देखकर ईर्ष्या करता है वह कभी भी सुख-शांति का अनुभव नहीं कर सकता है। अर्थात जिस तरह कोई कीड़ा कपड़ों को कुतर देता है, ठीक उसी तरह ईर्ष्या इंसान को बर्बाद कर सकती है। वे चेताते हुए कहते थे कि ईर्ष्या अंतरात्मा को खा जाती है। लालच हमारे ईमान को और गुस्सा हमारी बुद्धि को खा जाता है। साथ ही वे यह भी कहा करते थे कि अच्छे लोग दूसरों के लिए जीते हैं, जबकि दुराचारी दूसरों पर जीते हैं। अत: उनका उपदेश था कि ‘मान’ को छोड़ने से दुनिया का ‘सम्मान’ चरणों में आ जाता है। इसलिए लघु बनना सीखो। छोटा बने बिना विराटता का अनुभव नहीं मिल सकता है। अर्थात, सत्ता को इन उपदेशों पर तो आत्ममंथन अवश्य करना ही चाहिए।
महाराज जी के एक-एक शब्द सत्य को परिभाषित करते हैं, परंतु दुर्भाग्य, आज ईश्वर से भी विराट व्यक्ति की प्रतिमा बन रही है। क्यों? तो केवल इसलिए कि उस व्यक्ति विशेष से सत्ता का निरंतर सुख प्राप्त होता रहे। बुराइयों पर पर्दा पड़ा रहे इसीलिए! विराटता की इस कड़ी में अब भगवान कल्कि का अवतरण भी करवा दिया गया है और उसका श्रेय भी लूटा जा रहा है। बात केवल श्रेय लूटने तक भी सीमित होती, तब भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होती पर जब यजमान को ही भगवान बताया जाने लगे तो उसे अंधत्व की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा। चलो यह भी मंजूर है। जो चाहो वो संज्ञा दो, पर इतना तो स्वीकारो कि धर्म शास्त्रों के आधार पर भगवान कल्कि का अवतरण पापियों के नाश और धर्म की रक्षा के लिए ही होना था। फिर जब दावा रामराज्य का ही है तो कल्कि अवतार कैसे? जहां राजा पिछड़े समाज से है तो ब्राह्मण परिवार में जन्म कैसे? तो क्या वैदिक तथ्य भी मिथ्या हैं? श्रीमद्भागवतमहापुराण के बारहवें स्कन्ध के द्वितीय अध्याय में कल्कि अवतार की जो कथा विस्तार से दी गई है, उसके अनुसार तो,
सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मन:।
भवने विष्णुयशस: कल्कि: प्रादुर्भविष्यति।।
भावार्थ यह कि सम्भल नगरी में विष्णुयश नामक श्रेष्ठ ब्राह्मण और उनकी धर्मनिष्ठ पत्नी, सुमति के पुत्र के रूप में भगवान कल्कि का जन्म होना है। वह देवदत्त नामक घोड़े पर आरूढ़ होकर जब अपनी कराल तलवार से दुष्टों और पापियों का संहार करेंगे, तभी सतयुग का प्रारंभ होगा। रामचरितमानस में भी कुछ ऐसा ही लिखा है,
जब-जब होई धरम की हानी, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी,
तब-तब धरि प्रभु विविध शरीरा, हरहि दयानिधि सज्जन पीरा!
अर्थात, जब-जब इस धरती पर धर्म की हानि होगी, असुरों और अधर्मियों का अन्याय धरती पर बढ़ जाएगा, तब-तब प्रभु अलग-अलग रूपों में अवतार लेकर धरती पर आएंगे और सज्जनों तथा साधु-संतों को उन अधर्मियों के अन्याय से मुक्ति दिलाएंगे। अत: यहां सुस्पष्ट है कि भगवान कल्कि अल्पायु में ही वेदादि शास्त्रों का पाठ करके महापंडित हो जाएंगे। बाद में वे जीवों के दु:ख से कातर हो महादेव की उपासना करके अस्त्रविद्या प्राप्त करेंगे। उनका विवाह बृहद्रथ की पुत्री पद्मादेवी के साथ होगा। भगवान कल्कि के तीन अन्य भाई सुमंत्रक, प्राज्ञ और कवि होंगे और ये सभी मिलकर धर्म की स्थापना करेंगे। भगवान कल्कि के चार पुत्र जय, विजय, मेघमाल, बलाहक होंगे। भगवान कल्कि विष्णु के निष्कलंक अवतार के रूप में भी जाने जाएंगे, वगैरह..वगैरह! क्या आज की परिस्थितियों में ऐसा कहीं कुछ नजर आ रहा है? कहीं कोई निष्कलंक नजर आ रहा है? नहीं न? फिर तुलना क्यों? फिर दावे क्यों? फिर धर्म के साथ यह खिलवाड़ क्यों? केवल सत्ता सुख के लिए? वैसे, बहुत संभव भी है कि सत्ता की आसक्ति में ये राजनीतिक गण इन असंभव तथ्यों को भी किसी न किसी तरह से सत्ता से जोड़ ही दें। ऐसा हो तो अचरज नहीं होना चाहिए। धर्म में अधर्म का घालमेल कर ही दे तो व्यथित नहीं होना चाहिए। वैसे, यहां सवाल तो यह भी उठता है कि जब प्रचार तंत्र के नजरिए से भगवान कल्कि का अवतरण हो ही गया है, उन्होंने धरती पर कदम रख ही दिया है तो निश्चित तौर पर किसके नाश के लिए? कौन है आज के युग का पापी? निर्णय सुधी जनता को ही लेना है। कभी-कभी ईश्वर को ओवरशैडो करने का प्रयत्न भी घातक साबित होता है। उसे भी अधर्म ही कहा जाता है। यह राजा का प्रजा के प्रति धर्म नहीं कहलाता। रामराज्य में यह अनपेक्षित है। यह सदाचार नहीं कहलाता।
शास्त्रों का मत है कि सदाचार से उत्तम और श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं है। पिछले दिनों हिंदी के एक मूर्धन्य विद्वान का किसी स्मारिका में छपा एक लेख पढ़ रहा था। जिसमें उन्होंने सदाचार की उत्तम व्याख्या करते हुए लिखा है कि राग, द्वेष, ईर्ष्या, छल, छद्म, कपट, झूठ, अहंकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य आदि असत् आचारों को त्यागकर परोपकार, दया, क्षमा, सत्य, अहिंसा, धैर्य, इंद्रिय निग्रह, अक्रोध आदि को अपने जीवन-व्यापार का अभिन्न अंग बनाने वाला व्यक्ति ही सदाचारी कहलाता है। उन्होंने लिखा है कि सभी शास्त्रों का निश्चित मत है कि सदाचार ही श्रेष्ठतम धर्म है। सभी गुण और ऐश्वर्य सदाचार के अभाव में निरर्थक हो जाते हैं। वे स्पष्ट रेखांकित करते हैं कि सदाचार का अभिप्राय है उत्तम आचरण और व्यवहार की शुचिता। अर्थात सदाचार, सत्संकल्प और सदाशयता का सन्निवेश होता है। ऐसे में कुत्सित भाव व विचार अपने आप नष्ट हो जाते हैं। यहां इस उल्लेख का तात्पर्य यही कि जब हमारे धर्म-पुराण मानते हैं, बतलाते हैं कि रामराज्य की स्थापना सदाचारी व्यक्ति से ही हो सकती है तो यह अनिवार्य हो जाता है कि वह राग, द्वेष, ईर्ष्या, छल, छद्म, कपट, झूठ, अहंकार, मोह, मद व कलि-कलह से मुक्त हो और उसमें उत्तम आचरण एवं व्यवहार की शुचिता भी अवश्य हो। इन गुणों के अभाव में व्यक्ति कितना ही ऐश्वर्यवान क्यों न हो, वह सदाचारी-सद्विचारी नहीं हो सकता और जब वह सदाचारी-सद्विचारी नहीं होगा तो उसके द्वारा संचालित राज्य सत्ता का महिमामंडन रामराज्य के रूप में कैसे होगा? क्योंकि आचारहीन और सद्विचार विहीन आत्मा से रामराज्य नहीं बन सकता। राजा और प्रजा के बीच निश्छल संबंध नहीं हो सकता। आचार्य विद्यासागर जी जोर देकर कहा करते थे कि जब एक राजा और प्रजा एक हो जाते हैं तो वह समवशरण कहलाता है। जहां गैया और सिंह एक साथ बैठकर भी, न गाय भय खाए, न ही सिंह को गाय खाने का भाव आए। ऐसी शक्ति, ऐसा वातावरण आवश्यक होता है। अर्थात सनातन धर्म की व्याख्या में कहें तो यही तो रामराज्य की परिभाषा भी है। ऐसे विद्वत महाराज जी का समय-समय पर उपदेश व आशीर्वाद लेने वाले सत्ता के शीर्ष नेताओं का तो इस पर अमल करना अनिवार्य भी हो जाता है।
खैर, आस्था सर्वोपरि है परंतु फिर भी वो मानवता के धर्म से ऊपर नहीं है। अर्थात मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है। श्री राम की कलियुगी आस्था से भी बड़ा। हिंदूहृदयसम्राट शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने भी यह जतलाने का प्रयास किया था, जब राम मंदिर पर हद से ज्यादा राजनीति होने लगी थी। तब उन्होंने ही उसका विकल्प भी सुझाया था। उन्हें राम मंदिर पर कोरी राजनीति करनी होती तो शायद वे ऐसा नहीं करते। उन्होंने बाबरी ढांचा ध्वस्त होने के ५ वर्षों के भीतर ही अपना मत व्यक्त कर दिया था और इस पर राजनीति बंद करने की स्पष्ट हिदायत भी दी थी। उन्होंने कहा था, ‘मेरा यह विचार भी दोनों पक्षों ने मान्य किया लेकिन जो स्वार्थी हैं, उन्हें यह मंजूर नहीं होगा।’ एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया था कि अयोध्या के संबंध में आपने जो अपनी विचारधारा रखी है उससे हिंदुओं पर क्या असर पड़ेगा? तो शिवसेनाप्रमुख का उत्तर था कि सत्ता की कायरता और कमतरता के कारण ही मेरा सुझाव एकमेव मार्ग है, ऐसा मैंने कहा है। अपनी बातों को विस्तार देते हुए उन्होंने श्री राम पर राजनीति करने वालों का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया था। मंदिर आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भी वे इसका राजनीतिक दोहन नहीं चाहते थे। अन्यथा भाजपा तो जनसंघ के समय से ही राम मंदिर मुद्दे का राग अलाप रही थी पर वह परवान चढ़ा तब, जब शिवसेनाप्रमुख ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। बिना किसी राजनीतिक लाभ की इच्छा के। हालांकि बीजेपी की नीयत शुरुआत से ही आंदोलन की आड़ में राजनीतिक लाभ ढूंढ़ने की थी। जिसे उन्होंने राष्ट्र निर्माण का नाम दिया। परंतु राष्ट्र निर्माण से तात्पर्य क्या है? यह कभी स्पष्ट नहीं किया गया। जब-जब उन पर सवाल उठे, उन्होंने राष्ट्र निर्माण की आड़ ले ली। तो क्या ५० से ९० के दशकों के बीच राष्ट्र निर्माण नहीं हुआ था? क्या यूपीए के दौर में राष्ट्र निर्माण नहीं हुआ? क्या राष्ट्र निर्माण के मायने केवल राजनीतिक लाभ से है? और क्या अब राष्ट्र निर्माण के लिए मथुरा-काशी की बारी है?
यदि भाजपा केवल सनातन धर्म की हितैषी होती तो वह मंदिरों का कभी राजनीतिकरण नहीं करती। आज काशी, मथुरा और अन्य मुद्दे उछाले जा रहे हैं। मथुरा, काशी की परिस्थितियां अयोध्या से भिन्न हैं। वहां मंदिर और मस्जिद दोनों वजूद में हैं। अयोध्या में दोनों ही वजूद में नहीं थे। मस्जिद थी पर वह अमान्य थी। भगवान की मूर्तियां थीं पर मंदिर नहीं था। दूसरा अयोध्या में सभी कुछ राम जन्मभूमि तक सीमित है पर मथुरा में संपूर्ण ब्रज क्षेत्र महत्वपूर्ण है। काशी में समग्र गंगा तट पूजनीय है। आज अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा को एक माह से अधिक बीत जाने के बाद भी देश का पूरा लक्ष्य उपरोक्त परिस्थितियों पर टिका है। श्री राम की राजधानी अवध और उनकी जन्मस्थली अयोध्या पर ही केंद्रित है। तो क्यों? केवल इसलिए कि इन सब कवायदों से उनके जीवन में क्या सकारात्मक बदलाव आए, यह जानने के लिए। सत्ता की नीयत में क्या सुधारवादी बदलाव आया, इसे पहचानने के लिए। राजधर्म के पालन में कितनी तत्परता आई, उसे तौलने के लिए।
अत: सारांश यही कि यदि २२ जनवरी २०२४ के बाद इस देश में सामाजिक समरसता, धार्मिक समभाव, रामराज्य का संकल्प और राम तत्व की विचारधारा को अंगीकार कर लिया जाता, आत्मसात कर लिया होता। राजनीतिक द्वंद्व और द्वेष को तिलांजलि दे दी जाती। सत्ता और विपक्ष के प्रति समभाव उत्पन्न कर लिया जाता। तब तो रामराज्य का प्रारंभ कहा जा सकता था। लिहाजा सवाल तो उठेंगे ही न, कि आपने राम मंदिर तो बना दिया पर उन सा राज्य कहां बना? सभी के सम्मान और स्वाभिमान को स्थान कहां मिला? उन जैसी नम्रता-विनम्रता, वो समरसता, न्यायप्रियता व त्याग कहां आया? जब ऐसा नहीं हुआ, तो राम सही अर्थों में वनवास से लौटे ही कहां, उनका वâलियुगी अरण्यवास जारी ही तो है। यदि खत्म हुआ हो तो बताइए?