संतोष मधुसूदन चतुर्वेदी
हर कोऊ आबरू कौ भूखौ हतै। ज्वान होय, बुढ़ऊ होय चाएँ बच्चा होय, हर काऊ कूं आबरू चइयें। आबरू के दायरे कौ कोऊ हिसाब नांयनें। जगै-जगै या आबरू कौ ई झमेलौ हतै। याई आबरू की होड़ मै सगरी भीर भाजती जाई रई एॅ। हर कोऊ या आबरू के हवनकुंड मै कित्ती हू धन-दौलत कूं स्वाहा कर रह्योएॅ। या कौ कबू काऊ नें अंदाजौ नाँय लगायौ एॅ।
हरेक कदम पै हर एक कूं यै कंगाल करती जाय रई एॅ। आदमी मायावी आबरू के पीछें भाज-भाजकें अपुने कूं खोखलौ करतौ जाय रह्यो एॅ। आखरी सांस तलक याके पीछें भाजतौ रह्ये। कितनों हू कोऊ खरच करें, कित्ती हू कोऊ आबरू रखबे की कोसिस करै या आबरू के जगै-जगै `बाप’ मिलिंगे, जो तुमसौं हू जादा खरच करिंगे…`तू सेर तौ मैं सवा सेर’ जगै-जगै तिहारे पाम’न कूं खींच लिंगे। या काजें यै आबरू थर्मामीटर के पारे की नाईं कबू उल्लंग कूं चली जाबेगी, कबू पल्लङ्ग कूं चली जाबैगी।
याई `आबरू, शान, मान’ औरु `नाम’ कूं गरीब हू अपनी जान दे दैमें `लोग काह कहमिंगे’।
भीतर ई भीतर जैर कौ घूंट पीते रहौगे। जाकौ काऊ सौं कह हू नाँय सकौगे। जा खुशी औरु आबरू कौ `दावा’ करौ, बौ अब आंखन मै असुआ लाबैगी या लियै सुधरौ, जो तिहारे पास हतै, बाई मै खुस रहकें जिनगी कौ आनंद लेते रहौ। पलभर की वा-वाही के लियें, हर कोऊ लाखन-करोड़न खरच कर दैमें, जिनकौ कोऊ सबूत हू नाँय रहै (जैसे ब्याओ-काज’न में)। या पैऊ जरूरी नांयनें की जिनकौ ब्याओ भयौ की बौ खुस रहै औरु सुखी रहै या हर जगै आबरू के हकदार हौं। आदमी के पास कितनौ हू पइसा होय तृप्ति नाँय होमतै, बा की वजह का एॅ?? `पइसा, जासौं `आबरू औरु मान’ खरीदौ जाई सवैâ। देखौ जाय तौ आदमिन की जरूरतें हैं ई का? `रोटी-कपड़ा औरु मकान’, जो आराम सूं पूरी है सवैंâ। या काजें आसाएं पूरी है सवैंâ, आकांक्षाएं पूरी नाँय है सवैंâ सकती। कित्ती हू खुसियां औरु सुख मिलै, फिर ऊ कोऊ न कोऊ कमी रह जाबैगी। क्यों नाँय आदमी समझै की या `दिखाइबे’ सौं कछू नाँय मिलैगौ। यै `आबरू औरु दौलत’ इत्ती `बेवफा’ हतै की तिहारे देखते ही देखते, आज याके जौरें तौ कल बा के जौरें चली गयी। आप देखते औरु हाथ मलते रह जाऔगे। हर कोऊ याई आबरू के पीछें, अपुन कूं लुटाय रह्यो एॅ। जितनौ हू पइसा होय, तौऊ आदमी कूं सबर नांयनें। तबी तौ कबीर बाबा ने कही एॅ- साई इतना दीजिए जामें कुटुम समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु भी भूखा न जाय।