नया कुछ नहीं है नया यह है कि
पुराना सब चला गया कबाड़खाने।
अब रह गया है समय
उसी के साथ उठता हूं, बैठता हूं
खेलता हूं खाता पीता
बोलता बतियाता हूं।
और उसी के साथ
रात के अंधेरे में सो जाता हूं
निश्चिंत होकर।
उधर क्या है क्या नहीं है
क्या करना।
आशा को लात मारकर आजाद हूं।
इसीलिए आजकल आबाद हूं।
मैं आजादी की बुनियाद हूं
इस दुनिया में स्वतंत्र
निर्भीक आत्मनिर्भर
अपने पैर पर।
और कर लिया हूं
दोस्ती समय के साथ
हवा से भी खिलखिलाकर आजकल।।
कहां आ गए हम
लुढ़कते लुढ़कते कहां आ गए हम।
कहते हैं धोखा बहुत खा गए हम।।
विरासत में हमको उजाला मिला था।
कैसे अंधेरों के घर आ गए हम।।
गरीबी में खुश थे सभी देशवासी ।।
मगर आज कैसे कहां आ गए हम।।
लगता है कोई जहर घोलता है।
गुलामी को ओढ़े कहां आ गए हम।।
गिरावट में देखो प्रथम आ गए हम।
थे हम कहां अब कहां आ गए हम।।
नैतिक हवा थी सुहाना सफर था।
दिशाहीन होकर कहां आ गए हम।।
सवालों के घेरे में कैसे घिरे हम।
यही प्रश्न है अब कहां आ गए हम।।
सियासत ने हमको मुसीबत में डाला।
अब क्या बताएं कहां आ गए हम।।
अब तो सभी लोग यह सोचते हैं।
कहां से चले थे कहां आ गए हम।।
मौसम
मौसम को गरमाने दो।
नई रोशनी आने दो।।
अंधेरा तो बहुत हो गया।
जल्दी इसे हटाने दो।।
अपनी सम्मानित जनता का ।
थोड़ा मान बढ़ाने दो ।।
भाषा की मर्यादा में ही।
अब व्यवहार निभाने दो।।
घेर चुकी है हमें गुलामी।
इसको दूर भगाने दो।।
हरे-भरे सारे वृक्षों में।
नई कोपलें आने दो ।।
मंह मंह महके बाग हमारा ।
खुली हवा अब आने दो ।।
सच को सच कहने की आदत।
हम लोगों में आने दो।।
कैसे होगी साफ सफाई।
इसका पता लगाने दो।।
अब वसंत का मौसम लेकर।
भारत माँ को आने दो।।
क्रांतिकारियों की जमात को ।
नया गीत अब गाने दो।।
इंकलाब का परचम लेकर ।
भारत में फहराने दो।।
मौसम को गरमाने दो।
नई रोशनी आने दो ।।
-अन्वेषी