जीतेंद्र दीक्षित
भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक सलमान रश्दी की विवादित किताब ‘द सैटेनिक वर्सेज’ एक बार फिर बाजार में उपलब्ध हो गई है। दिल्ली के एक पुस्तक विक्रेता ने इस किताब को अमेरिका से मंगवाकर बेचना शुरू कर दिया है। दिल्ली हाई कोर्ट में किताब पर से बैन हटाने के लिए कुछ समय पहले एक अर्र्जी दायर की गई थी। इस किताब के बाजार में फिर से आ जाने से मुझे फरवरी १९८९ का वह दिन याद आ गया, जब इसके कारण मुंबई में खूनखराबा हुआ था। मैं उस घटना का प्रत्यक्षदर्शी हूं।
१९८८ में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम समुदाय के विरोध को ध्यान में रखते हुए इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस किताब को लेकर दुनियाभर में विवाद हुआ था। किताब के प्रकाशकों पर हमले हुए और जिन दुकानों में इसे बेचा जा रहा था, वहां तोड़फोड़ की गई। लगभग ढाई साल पहले, न्यूयॉर्क में इस किताब के लेखक सलमान रश्दी पर एक गंभीर हमला हुआ, जिसमें उनकी एक आंख की रोशनी चली गई।
हालांकि, सरकार ने इस किताब पर प्रतिबंध लगाया था,लेकिन प्रतिबंध के तीन महीने बाद भी आक्रोशित मुस्लिम समुदाय ने सड़कों पर उतरकर अपना विरोध दर्ज कराने का पैâसला किया। तमाम मुस्लिम संगठनों ने फरवरी १९८९ की एक तारीख तय की। उस दिन दोपहर को एक मोर्चा नागपाड़ा के मस्तान तालाब से फ्लोरा फाउंटेन स्थित ब्रिटिश कूटनीतिक केंद्र तक जाने वाला था। मुंबई के मुसलमानों से इस मोर्चे में शामिल होने की अपील करने वाले विज्ञापन उर्दू अखबारों में प्रकाशित किए गए थे।
इस मोर्चे की खबर मिलते ही मुंबई पुलिस चिंतित हो गई। कहीं, कानून-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न न हो, इस आशंका से पुलिस ने मोर्चे की अगुवाई करने वाले नेताओं को एक रात पहले ही गिरफ्तार कर लिया। यह पुलिस की बहुत बड़ी गलती साबित हुई। नेताओं की गिरफ्तारी से अनजान, मुस्लिम समुदाय की भीड़ मस्तान तालाब पर एकत्रित हो गई। कुछ देर बाद यह भीड़ हजारों की संख्या में मोर्चे के रूप में मोहम्मद अली रोड के रास्ते फ्लोरा फाउंटेन की ओर बढ़ने लगी। चूंकि नेता पुलिस की हिरासत में थे, इसलिए इस भीड़ को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं था।
दोपहर ३ बजे के आसपास, जब यह मोर्चा दक्षिण मुंबई के क्रॉफर्ड मार्वेâट के पास पहुंचा, तो पुलिस ने बैरिकेड्स लगाकर इसे रोकने की कोशिश की। पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों ने मोर्चे में शामिल लोगों से अपील की कि वे वापस लौट जाएं। साथ ही यह सुझाव दिया कि मोर्चे के पांच लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल ब्रिटिश कूटनीतिक कार्यालय जाकर अपना विरोध ज्ञापन सौंप सकता है, लेकिन गुस्साई भीड़ किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थी।
पुलिस और मोर्चे के बीच बातचीत चल ही रही थी कि अचानक भीड़ में से पुलिस पर पत्थर, खाली बोतलें और चप्पलें फेंकी जाने लगीं। इसके बाद पुलिस ने जवाबी कार्रवाई करते हुए लाठीचार्ज शुरू कर दिया। मोहम्मद अली रोड पर भगदड़ मच गई। प्रदर्शनकारी पुलिस से बचने के लिए पास की गलियों में भागते और फिर बाहर निकल कर पुलिस पर पथराव करते। यह प्रदर्शन हिंसक हो गया और मोहम्मद अली रोड पर दंगा शुरू हो गया।
दंगाइयों ने वाहनों को आग लगा दी। मस्जिद बंदर की चकला स्ट्रीट के मुहाने पर बनी पुलिस चौकी को जला दिया गया और कई पुलिस वाहनों को भी आग के हवाल कर दिया गया। लगभग दो घंटे तक मोहम्मद अली रोड पर हिंसा का तांडव चलता रहा। पुलिस ने दंगाइयों को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे, लेकिन वे गोले फटे ही नहीं। बाद में पता चला कि ये सभी गोले एक्सपायर हो चुके थे। इसके बाद पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी।
पुलिस फायरिंग में १२ लोगों की मौत हो गई। मरने वालों में कुछ निर्दोष लोग भी थे, जिनका इस हिंसक प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं था। मृतकों में केरल के दो लोग भी शामिल थे, जो मुंबई से उमरा जाने के लिए गुजर रहे थे। उन्होंने अपने होटल की खिड़की से नीचे हो रही अफरातफरी को देखने की कोशिश की, तभी उन्हें गोली लग गई। इसी तरह, एक युवक जो अपनी दुकान बंद करके घर लौट रहा था, वह भी पुलिस की गोली का शिकार हो गया।
मुंबई के जेजे अस्पताल में अफरा-तफरी का माहौल बन गया। घायलों को लगातार अस्पताल लाया जा रहा था और उनके परिजनों की भीड़ के कारण अस्पताल में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई।
यह घटना एक बार फिर मुंबई के प्रतिक्रियावादी चरित्र को उजागर करती है। मुंबई वह शहर है जहां दुनिया के किसी अन्य कोने में होने वाली घटनाओं की प्रतिक्रिया देखी जा सकती है। सलमान रश्दी ने यह किताब ब्रिटेन में लिखी, उनकी मौत का फतवा ईरान ने जारी किया, किताब पर प्रतिबंध दिल्ली में लगाया गया, लेकिन लाशें मुंबई की सड़कों पर गिरीं।
(लेखक एनडीटीवी के सलाहकार संपादक हैं।)