जब भी दरिया देखती हूं
अक्सर मैं यह सोचती हूं
आख़िर एसी क्या मजबूरी थी
नहर से खैमों में कितनी दूरी थी
खैमों तक जाना क्या मुश्किल था
या फिर दरिया तू बहुत बुजदिल था
किसने रोका था ए दरिया तेरी मौजों को
तू तो डुबो सकता था यजीद की फौजों को
क्या इतना खौफ था शिम्र के लशकर का
तू ख़ामोश देखता रहा कत्ल नन्हे असगर का
अब क्यूं बेचैन, बेकल सा भटकता रहता है
पशेमानी में पत्थरों पे सर पटकता रहता है
ए फ़ुरात सारे दरिया इस ख़लिश में ताउम्र जागते हैं
क्या इससे अदा होगा तेरा कफ्फारा जवाब मांगते हैं।।
-नूरुस्सबा शायान
नई मुंबई