सखाराम बाइंडर
बात है ८० के दशक की। यह किस्सा सखाराम बाइंडर को सुनाया था एक ऐसे तंदुरुस्त और मजबूत कलाकार ने, जिसने अपनी आधी जिंदगी सिर्फ हीरो के लात और घूंसे खाने में बिता दी। खैर, सखाराम बाइंडर एक दिन इन साब से टकरा गया और दिल उनसे पूछा, यह बताइए आपने फिल्मी जीवन में यहां के रंग-ढंग की शिक्षा वैâसे ली? साब का जवाब था अपने आसपास घटने वाली घटनाओं के तजुर्बे से ली। उन्हीं में से एक किस्सा मैं आपको सुनाता हूं। यह वह दौर था जब ए, बी, सी सभी ग्रेड की फिल्में बना करती थीं और सभी को थिएटर और दर्शक भी मिलते थे। आज की फिल्मों जैसा माहौल नहीं था कि सारे थिएटर कुछ कॉर्पोरेट के हाथ में आ गए, सारे प्रोडक्शन और सारे स्टूडियो खुद कॉर्पोरेट बन बैठे और बिजनेस में एमबीए की डिग्री करनेवाले कहानीकारों, निर्देशकों और कलाकारों को समझाने लगे कि फिल्में वैâसे बनती हैं। नतीजा यह हुआ जो आप देख रहे हैं आज कोई हिंदी फिल्म चलने का नाम नहीं ले रही। थिएटर दर्शकों की आस में सूने पड़े हैं। खैर, किस्से पर आते हैं। उस दौर की एक सीक्रेट फिल्म में इन साब को विलन का किरदार निभाने का मौका मिला। यह फिल्म भी उस दौर की दूसरी फिल्मों की तरह ही थी, जिसमें घाघरा-चोली पहने एक हीरोइन होती है, गब्बर सिंह की घटिया कॉपी वाला एक डाकू होता है। कुछ भी हो साब तारीफ करनी पड़ेगी उन लोगों की जो भी बनाते थे, जैसी भी फिल्में बनाते थे, हाउसफुल होती थीं। किस्सा यह था कि प्रोड्यूसर ने फिल्म के लिए फिल्मी दुनिया की सारी छोटी-मोटी, घिसी-पिटी, कास्ट सी ग्रेड कलाकारों को उठाकर कहानी चुन ली। हीरो की जगह एक नए खूबसूरत लंबे-चौड़े चेहरे को लॉन्च कर दिया। इन साब की मानें तो वह हीरो इतना काबिल, इतना खूबसूरत और इतनी प्यारी आवाज का धनी था कि अगर इंडस्ट्री में टिक जाता तो अच्छे-अच्छों की दुकान बंद कर सकता था। फिल्म की शूटिंग शुरू हो गई। हीरो नया था। हां, शुरू-शुरू में थोड़ा नर्वस था, मगर सेट पर जब लोगों की प्रतिक्रिया देखी तो हिम्मत आने लगी। लोग उसके काम की तारीफ करते। हर आदमी उससे बात करना चाहता। उसके ऑटोग्राफ लेना चाहता। हीरोइन तो उसका पीछा छोड़ने का नाम ही न लेती। हर शॉट के बाद उसके पास जाकर बैठ जाती। अभी तो इस भाई की पहली फिल्म भी नहीं बनी थी और उससे पहले ही इसे इतना भाव मिलना शुरू हो गया था। इन साब ने कहा कि बस यह देखते ही मैं समझ गया कि यह इस हीरो की आखिरी फिल्म है। अगर मैं उस हीरो को जानता, मैं उसका दोस्त होता तो उस वक्त मैं उसे जरूर सलाह देता, मगर मैंने उसे सलाह न दी क्योंकि मुझे लगा कि यह मेरी बात को गलत ले सकता है। हीरोइन जब चिपककर उस हीरो के साथ हर शॉट के बाद बैठती तो हीरो फूला न समाता और अपने प्रोड्यूसर को भी दिखाता कि देखो प्रोड्यूसर साहब, आपने किसी गलत आदमी पर पैसे नहीं लगाए, आज आपकी पूरी यूनिट मेरी दीवानी है। आपकी हीरोइन मेरी दीवानी है। कल आपकी फिल्म देखने वाले दर्शक भी मेरे दीवाने हो जाएंगे। वह और बढ़-चढ़कर हीरोइन के साथ प्यार की पींगें बढ़ाने लगा। उसे लगा कि यह सब मेरे फेवर में जाएगा, लेकिन यही बात उस पर उल्टी पड़ गई क्योंकि हीरोइन पर प्रोड्यूसर साब की नजर थी। इस फिल्म को बनाने का पैâसला ही प्रोड्यूसर साहब ने हीरोइन को खांचे में लेने के लिए किया था। हीरोइन तो खांचे में आई या नहीं आई, लेकिन प्रोड्यूसर साहब ने जल-भुनकर उस हीरो को खोपचे में ले डाला। आधी फिल्म में ही उसे निकाल दिया। दूसरा हीरो लेकर फिल्म की शूटिंग पूरी की। फिल्म भी रिलीज की। फिल्म चली भी और सबने पैसा भी कमाया। हीरोइन ने उसके बाद कई और फिल्में कीं मगर उस हीरो का कहीं पता नहीं था। आज वह जहां कहीं होगा और इस अखबार में इस किस्से को पढ़ रहा होगा तो वह समझ जाएगा कि उसकी दर्द भरी दास्तां जो दुनिया में शायद ही कोई जानता हो आज सखाराम बाइंडर उसे दुनिया के सामने ले आया है। इस कहानी से सबक यह मिलता है कि अपने जीवन में हम जो भी काम करें पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करें। बस, अपना चरित्र अच्छा रखें और फोकस सिर्फ काम पर रखें।