फागुन का रंग

रंग फाग का अंग लगा जिया झर झर बरसे l
साथ पिया के राह तकें मेरे नैना ऐसे तरसे l
जैसे चातक बाट तके इक बूंद नीर की पाने को,
जैसे बादल तरस रहे अपना जल बरसाने को,
कस्तूरी मृग से नयना छल छल यूं रस छलके l
रंग फाग का अंग लगा जिया झर झर बरसे
मादक ऋतु यूं मदमाती बेचैनी अब बढ़ती जाती,
कामदेव के सर संधान न लिखते प्रीत की पाती,
तप्त बदन जल रहा हाय कब बरसेगा सावन फिर से l
रंग फाग का…
काजल जैसी काली रातें और सघन हो जाती l
हृदय चकोरी जब प्रीतम को कहीं नहीं है पाती l
दूर पपीहा टेर रहा कैसे निकलूं मैं घर से l
रंग फाग का…
-डॉ. कनक लता तिवारी

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