शाहिद ए चौधरी
मुहम्मद अब्दुस समद की पत्नी ने सीआरपीसी की धारा १२५ के तहत पैâमिली कोर्ट में यह कहते हुए दस्तक दी थी कि उसे तीन तलाक दी गई है और आग्रह किया था कि उसे गुजाराभत्ता मिलना चाहिए। अदालत ने उसकी बात को मान लिया और उसके लिए मासिक गुजाराभत्ता निर्धारित कर दिया। समद ने इस पैâसले के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील की, लेकिन वहां भी उन्हें सफलता न मिली और गुजाराभत्ता बढ़ाकर १०,००० प्रतिमाह कर दिया गया। समद का तर्क था कि मुस्लिम महिला (तलाक पर सुरक्षा अधिकार) कानून, १९८६ के तहत उनकी तलाकशुदा पत्नी को गुजाराभत्ता का हक केवल इद्दत की अवधि के दौरान है, जोकि तीन माह है। समद का यह भी कहना था कि अलग-अलग समुदायों के जो व्यक्तिगत कानून हैं, वह व्यक्ति को सेक्युलर लॉ के तहत गुजाराभत्ता के प्रावधान का लाभ उठाने से रोकते हैं। समद अपने इन्हीं तर्कों के साथ सुप्रीम कोर्ट गये। सुप्रीम कोर्ट ने समद के तर्कों को ठुकराते हुए १० जुलाई २०२४ को अपने महत्वपूर्ण पैâसले में कहा कि महिला को सीआरपीसी की धारा १२५ के तहत गुजाराभत्ता लेने का अधिकार है, उसका धर्म चाहे जो हो। चूंकि यह मुद्दा ‘लिंग समता का है, चैरिटी (दान या परोपकार) का नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने गुजाराभत्ता की रकम भी दो गुनी कर दी। समद को अब अपनी पूर्व पत्नी को १०,००० रुपए प्रतिमाह की बजाय २०,००० रुपए प्रतिमाह देने होंगे।
सुप्रीम कोर्ट के इस पैâसले के महत्व को समझने से पहले जरूरी मालूम होता है कि सीआरपीसी की धारा १२५ के तहत और मुस्लिम महिला (तलाक पर सुरक्षा अधिकार) कानून, १९८६ के तहत गुजाराभत्ता के प्रावधानों को संक्षेप में समझ लिया जाये। सीआरपीसी की धारा १२५ कहती है कि तलाकशुदा महिला को अपने पूर्व पति से मासिक गुजाराभत्ता पाने का अधिकार उस समय तक है, जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं कर लेती है और बच्चों को गुजाराभत्ता १८ वर्ष की आयु प्राप्त करने तक मिलेगा। १९८६ के मुस्लिम महिला कानून के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिला को सिर्फ इद्दत की अवधि (तीन माह) तक गुजाराभत्ता मिलेगा और साथ ही महर की रकम और अदालत द्वारा तय एकमुश्त गुजाराभत्ता भी मिलेगा, जबकि बच्चों को २ वर्ष की आयु तक गुजाराभत्ता मिलेगा। इसके बाद मासिक गुजाराभत्ता का कोई प्रावधान नहीं है। निकाह के समय आपसी सहमति से तय की गई राशि, जिसे पति को अपनी पत्नी को लाजमी देना होता है, उसे महर कहते हैं। तलाक के बाद पुन: विवाह करने हेतु जो प्रतीक्षा अवधि होती है, उसे इद्दत कहते हैं, जो अमूमन तीन माह या तीन मासिक चक्र की होती हैै। लेकिन तलाक के समय अगर महिला गर्भवती है तो इद्दत उस समय तक होगी जब तक कि वह बच्चे को जन्म नहीं दे देती।
न्यायाधीश बीवी नागरत्ना और न्यायाधीश एगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा कि १९८६ कानून के गठन के बावजूद मुस्लिम महिला को अधिकार है कि वह सीआरपीसी की धारा १२५ के तहत गुजाराभत्ता मांग सकती है। यह संबंधित मुस्लिम महिला पर निर्भर करता है कि वह दोनों में से किस कानून की या दोनों ही कानूनों की शरण ले क्योंकि १९८६ कानून के गठन का उद्देश्य सीआरपीसी की धारा १२५ के अतिरिक्त तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकारों में वृद्धि करना है (न कि उन्हें कम करना)। न्यायाधीश नागरत्ना के अनुसार, ‘गुजाराभत्ता लिंग समता का पहलू है, बराबरी का समर्थन करता है और यह चैरिटी नहीं है।’ अलग- अलग लेकिन आपसी सहमति वाले अपने पैâसलों में दोनों न्यायाधीशों ने कहा कि सीआरपीसी की धारा १२५ सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होती है, जिसमें विवाहित मुस्लिम महिलाएं भी शामिल हैं। दोनों न्यायाधीशों के अनुसार, यह प्रावधान सामाजिक न्याय का प्रयास है ताकि कमजोर वर्गों के हितों को सुरक्षित रखा जा सके, पार्टियों के लागू व्यक्तिगत कानूनों के बावजूद।
न्यायाधीश मसीह ने कहा, ‘हम यह निष्कर्ष निकालने के इच्छुक हैं कि दोनों सीआरपीसी १९७३ की धारा १२५ के सेक्युलर प्रावधान और १९८६ कानून की धारा ३ के व्यक्तिगत कानून प्रावधान गुजाराभत्ता के समान अधिकार सुनिश्चित करते हैं। अपने-अपने अलग डोमेन में उनका समानांतर अस्तित्व है, जिसके चलते, उनका सामंजस्यपूर्ण गठन है और वह निरंतर जारी है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला १९८६ के कानून के गठन के बावजूद सीआरपीसी १९७३ के प्रावधानों के तहत गुजाराभत्ता की मांग कर सकती है।’ न्यायाधीश मसीह ने यह भी कहा कि संसद का कभी यह उद्देश्य नहीं था कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकारों को इद्दत अवधि के बाद सीमित कर दिया जाए, जबकि न्यायाधीश नागरत्ना ने कहा कि १९८६ कानून का गठन करने में संसद का मकसद तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकारों में अतिरिक्त वृद्धि करना था। उनके अनुसार, अगर उद्देश्य तलाकशुदा मुस्लिम महिला के अधिकारों को सीमित या कम करना होता तो १९८६ कानून की धारा ३ में यह वाक्यांश न होता- ‘तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य कानून में किसी बात के होते हुए भी’। फिर संसद ने उसी समय या उसके बाद किसी अन्य वक्त पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं लगाया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला धारा १२५ के तहत गुजाराभत्ता का दावा नहीं कर सकती।
न्यायाधीश नागरत्ना का कहना है कि १९८६ कानून की धारा में जो उक्त वाक्यांश है, उसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला को धारा १२५ के तहत गुजाराभत्ता लेने का अधिकार सीमित या कम कर दिया गया है। इस प्रकार की व्याख्या प्रतिगामी होगी, तलाकशुदा मुस्लिम महिला के विरोध में होगी और संविधान के अनुच्छेद १४, १५(१) व (३) और अनुच्छेद ३९(ई) के विपरीत होगी। इसलिए १९८६ कानून की तकनीकी या रूढ़िवादी व्याख्या न केवल लिंग न्याय के लिए मूर्खतापूर्ण होगी बल्कि उस तलाकशुदा पीड़ित मुस्लिम महिला के संवैधानिक अधिकारों के भी विरोध में होगी जिसे गुजाराभत्ता की अति आवश्यकता है। न्यायाधीश नागरत्ना ने इस बात पर भी बल दिया कि गुजाराभत्ता न्यूनतम नहीं बल्कि पर्याप्त मात्रा का होना चाहिए यानी महिला सही से अपना गुजारा कर सके। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने १९८६ कानून की नए सिरे से व्याख्या की है कि उसने महिला को केवल महिला के रूप में देखा है और उसकी धार्मिक पृष्ठभूमि पर ध्यान देने की बजाय उसकी जरूरतों को प्राथमिकता दी है। इसके अतिरिक्त अदालत ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का विस्तार ही किया है कि वह चाहे तो सीआरपीसी की धारा १२५ के तहत गुजाराभत्ता लें या १९८६ कानून के तहत गुजाराभत्ता लें या दोनों के तहत ही अपने अधिकारों को हासिल करें।
यह लिंग समता की दृष्टि से स्वागतयोग्य पैâसला है और जो लोग शरारत या जानबूझकर इस पैâसले पर राजनीति करने का प्रयास कर रहे हैं, उन्होंने इस पैâसले के महत्व को समझा ही नहीं है। यह पैâसला १९८६ कानून को निरस्त नहीं करता है बल्कि उसके साथ ही तलाकशुदा मुस्लिम महिला को सीआरपीसी की धारा १२५ का अतिरिक्त विकल्प प्रदान करता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)