मुख्यपृष्ठस्तंभकॉलम ३ : दलित मुखर हैं और मुस्लिम खामोश...!!

कॉलम ३ : दलित मुखर हैं और मुस्लिम खामोश…!!

विजय कपूर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ताजा साक्षात्कार में दावा किया है कि लोकसभा चुनाव के पांचवें चरण के मतदान तक बीजेपी ने बहुमत के आंकड़े को पार कर लिया है और अब वह अपने लक्ष्य ४००-पार को हासिल करने की ओर बढ़ रही है। इस दावे की हकीकत तो आगामी ४ जून को सबके सामने आ ही जायेगी, लेकिन जब बीजेपी प्रत्याशियों से यह मालूम किया गया कि उन्हें लोकसभा में ४०० प्लस सीटें क्यों चाहिए, तो उनमें से अनेक ने अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता प्रदर्शित करते हुए कहा ताकि संविधान को बदला जा सके। दूसरे शब्दों में इसका यह अर्थ भी लगाया गया कि आरक्षण पर विराम लगाया जा सके। अब दलितों के लिए बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा ‘गठित’ भारतीय संविधान धर्मग्रंथ का दर्जा रखता है। उन दलितों की संख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है, जो अपने विवाह संस्कार में संविधान की शपथ व उसके फेरे लेते हैं। अत: वह संविधान की ‘रक्षा’ में पिछले चुनावों की तुलना में २०२४ लोकसभा चुनाव में अधिक मुखर हो गये हैं।
हालांकि अपने विभिन्न साक्षात्कारों में नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वे हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति नहीं करते हैं, लेकिन चुनावी सभाओं में उनके भाषण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिमों पर ही फोकस करते हैं बजाय इसके कि अपने दस वर्ष के कार्यकाल की ‘उपलब्धियों’ व अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में बताने के। उन्हीं की देखा-देखी बीजेपी के अन्य नेता जैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा आदि भी अपने-अपने भाषणों में मुस्लिमों को ही अधिक याद करते हैं। इन भाषणों में मुस्लिमों के लिए जिस शब्दावली का प्रयोग किया गया है व किया जा रहा है, वह निश्चितरूप से निंदनीय व अशोभनीय है। उसका किसी भी तर्क से बचाव नहीं किया जा सकता। लेकिन यह सोचने की बात है कि भड़काने के प्रयासों के बावजूद मुस्लिम एकदम खामोश हैं, जबकि जजबाती प्रवृत्ति का यह समुदाय आमतौर से बिना सोचे समझे भी अपनी त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए जोश में आ जाता है। पिछले चुनावों में मुस्लिमों की तरफ से यह मांग अवश्य उठती थी कि राज्य व राष्ट्रीय सदनों में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाये, जो इस लिहाज से उचित भी लगती थी कि १३.६ प्रतिशत (२०११ की जनगणना क्योंकि २०२१ की जनगणना अभी तक हुई नहीं है) जनसंख्या वाले मुस्लिम समुदाय का १७वीं लोकसभा में मात्र ४.७ प्रतिशत (२६ सांसद) प्रतिनिधित्व था। लेकिन इस बार मुस्लिम यह मांग भी नहीं कर रहे हैं, जबकि मुख्य राजनीतिक दलों ने २०२४ लोकसभा चुनावों में मात्र ७८ मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं, जोकि २०१९ लोकसभा चुनावों के ११५ उम्मीदवारों से ३७ कम हैं। बीजेपी व उसके सहयोगी दल जद (यू) ने सिर्फ १-१ मुस्लिम को अपना प्रत्याशी बनाया है। बसपा ने सबसे ज्यादा ३५ मुस्लिमों को अपना प्रत्याशी बनाया है, जिनमें से १७ उत्तर प्रदेश में हैं। इसके बाद १९ मुस्लिम उम्मीदवार कांग्रेस के हैं। हालांकि तृणमूल व सपा की जीत में मुस्लिमों का विशेष योगदान रहता है, लेकिन उन्होंने भी क्रमश: ६ व ४ मुस्लिम प्रत्याशी ही मैदान में उतारे हैं। हद तो यह है कि जिन सीटों पर मुस्लिम मतों का अच्छा प्रतिशत है, उनमें से अधिकतर पर किसी भी मुख्य पार्टी ने अपना प्रत्याशी मुस्लिम नहीं दिया है, मसलन मेरठ लोकसभा सीट पर लगभग ४८ प्रतिशत मुस्लिम मत हैं, फिर भी तीनों प्रमुख दलों- बीजेपी, सपा व बसपा में से एक का भी प्रत्याशी मुस्लिम नहीं है। अपना संभावित प्रतिनिधित्व घटता देखकर भी मुस्लिम खामोश हैं। आखिर क्यों?
बसपा के २०२४ लोकसभा चुनाव में जो कुल प्रत्याशी हैं उनमें से २५ प्रतिशत मुस्लिम हैं। चूंकि बसपा के बेस मतदाता दलित हैं, इसलिए इस चुनाव में उसकी कोशिश है कि दलित-मुस्लिम गठजोड़ से वह पटरी से उतरी अपनी सियासी गाड़ी को फिर से पटरी पर ले आये। लेकिन दलितों में अब यह बात घर कर गई है कि जब उन्हें अपने नेता (मायावती) की अति आवश्यकता होती है, तब बहनजी सियासी मंच पर कहीं दिखायी नहीं देती हैं, मसलन जब २०२० में हाथरस में एक दलित लड़की की सामूहिक दुष्कर्म के बाद मौत हो गई थी व उसके शव का रात के अंधेरे में पुलिस के दबाव पर अंतिम संस्कार कर दिया गया था, तब बहनजी नदारद थीं। संविधान पर मंडरा रहे तथाकथित खतरे पर भी बहनजी की लगभग चुप्पी ने उनके समर्थकों को आश्चर्य में डाला हुआ है। लेकिन दलित अब अपने ‘नेताओं’ व अपने ‘संगठनों’ की ‘लापरवाही’ पर खुलकर बोल रहे हैं। वह ‘पहचान’ व ‘अस्तित्व’ जैसे शब्दों का अधिक प्रयोग करने लगे हैं, जिसके लिए वह संविधान की ‘रक्षा’ को लाजमी समझ रहे हैं। दलित मतदाता अकेले में बात करें तो स्वीकार करते हैं, ‘बहनजी व बसपा का विरोध करने का निर्णय हममें से अधिकतर के लिए आसान नहीं रहा है। लेकिन जब दोस्त व रिश्तेदार बातचीत के दौरान संविधान बचाने के विषय को उठाते हैं, तो खामोश रहना विकल्प नहीं है। उन दलों की तरफ देखना आवश्यक हो जाता है जो इस संदर्भ में हमारा सहयोग कर सकते हैं। संविधान को लेकर इंडिया गठबंधन ने अपने कार्ड्स अच्छे से खेले हैं।’
आजकल यह खबर सोशल मीडिया में वायरल हो रही है कि घोसी लोकसभा सीट के मोहम्दाबाद में मुस्लिम बुनकर दिन में अपना काम खत्म करके एक चौक में एकत्र हो जाते हैं और जब उनसे सोशल मीडिया के कई पत्रकार विशेषकर यू ट्यूबर चुनाव के संबंध में कोई सवाल करते हैं, तो सवाल करने वालों के प्रेस कार्ड देखकर ये मुस्लिम युवा कहते हैं, `हमें पहले यह मालूम होना चाहिए कि किससे बातें कर रहे हैं, फिर वो लोग अपना नाम न बताकर कहते हैं कि वे सोशल मीडिया में राजनीतिक खबरों या घटनाक्रम को फॉलो करते हैं, इसके बाद भी खामोश रहते हैं। जब उनसे पत्रकार पूछते हैं कि आखिर वे इतने खामोश क्यों रहते हैं, तो उनका कहना होता है, ‘बात का बतगंड़ बनने में देर नहीं लगती और ध्रुवीकरण से सिर्फ नुकसान होता है। इसलिए हम खामोश हैं और सावधान भी। हमने बहुत सावधानी से अपने लिए प्रत्याशियों व पार्टियों का चयन कर लिया है। इसलिए हम बोलना जरूरी नहीं समझते, हमारे लिए सही से मतदान करना ज्यादा जरूरी है।’
बहरहाल, दलित व मुस्लिम बहुल बस्तियों में घूमने वाले पत्रकारों को जहां दलित मुखर, वहीं मुस्लिम खामोश मिलते हैं। लेकिन ये अकेले ही चुनावों के समय रणनीतिक मुद्रा अख्तियार नहीं किए बल्कि सामान्य समुदायों के युवाओं ने भी सेना में भर्ती की अग्निवीर योजना, पेपर लीक, बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर वैसी ही रणनीतिक मुद्रा अख्तियार कर रखी है। आश्चर्यजनक यह है कि यह चुनाव कोविड-१९ की भयंकर लहर के बाद हो रहा है, जिसके कारण लॉकडाउन लगा था, लोगों को आर्थिक परेशानियां उठानी पड़ी थीं, लाखों अप्रवासी मजदूरों को पैदल ही हजारों मील सफर करना पड़ा था और ऑक्सीजन की कमी व अन्य मेडिकल सुविधाओं के अभावों में लाखों लोगों की जानें गई थीं, लेकिन किसी ने भी स्वास्थ्य सेवाओं को चुनावी मुद्दा नहीं बताया। इस चुनाव में कांग्रेस वापसी कर रही है या नहीं, इस बारे में कुछ कहना तो जल्दबाजी होगी, लेकिन जिस प्रâीक्वेंसी से दलित खुलकर मुस्लिम दबी जुबान कांग्रेस का विकल्प के तौर पर उल्लेख कर रहे हैं, वह कांग्रेस के लिए एक अच्छी खबर है।

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