प्रमोद भार्गव
विजयपुर विधानसाभा सीट से छह बार के कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत वैसे तो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए हैं, लेकिन अब वे इस्तीफा देने की बजाय चाहते हैं कि कांग्रेस उन्हें अनुशासनहीनता के आरोप में निष्कासित कर दे, जिससे उन्हें उपचुनाव लड़ने की जरूरत नहीं रह जाए। इस लिहाज से वे कांग्रेस नेताओं के परिप्रेक्ष्य में अनर्गल बयान देकर उन्हें उकसाने में लगे हैं कि इन आरोपों के संदर्भ में उनका निष्कासन संभव हो जाए, लेकिन कांग्रेस भी रावत की मंशा भांप गई है इसीलिए कांग्रेस संगठन के प्रमुखों ने लगभग मौन साध लिया।
हाल ही में रावत ने कहा है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद वह आपा खोकर बौखला गई है। मैं कांग्रेस के वरिष्ठ विधायकों में से एक रहा हूं, लेकिन मेरी लगातार उपेक्षा की जा रही है। कांग्रेस विधायक दल का नेता बनने के कई अवसर आए, लेकिन मुझे अनदेखा किया गया और मुझसे कई साल कनिष्ठ विधायक को प्रतिपक्ष बना दिया गया। मेरे समकक्ष किसी नेता को बनाते तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती। यही नहीं उन्होंने यह तक कहा कि कांग्रेस पार्टी में पैसे लेकर टिकट दिए जाते हैं। पार्टी ने ऐसे व्यक्ति को टिकट दिया, जिसने मेरे खिलाफ न केवल चुनाव लड़ने का विचार किया, बल्कि मतदान केंद्र को हथियाने का भी काम किया था। कांग्रेस में किसी कार्यकर्ता एवं नेता की सुनवाई नहीं होती। ये आरोप उन्होंने हाल ही में कांग्रेस संगठन पर लगाए हैं। जाहिर है, वे संगठन प्रमुखों को उकसाने में लगे हैं, जिससे उन्हें कांग्रेस से निष्कासित कर दिया जाए। रावत के इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कांग्रेस मीडिया प्रकोष्ठ के अध्यक्ष मुकेश नायक का कहना है कि विधायक रामनिवास रावत को विधायक पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए। लगता है, वे चुनाव से डर रहे हैं इसीलिए ऐसा नहीं कर रहे। पार्टी ने उन्हें विधायक पद से हटाने के लिए चुनाव आयोग एवं विधानसभा अध्यक्ष को शिकायत कर दी है। जल्द परिणाम सामने आएगा। रावत लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा में शामिल हो गए थे। इसी तर्ज पर बीना सीट से कांग्रेस विधायक निर्मला सप्रे भी भाजपा में चली गई थीं। इन दोनों विधायकों को कांग्रेस अपना विधायक मानकर नहीं चल रही है। १ जुलाई से होनेवाले विधानसभा सत्र में भी कांग्रेस इन्हें अपने साथ नहीं बिठाएगी। इनकी विधानसभा सदस्यता समाप्त करने के नजरिए से कांग्रेस विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर को आवेदन भी दे चुकी है। इन दोनों ने लोकसभा चुनाव के समय भाजपा के मंच को साझा तो किया ही, कांग्रेस के आधिकारिक प्रत्याशियों के विरोध में प्रचार भी किया। बावजूद कांग्रेस ने इनका निष्कासन नहीं किया। इस सिलसिले में रावत का कहना है कि वे भाजपा में शामिल नहीं हुए हैं। भाजपा के मंच पर तो वह मित्रता के नाते गए थे, जबकि रावत भाजपा की सदस्यता मुख्यमंत्री मोहन यादव और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के समक्ष विजयपुर में ले चुके हैं। उन्होंने भाजपा का इस मौके पर अंगवस्त्र भी धारण किया था। २९ अप्रैल को विजयपुर में इन दोनों नेताओं की जनसभा हुई थी, उसका प्रबंध भी रावत ने किया था। बाद में उन्होंने मुरैना से कांग्रेस प्रत्याशी सत्यपाल सिंह सिकरवार के विरोध में काम भी किया। ये सब प्रमाण कांग्रेस के पास मौजूद हैं। निर्मला सप्रे से जुड़े प्रमाण भी कांग्रेस के पास हैं।
विधानसभा सचिवालय के नियम के अनुसार, जब तक दोनों विधायक विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा नहीं दे देते हैं, तब तक उनकी सदस्यता के संदर्भ में अंतिम निर्णय नहीं हो पाएगा। चूंकि १ जुलाई से होनेवाले मानसून सत्र में इन दोनों विधायकों को कांग्रेस सदन में नहीं बिठाएगी। आसन के क्रम में सूची में दोनों के नाम कांग्रेस ने नहीं जोड़े हैं। ऐसे में विधानसभा में इनको अलग से स्थान आवंटित करने का प्रबंध सचिवालय को करना होगा। पिछली विधानसभा में बड़वाह से कांग्रेस विधायक सचिन बिरला के साथ ऐसा हो चुका है। उनकी सदस्यता समाप्त करने के आवेदन को विधानसभा अध्यक्ष ने निरस्त कर दिया था और सदन में उनके बैठने के लिए अलग से आसन आवंटित किया गया था।
दरअसल, ये दोनों विधायक इसलिए इस्तीफा नहीं देना चाहते, क्योंकि उन्हें फिर सत्ता में भागीदारी के लिए उपचुनाव लड़ना पड़ेगा। अतएव तकनीकी आधार पर ये दोनों विधायक इस जुगाड़ में हैं कि उनके पार्टी विरोधी आचरण को कारण मानकर उन्हें कांग्रेस से निष्कासित कर दिया जाए। ऐसा होता है तो उन पर दलबदल कानून की गाज नहीं गिरेगी और उपचुनाव भी नहीं लड़ना पड़ेगा। इसी मंशा के चलते रावत कांग्रेस नेतृत्व पर निरंतर उंगुली उठा रहे हैं। उन्होंने दिग्विजय सिंह और कमलनाथ से लेकर प्रदेश कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष जीतू पटवारी और नेता विपक्ष उमंग सिंघार पर भी करारे हमले किए हैं।
छह बार से विधायक रावत संसदीय परंपराओं और संवैधानिक प्रावधानों को भली-भांति जानते हैं। उन्हें मालूम है कि दलबदल कानून को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए किस तरह की चालें चलने की जरूरत है। शतरंज की बिसात पर वे ऐसी ही चालें सोच-समझकर चल रहे हैं। यदि वे विधायक पद से इस्तीफा नहीं देते हैं और कांग्रेस उन्हें निष्कासित भी नहीं करती है, तब उनकी सदस्यता का अंतिम निर्णय क्या लेना है, इसकी जवाबदेही विधानसभा अध्यक्ष की इच्छा पर निर्भर रह जाएगी। यदि अध्यक्ष की कृपा रावत और सप्रे पर बनी रहेगी तो अध्यक्ष की टेबल पर आवेदन लंबित पड़ा रहेगा और पूरे पांच साल यथास्थिति में गुजर जाएंगे। इस तरह के मामले विधायक हरिवल्लभ शुक्ला और सचिन बिरला के मामलों में देखने में आ चुके हैं। हालांकि, ऐसा कहा जा रहा है कि रावत दलबदल करके भाजपा में इसलिए आए हैं, जिससे उन्हें प्रदेश मंत्रिमंडल में जगह मिल जाए? लेकिन कांग्रेस छोड़ते वक्त भाजपा संगठन से इस तरह की कोई शर्त रखी गई है, यह स्पष्ट नहीं है। बहरहाल, राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी रामनिवास रावत और निर्मला सप्रे पूरे पांच साल कुछ ऐसा ही खेल खेलते रहेंगे, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।