लोकमित्र गौतम
कई बार बहुत मामूली बल्कि गैर जरूरी मुद्दे भी इस कदर सुर्खियां घेर लेते हैं कि वो आपकी कूटनीतिक, राजनीतिक यहां तक कि सांस्कृतिक और सभ्यतागत परीक्षा तक लेने लगते हैं। पाकिस्तान में आगामी १९ फरवरी से ९ मार्च २०२५ के बीच आयोजित होनेवाली आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी ऐसा ही मुद्दा बन गया है। हालांकि, मुझे झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव मतदान को लेकर लिखना था, लेकिन चैंपियंस ट्रॉफी का यह मामूली मुद्दा अंतरार्ष्ट्रीय सुर्खियों में इस कदर भारत को कटघरे में खड़ा कर रहा है कि बिना मतलब ही हमारी ऐसी छवि बनती जा रही है जैसे कि हम हैं नहीं।
गौरतलब है कि पिछले ३० सालों में पहली बार पाकिस्तान को आईसीसी के किसी टूर्नामेंट को आयोजित करने की मेजबानी मिली है, लेकिन भारत ने गुजरे ९ नवंबर २०२४ को आईसीसी को चिट्ठी लिखकर इसमें भाग लेने के लिए पाकिस्तान जाने से साफ मना कर दिया है। ऐसी स्थिति में अब इस प्रतिष्ठित टूर्नामेंट के संपन्न होने के लिए एक ही रास्ता बचता है कि टूर्नामेंट हाइब्रिड मॉडल के तहत हो, लेकिन पाकिस्तान इसके लिए राजी नहीं है, उसने इससे साफ इनकार कर दिया है। ऐसा होना स्वाभाविक है। किसी भी देश को ऐसी मांग अपनी प्रतिष्ठा के लिए ठेस महसूस हो सकती है फिर पाकिस्तान तो एक टूर्नामेंट में ऐसा कर भी चुका है। सवाल है कि अगर पाकिस्तान में न खेलने की इस जिद से चैंपियंस ट्रॉफी टूर्नामेंट नहीं होता तो इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?
निश्चित रूप से भारत पर ही इसकी तोहमत लगेगी और यह हमारे उदारवादी खेल चरित्र पर एक बड़ा सवालिया निशान होगा और बेहद पीड़ादायक भी क्योंकि वास्तव में अव्वल तो हम ऐसे हैं नहीं। दूसरी बात यह है कि विशुद्ध खेल का यह कठोर निर्णय खिलाड़ी नहीं, राजनेता ले रहे हैं। लेकिन सोचिए अगर ८ वनडे टीमों वाले इस टूर्नामेंट में भारत के अलावा ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, दक्षिण अप्रâीका, न्यूजीलैंड, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ने पाकिस्तान में जाकर खेलना मंजूर कर लिया और कोई आपातकालीन व्यवस्था करके भारत की जगह आईसीसी ने इसके लिए किसी भी एक और टीम को शामिल करके, जो अभी तक आठ में नहीं है, टूर्नामेंट संपन्न करा ले तो क्या होगा? क्या इससे हमारी छवि धूमिल नहीं होगी? ध्यान रखिए चैंपियंस ट्रॉफी में खेलने के भारत के रवैये को लेकर इंग्लैंड एंड वेल्स क्रिकेट बोर्ड (ईसीबी) ने पाकिस्तान को न केवल फुल सपोर्ट का आश्वासन दे चुका है, बल्कि भारत को इससे कड़ा संदेश देने की भी कोशिश की है।
इसी के मद्देनजर हमें याद रखना चाहिए कि ऑस्ट्रेलिया भी हमें मौके-बेमौके आईसीसी में घेरने के फिराक में रहता है, क्योंकि क्रिकेट में हमारा प्रभुत्व उसे कभी नहीं पचता। इसलिए अगर वह भी इंग्लैंड की तरह पाकिस्तान को आयोजन का आशीर्वाद दे देता है तो दक्षिण अप्रâीका, बांग्लादेश और न्यूजीलैंड को भी उस पाले में जाने में बहुत दिक्कत नहीं होगी। ऐसी स्थिति भारत के लिए बहुत खराब होगी और यह असंभव इसलिए नहीं है क्योंकि भले जय शाह आगामी १ दिसंबर २०२४ से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) के अध्यक्ष बनने जा रहे हों, लेकिन ३० नवंबर २०२४ तक तो आईसीसी के अध्यक्ष न्यूजीलैंड के ग्रेग बार्कले ही हैं। ये वही बार्कले हैं जो न्यूजीलैंड क्रिकेट के चेयरमैन भी रह चुके हैं। दुनिया को भड़काने वाला कदम उठाने के साथ ही हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आईसीसी का मुख्यालय दुबई, संयुक्त अरब अमीरात में है।
और इसके १०८ सदस्य देशों में से जो १२ पूर्ण सदस्य हैं यानी जो टेस्ट मैच खेलते हैं, उनमें से अक्सर हमारा पूर्ण साथ देने वाले अभी तक श्रीलंका, बांग्लादेश और कई बार पाकिस्तान ही रहे हैं। साथ ही आईसीसी के जो ९६ सहयोगी सदस्य हैं, उनकी वह पावर नहीं है कि हम उनके बहुमत से आईसीसी में सिरमौर बन सकें। ऐसे में हमें जिद का रायता पैâलाने के पहले सोचना चाहिए क्या हमारी जिद हमारे खेलों के भविष्य में महाशक्ति बनने की दूरगामी अभिलाषा के अनुकूल है? वह भी तब जब पाकिस्तान हमारी सुरक्षा, सम्मान और सत्कार की गारंटी लिए हमारे आगे-पीछे घूम रहा हो। मुझे लगता है ऐसे में हमारी जिद क्रिकेट के वैश्विक भविष्य के लिए और भारत की विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की छवि के लिए भी अच्छी नहीं है। चूंकि हम क्रिकेट की इकोनॉमी के मामले में दुनिया में सबसे धनी हैं और पाकिस्तान की कोई हैसियत नहीं है, ऐसे में लोग हम पर इस बात को लेकर भी उंगलियां उठाने और आरोप लगाने से बाज नहीं आएंगे कि हम अपनी आर्थिक ताकत की धौंसपट्टी जमा रहे हैं।
भारत को अगर वर्तमान या भविष्य में क्रिकेट जैसे खेल का नेतृत्व करना है तो हमें हर परिस्थिति में खेल भावना का सम्मान करना होगा। अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में हिस्सा न लेना खिलाड़ियों और क्रिकेट प्रशंसकों के लिए हानिकारक हो सकता है। यह कदम हमारे युवा खिलाड़ियों के विकास पर भी प्रभाव डाल सकता है, क्योंकि ऐसे टूर्नामेंट खिलाड़ियों को बड़े मंच पर प्रदर्शन का मौका देते हैं। अगर हम जैसे बड़े देश राजनीतिक कारणों से टूर्नामेंट में भाग नहीं लेते तो इससे अन्य छोटे क्रिकेट खेलने वाले देशों के लिए एक गलत उदाहरण स्थापित होगा। यह संभव है कि इससे क्रिकेट के वैश्विक विस्तार में बाधा आए। इस सबके साथ हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लोकतंत्र में संवाद और सहयोग की भावना मुख्य होती है। खेल और राजनीति को मिलाना न केवल लोकतांत्रिक आदर्शों के विपरीत है, बल्कि यह दिखाता है कि हम एक स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्णय नहीं ले पा रहे। यह छवि भारत के लिए अनुकूल नहीं होगी।
खेल को हमेशा राजनीति और कूटनीति से अलग रखना चाहिए। अगर भारत पाकिस्तान में खेलने से इनकार करता है, तो यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल भावना का अपमान माना जा सकता है। हालांकि, यह भी समझना जरूरी है कि दोनों देशों के बीच कूटनीतिक और सुरक्षा चिंताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन इसके लिए आज हम इस पोजीशन में हैं कि पाकिस्तान से जैसी चाहे बारगेनिंग कर सकते हैं, यहां तक कि हम उसके साथ मिलकर टूर्नामेंट में सुरक्षा का जिम्मा भी अपने हाथ में ले सकते हैं या इसके साझेदार बन सकते हैं। चैंपियंस ट्रॉफी के लाइट मार्च का रूट हमने अपनी ताकत की बदौलत बदलवा दिया है। इस समय पाकिस्तान में खेलकर हम पाकिस्तान की अवाम को मित्र से ज्यादा अपने होने का संदेश दे सकते हैं। यह स्थिति हमारे कूटनीतिक चैनल २ के लिए भी बहुत काम आएगी, क्योंकि इससे हमारी पाकिस्तानी अवाम के बीच बहुत अच्छी छवि बनेगी जो सरकार के स्तर पर पाकिस्तान में भारत के विरोध को शिथिल करेगी।
सबसे बड़ी और अंतिम बात जो हमारे फेवर में जाती है वह यह है कि पाकिस्तान वर्तमान में चैंपियंस ट्रॉफी का विजेता है, उसने यह ट्रॉफी हमें हराकर ही जीती थी, ऐसे हम अगर पाकिस्तान से चैंपियंस ट्रॉफी जीतकर लौटते हैं तो यह हमारी खेल भावनाओं का ही नहीं, बल्कि लोकतंत्र की भी छाती चौड़ी करेगा। इसलिए हमें चैंपियंस ट्रॉफी का बायकाट नहीं करना चाहिए। पाकिस्तान को सबक सिखाने के बहुत से दूसरे तरीके हैं। अत: हमें अपने इस निर्णय में संतुलन बनाना होगा और खेल तथा राजनीति को जितना संभव हो, अलग रखना ही सही खेल भावना और लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखना होगा।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं।)