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कॉलम ३ : मायावती का गुस्सा मुस्लिमों पर…

नौशाबा परवीन

अयोध्या से लगभग २०० किमी के फासले पर सीतापुर है, जिसका संबंध सीता से है और वह उत्तर प्रदेश का दिल व बीजेपी का गढ़ समझा जाता है। आज सीतापुर उत्तर प्रदेश में बीजेपी की हार और बसपा के पतन को परिभाषित कर रहा है। इस लेख में हम केवल बसपा पर फोकस करेंगे। विशेषकर इसलिए कि इस पार्टी के २०१९ के चुनाव में १० सांसद थे, इस बार वह अपना खाता भी नहीं खोल सकी और चंद्रशेखर आजाद की भीम आर्मी के रूप में राज्य में दलितों की एक नई पार्टी तेजी से उभर रही है, जो निकट भविष्य में बसपा द्वारा छोड़ी हुई जगह को भी भर सकती है। आजाद ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में नगीना की आरक्षित सीट से शानदार जीत दर्ज की है। उनकी इस विजय में मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका विशेष रही, जिनकी नगीना में संख्या ४० प्रतिशत से अधिक है। इस लिहाज से देखा जाए तो आजाद को दलितों का नेता बनाने में मुस्लिमों की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, जबकि बहनजी मायावती बसपा के पतन के लिए मुस्लिमों को जिम्मेदार ठहरा रही हैं। १८वीं लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के प्रदर्शन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए मायावती ने कहा, ‘लोकसभा चुनाव में उचित प्रतिनिधित्व देने के बावजूद मुस्लिम समाज ने हमारा साथ नहीं दिया, ऐसे में आगे से उन्हें काफी सोच-समझकर टिकट दिया जाएगा।’ मालूम हो कि बसपा ने ३५ मुस्लिमों को अपना प्रत्याशी बनाया था, जिनमें से २० उत्तर प्रदेश में से थे।
दरअसल, बसपा के पतन का कारण मुस्लिम मतदाताओं से अपेक्षित सहयोग न मिलना नहीं है बल्कि वह जमीनी हकीकत है, जिसे मायावती समझ नहीं पाईं और इसी संदर्भ में हमने इस लेख की शुरुआत सीतापुर के जिक्र से की थी। सीतापुर बीजेपी का गढ़ माना जाता है। इस साल जनवरी में अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद यह धारणा बन गई थी कि सीतापुर में बीजेपी को हराना असंभव होगा, विशेषकर इस वजह से भी कि मंझे हुए सियासतदां राजेश वर्मा मैदान में थे, जो इस सीट को पहले बसपा के लिए और फिर बीजेपी के लिए जीतते आ रहे थे इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ से कोई भी प्रत्याशी बनने के लिए तैयार नहीं था। पहले यह सीट सपा के हिस्से में डाली गई थी और अखिलेश यादव चाहते थे कि छह बार के पूर्व विधायक नरेंद्र वर्मा उनके प्रत्याशी बनें, लेकिन अखिलेश के अनेक प्रयासों के बावजूद नरेंद्र वर्मा को हार का डर इतना अधिक था कि उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का बहाना बनाकर चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया।
जब सपा को कोई प्रत्याशी नहीं मिला तो उसने यह सीट कांग्रेस की तरफ सरका दी। कांग्रेस ने तुरंत बसपा के पूर्व मंत्री नकुल दुबे को अपना टिकट दे दिया, लेकिन चार दिन के भीतर दुबे ने भी हार के डर से टिकट वापस कर दिया और कांग्रेस के पास सीट होने के बावजूद प्रत्याशी न था। कोई विकल्प न होने की वजह से कांग्रेस ने राजेश राठौर से संपर्क किया, जिन्हें स्थानीय लोग भी नहीं जानते थे। उन्हें चुनाव लड़ने का कोई अनुभव भी न था और सीतापुर में उनकी तेली जाति के सदस्य भी न के बराबर हैं। राठौर के नामांकन भरते ही ओबीसी व दलित उनके समर्थन में एकजुट होने लगे। अखिलेश यादव के पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूला ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया और वर्मा व दुबे को चुनाव न लड़ने का अफसोस होने लगा। नरेंद्र वर्मा ने तो अपने दोस्तों से यहां तक कहा कि अखिलेश का ऑफर ठुकराकर उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल की है, क्योंकि इस चुनाव में अंतत: राठौर ने राजेश वर्मा को ८९,६४१ मतों से हराया।
सीतापुर के चुनाव ने बता दिया कि ‘आंबेडकर के संविधान को बचाने’ के लिए दलित, ‘मंडल आरक्षण को सुरक्षित रखने’ के लिए ओबीसी और ‘घृणा व नफरत की राजनीति से छुटकारा पाने’ के लिए मुस्लिम, ‘इंडिया’ गठबंधन पर अधिक विश्वास कर रहे थे। अखिलेश का पीडीए फॉर्मूला इतना कारगर था कि सपा के ३७ सांसदों में २० ओबीसी, ८ दलित व ४ मुस्लिम हैं यानी ८६ प्रतिशत पीडीए से हैं, शेष ब्राह्मण (सनातन पांडे), वैश्य (रूचि वीरा), भूमिहार (राजीव राय) व ठाकुर (आनंद भदौरिया व बिरेंद्र सिंह) हैं। सपा ने तो मेरठ व पैâजाबाद जैसी सामान्य सीटों से भी दलित प्रत्याशियों को मैदान में उतारा। मायावती यह समझ ही नहीं पाईं कि उनके कोर मतदाता यानी दलित भी ‘संविधान की सुरक्षा’ के लिए उनकी बजाय इंडिया गठबंधन पर भरोसा कर रहे थे।

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