मुख्यपृष्ठस्तंभकॉलम ३ : महिलाओं को क्यों रिझा रही हैं पार्टियां?

कॉलम ३ : महिलाओं को क्यों रिझा रही हैं पार्टियां?

शाहिद ए चौधरी

पिछले छह दशकों से अधिक की अवधि में भारतीय चुनावों में जो सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है, वह यह है कि महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी निरंतर बढ़ती जा रही है और अब वह पितृसत्तात्मक आदेशों के अनुसार मतदान नहीं करती हैं। अब ये अपने स्वतंत्र विवेक का प्रयोग करती हैं और इस कारण उनका अपना महत्व है। अत: यह आश्चर्य नहीं है कि हर राजनीतिक पार्टी महिला मतदाताओं को अपने पक्ष में रिझाने, पटाने का प्रयास कर रही हैं। वैसे तो ऐसा पूरे देश में ही हो रहा है, लेकिन पश्चिम बंगाल में इस ट्रेंड को विशेष रूप से देखा जा सकता है, जिसके कुछ खास कारण भी हैं। हालांकि, पश्चिम बंगाल में पुरुषों (३.९ करोड़) की तुलना में महिला (३.७ करोड़) मतदाताओं की संख्या कम है, लेकिन २०१९ के आम चुनाव में इस राज्य की ४२ लोकसभा सीटों में से १८ पर महिलाओं ने अधिक मतदान किया था। २०२४ के पहले तीन चरणों में भी महिलाओं ने ज्यादा वोट डाले हैं।
पश्चिम बंगाल की मतदाता सूची में प्रति १००० पुरुष मतदाताओं में ९६८ महिला मतदाता हैं। चूंकि महिलाओं का मतदान प्रतिशत निरंतर बढ़ता जा रहा है इसलिए लगभग सभी राजनीतिक दल उन्हें मुफ्त की रेवड़ियों, गारंटियों और काउंटर-गारंटी से आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं। मसलन, २०२१ के विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने ‘लक्ष्मी भंडार योजना’ लागू की थी, जिसकी सफलता का मूल्यांकन २०२४ के लोकसभा चुनाव में हो जाएगा। इस योजना के तहत सामान्य श्रेणी की महिलाओं को प्रतिमाह १,००० रुपए, जबकि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को १,२०० रुपए मिलते हैं। इसे देखते हुए गृहमंत्री अमित शाह को कहना पड़ा कि बीजेपी इस योजना को बंद नहीं करेगी, बल्कि इसमें १०० रुपए की वृद्धि करेगी। दूसरी ओर कांग्रेस व वामपंथ के गठजोड़ ने महिलाओं के लिए ‘महालक्ष्मी योजना’ का वायदा किया है, जिसके तहत महिलाओं को प्रति वर्ष एक लाख रुपए दिए जाएंगे यानी लगभग ८,३०० रुपए प्रति माह।
दरअसल, महिला वोटर्स को रिझाने का यह प्रयास अकारण नहीं है। २०१९ के आम चुनावों में जब १८ लोकसभा सीटों पर महिलाओं ने पुरुषों से अधिक मतदान किया, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, तो सियासी पार्टियों की नींद खुल गई। मसलन, कूच बिहार में जहां ८२.४ प्रतिशत पुरुष मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया वहीं महिला मतदाताओं का यह प्रतिशत ८५.३ रहा। उसी चुनाव में बंगाल की छह लोकसभा सीटों- मालदा उत्तर, मालदा दक्षिण, जांगीपुर, बेहरामपुर, मुर्शिदाबाद व घाटल पर सकल मत प्रयोग में महिलाओं ने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया। मसलन, मालदा उत्तर में ६.६ लाख पुरुषों ने और ६.९ लाख महिलाओं ने मतदान किया था। २०२४ के लोकसभा चुनाव में भी यह ट्रेंड बदला नहीं है, कम से कम मतदान के पहले तीन चरणों में तो यही देखने को मिला। पश्चिम बंगाल में सभी सातों चरणों में मतदान होगा। मसलन, बलूरघाट लोकसभा क्षेत्र के रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा पत्रकारों को उपलब्ध कराए गए डाटा के अनुसार, पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने अधिक मतदान किया। चुनाव आयोग ने लिंग आधारित मतों का वास्तविक ब्रेकअप डाटा अभी तक जारी नहीं किया है।
ममता बनर्जी की लक्ष्मी भंडार योजना को समझने के लिए चुनाव आयोग का डाटा महत्वपूर्ण है। यह योजना समाज के कमजोर वर्गों के लिए २०२१ में लागू की गई थी। इस योजना से बंगाल की २ करोड़ महिलाएं लाभान्वित हो रही हैं, जबकि राज्य में कुल महिला मतदाता ३.७३ करोड़ हैं। लोकसभा चुनावों की घोषणा से पहले ममता ने इस योजना की सहयोग राशि में वृद्धि कर दी थी। यह तो खैर ४ जून को ही मालूम हो सकेगा कि जब महिला मतदाताओं को प्रभावित करने की बात आती है तो सीधा वैâश सहयोग अन्य मुद्दों पर हावी होगा या नहीं। गौरतलब है कि हाल ही में हुए मध्य प्रदेश व कर्नाटक विधानसभा चुनावों में महिलाओं के लिए घोषित योजनाओं से पार्टियों को चुनावी लाभ हुआ था। बीजेपी ने मध्य प्रदेश में लाडली बहना योजना की घोषणा की, उसे फायदा हुआ। कांग्रेस ने कर्नाटक में पांच गारंटियां दीं, जिनमें महिलाओं के लिए मुफ्त बस सफर (शक्ति योजना) और घर की प्रत्येक महिला प्रमुख को २,००० रुपए प्रति माह (गृहलक्ष्मी योजना) भी शामिल थीं, वह राज्य में सत्ता में आ गई।
हालांकि, वैभव की दृष्टि से विधानसभा व लोकसभा चुनावों में कोई मुकाबला है ही नहीं, लेकिन किसी पार्टी में इतना दम नहीं है कि महिलाओं को दी जा रहीं मुफ्त की रेवड़ियों को अनदेखा कर दे। तृणमूल के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी ने बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र की एक रैली में एलान किया कि जब तक तृणमूल सत्ता में है, तब तक लक्ष्मी भंडार योजना पर कोई विराम नहीं लगा सकता। मजबूरन इसकी प्रतिक्रिया में भाजपा को सफाई देनी पड़ी, जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। महिलाओं का इस चुनाव में यही महत्व है। बहरहाल, सवाल यह है कि क्या भाजपा को लगता है कि मामूली पैसे का लालच देकर महिलाओं को अपने पक्ष में किया जा सकता है? जो लोग आशिकी के सफर से गुजरे हैं, वो जानते हैं कि महिलाओं का दिल जीतना आसान नहीं होता है। अगर जिगर मुरादाबादी के शब्दों में कहा जाए तो- ‘ये इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे/इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।’
चुनाव आयोग के २०१९ लोकसभा डाटा से महिला आधारित योजनाओं व चुनावी नतीजों के बीच उन १८ क्षेत्रों में भी सीधा संबंध स्थापित नहीं होता है, जिनमें महिलाओं ने पुरुषों से अधिक मतदान किया था। मसलन, लक्ष्मी भंडार योजना से पहले ममता ने २०१३ में कन्याश्री (छात्राओं के लिए सहयोग) और २०१६ में स्वास्थ्य साथी (परिवार की महिलाओं के लिए हेल्थ कार्ड) योजनाओं की घोषणाएं की थीं, लेकिन संबंधित १८ सीटों में से तृणमूल को सिर्फ ९ पर जीत मिली, जबकि ७ पर बीजेपी व २ पर कांग्रेस विजयी रही। राजनीतिक पार्टियों की महिला मतदाताओं को प्रभावित करने की प्रतिस्पर्धा अक्सर पटरी से उतर जाती है जैसा कि संदेशखाली गांव की तथाकथित घटना से जाहिर है। कुछ महिलाओं ने भूमि पर कब्जे व यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज की थी।
बीजेपी ने इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाया। कलकत्ता हाईकोर्ट ने इसका स्वत: ही संज्ञान लिया। बाद में एक वायरल वीडियो में दावा किया गया कि यौन उत्पीड़न की शिकायतें फर्जी थीं और अनेक बीजेपी कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए। यह आरोप-प्रत्यारोप का निंदनीय खेल केवल महिला मतदाताओं को रिझाने के लिए खेला गया। जाहिर है महिलाएं ऐसे खेलों से प्रभावित नहीं होती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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