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सम-सामयिक : फिर एक बलात्कारी का एनकाउंटर, वही सवाल, वही साजिश की बू…!!

वीना गौतम

इंसाफ के लिए जिन्हें देना जवाब था
वही खड़े हैं कटघरे में बेजुबान से
पिछले महीने १२-१३ अगस्त २०२४ को, मुंबई के पास स्थित बदलापुर से आई एक खबर ने पूरे देश को हिला दिया था। यहां स्थित आदर्श स्कूल के २३ वर्षीय स्वीपर अक्षय शिंदे पर स्कूल की ३ और ४ साल की दो बच्चियों के साथ यौन शोषण का मामला सामने आया था। इस घटना के कुछ दिनों बाद लाखों उत्तेजित लोग बदलापुर रेलवे स्टेशन पर एकत्र हो गए और किसी भी सूरत में अपराधी को उन्हें सौंपे जाने की मांग करने लगे। उनका कहना था कि वे अपने हाथों सार्वजनिक रूप से इस दरिंदे को फांसी के फंदे पर लटकाना चाहते हैं। खैर! किसी तरह से उत्तेजित भीड़ को शांत किया गया, लेकिन इस मामले ने जिस तरह से तूल पकड़ा उससे न केवल महाराष्ट्र पुलिस, बल्कि प्रदेश सरकार भी बैकफुट पर आ गई। पुलिस और सरकार दोनों पर ही इस मामले में जल्द से जल्द इंसाफ दिलाने का दबाव बन गया था।
लेकिन जैसे कि पहले भी ऐसे मौकों पर इस तरह के कई मामलों में एनकाउंटर हो चुके हैं, बदलापुर बलात्कारी के मामले में भी यही चिर परिचित कहानी दोहराई गई। २३ सितंबर २०२४ की शाम जब मुंबई पुलिस आरोपी अक्षय शिंदे को एक अन्य मामले की जांच के लिए तलोजा जेल से ठाणे के एक पुलिस स्टेशन लेकर जा रही थी कि रास्ते में एनकाउंटर की कहानी हो गई। इस कहानी को हम कई बार सुन चुके हैं, फिर भी यह कहानी बार-बार अपने उसी रूप में हमारे सामने आती है। बदलापुर बलात्कारी अक्षय शिंदे के एनकाउंटर की पूरी कहानी पुलिस द्वारा इस तरह है। आरोपी एक पुलिस वाले से लोडेड रिवॉल्वर छीनता है, फिर पुलिस वालों पर गोली चलाता है, तब कहीं पुलिस द्वारा आत्मरक्षा में चलाई गई गोली से उसकी मौत हो जाती है। कहानी पूरी तरह से सही हो तो भी यह कितनी नकली लगती है कि तरस आता है।
अक्षय शिंदे के एनकाउंटर की कहानी ठीक वैसे ही है, जैसे दो साल पहले कानपुर शहर के निकट बिकरू गांव के विकास दुबे की कहानी थी। उसने भी पुलिसवालों से रिवॉल्वर छीनकर उन पर हमला करने की कोशिश की थी। ठीक इसी तरह से साल २०१९ में हैदराबाद में एक वेटनरी डॉक्टर से गैंगरेप करके उसकी हत्या कर देनेवाले चार बलात्कारियों के साथ भी दिसंबर २०१९ में हैदराबाद पुलिस ने यही किया था। इन सब मामलों का नतीजा एक ही निकला था, पलक झपतकते ही आरोपियों की मौत। अक्षय शिंदे के संबंध में पुलिस की कहानी कहती है कि बीते २३ सितंबर २०२४ को अक्षय की पूर्व पत्नी द्वारा उसके विरूद्ध की गई सेक्सुअल असाल्ट की एक शिकायत की तफ्तीश के लिए पुलिस उसे तलोजा जेल से संबंधित थाने लेकर जा रही थी। पुलिस के मुताबिक, जब उनकी जीप मुंब्रा बाईपास के पास पहुंची कि आरोपी अक्षय शिंदे ने यकायक एपीआई नीलेश मोरे की सर्विस रिवॉल्वर छीन ली और इसके बाद उसने नीलेश मोरे पर ताबड़तोड़ तीन गोलियां चला दी।
लेकिन नीलेश मोरे बिल्कुल पास से मारी गई तीन गोलियों के बावजूद भी अभी तक सुरक्षित हैं, क्योंकि पुलिस की थ्योरी के मुताबिक, अक्षय का निशाना इतना गड़बड़ था कि दो गोलियां तो हवा में चली गई और तीसरी गोली नीलेश के पैर को मामूली-सी छूती हुई निकल गई। इसी दौरान आगे ड्राइवर के साथ बैठे संजय शिंदे ने अपनी सर्विस रिवॉल्वर से अक्षय शिंदे पर गोली चलाई और अक्षय शिंदे की मौके पर ही मौत हो गई। सवाल है बलात्कारियों के मामले में पुलिस की मुठभेड़ आखिर एक ही किस्म की कहानियां क्यों रचती है? अक्षय शिंदे को शायद ही किसी ने कभी कहा हो कि उसे सजा नहीं होनी चाहिए। मासूम बच्चियों के साथ उसके बलात्कार संबंधी आरोप के सार्वजनिक होते ही, दो दिनों के भीतर जिस तरह से लाखों लोग बिना किसी आह्वान, बिना किसी आंदोलन के अगर बलात्कारी को फांसी देने की मंशा से एक रेलवे स्टेशन पर एकत्र हो जाते हैं और दसियों घंटे तक पूरी यातायात व्यवस्था को तहस-नहस कर देते हैं तो इससे समझा जा सकता है कि किस तरह से आम लोग अक्षय शिंदे से नाराज थे और कोई नहीं चाहता था कि वह जिंदा रहे, हर कोई चाह रहा था कि उसे कड़ी से कड़ी यानी मौत की सजा मिले।
लेकिन पुलिस की इस एनकाउंटर थ्योरी को सुनने के बाद वे लोग जो चाहते थे कि अक्षय को खुलेआम सबके सामने फांसी पर लटकाया जाए, वे लोग भी इसे एक फर्जी एनकाउंटर मानते हैं और वे इससे बेहद नाराज हैं कि पुलिस इस मामले को ऐसे वैâसे टैकल कर सकती है? हालांकि, मुख्यमंत्री शिंदे और उपमुख्यमंत्री फडणवीस भी पुलिस की कहानी दोहरा रहे हैं और लोगों को जांच का भी आश्वसन दे रहे हैं, लेकिन जहां एक महीने पहले लाखों लोग हर हाल में बलात्कारी को फांसी देने के लिए उत्तेजित थे, वहीं इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक कई विपक्षी नेताओं के साथ आम जनता भी बेहद रोष में है, वह नहीं चाहती कि पुलिस जो कि लोगों को बार-बार चेतावनी देती है कि वे कानून और व्यवस्था को हाथ में न लें, वैसे ही वह भी कानून को अपने हाथ में लेकर अलोकप्रिय घिनौना न्याय करने की कोशिश करे।

मुंबई पुलिस की एनकाउंटर थ्योरी वैसे ही हास्यास्पद लगती है, जैसे कि हाल में ऐसे कई एनकाउंटर करनेवाली पुलिस ने कहानियां गढ़ी और आम जनता ने उसे पूरी तरह से रिजेक्ट कर दिया। महाराष्ट्र में विपक्ष भी इस घटना के बाद आग बबूला हो चुका है और सिविल सोसायटी के लोग भी बेहद उत्तेजित हैं। इन लोगों द्वारा बहुत वाजिब सवाल पूछे जा रहे हैं कि जब एक आरोपी पुलिसवालों से घिरा बैठा है तो फिर वह उन्हीं की रिवॉल्वर छीनकर उनकी हत्या का प्रयास वैâसे कर सकता है? हां, पैदल चल रहे हों, जंगल हो या कोई और ऐसी परिस्थितियां हों, जहां लगे कि पुलिस रिवॉल्वर छीनी जा सकती है तो वहां कोई बात नहीं, लेकिन जहां पर इस तरह की संदिग्ध स्थितियां हों कि आरोपी के हाथों में हथकड़ी पड़ी हों और पुलिस गाइडलाइन के मुताबिक, पुलिसवालों के संवेदनशील हथियार एक खास कोड के चलते लॉक रहते हैं तो फिर आखिर अक्षय शिंदे नामक यह आरोपी कितना स्मार्ट और कितना चपल है कि हथकड़ियां पहने होने के बावजूद और अनुमानित पुलिस के रिवॉल्वर पर सिक्योरिटी फीचर होने के बावजूद आखिर इतने साहस के साथ वैâसे रिवॉल्वर छीन लिया और जब वह इतना स्मार्ट था तो फिर उसका हमला इस कदर चूका वैâसे कि मारी गई तीन गोलियों में दो गोलियां हवा में चली गई और तीसरी गोली ने भी पैर की तरफ रूख किया हो माना पैर छू रही हो।
लब्बोलुआब पुलिस कितना भी गंभीर बनने और दिखने की कोशिश करे, लेकिन जिस तरह से पुलिसवालों ने उसका एनकाउंटर किया है, यह सब एक रची गई क्रूर कथा लगती है। इंसाफ का तकाजा यही होगा कि कोर्ट इस मामले में स्वत: संज्ञान ले और एक न्यायाधीश की देखरेख में अविलंब जांच कराई जाए कि आखिर इसके पीछे की सच्ची कहानी क्या है? अगर हमेशा की तरह इस बार भी इस मामले में लीपापोती होती है तो बलात्कारी को फांसी दिलवाने के लिए राजी लोग भी मानेंगे कि पुलिस ने जिस तरह यह मुठभेड़ की कहानी गढ़ी है, वह न सिर्फ हास्यास्पद है, बल्कि भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के माथे पर कलंक है। जितना जल्दी हो सके, इस कलंक कथा का पर्दाफाश किया जाना चाहिए वर्ना मारना तो एक मामूली-सी बात है, हकीकत यह है कि सरकार के हर तरह के कदम से आम लोगों का विश्वास उठ जाएगा।
(लेखिका विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में कार्यकारी संपादक हैं)

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