विजय कपूर
मेरठ लोकसभा सीट, जहां दूसरे चरण में मतदान हुआ था, में ग्राउंड रिपोर्टिंग करते हुए मेरी मुलाकात बीजेपी के एक पुराने कर्मठ कार्यकर्ता से हो गई, जिनसे मैंने यह जानने का प्रयास किया कि ‘रामायण’ धारावाहिक में राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल को प्रत्याशी बनाने के बावजूद इस बार पिछले चुनावों जैसा उत्साह दिखायी क्यों नहीं दे रहा है? उन्होंने पहले तो थोड़ा संकोच किया लेकिन फिर आखिरकार उनके दिल का गुबार फूट ही पड़ा, ‘तन, मन व धन से पार्टी की सेवा करते हुए तीन दशक से अधिक हो गये हैं, लेकिन फिर भी ऊपर से ऐसा प्रत्याशी थोप देते हैं, जिसकी पार्टी संगठन में कभी कोई भूमिका नहीं रही। हम क्या केवल दरी, कुर्सी उठाने और नारे लगाने के लिए हैं?’ पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं की इस उदासीनता को अरुण गोविल ने भी महसूस किया था, इसलिए मतदान की अगली सुबह यानी २७ अप्रैल २०२४ को वह मेरठ से मुंबई के लिए रवाना हो गये, जहां उन्होंने अपने ट्वीट में लगभग ‘भितरघात’ का आरोप लगाया। हालांकि कुछ घंटों बाद उन्होंने अपना यह ट्वीट हटा दिया और नये ट्वीट में स्थानीय कार्यकर्ताओं का ‘धन्यवाद’ व्यक्त किया, लेकिन तब तक यह जगजाहिर हो गया था कि ऊपर से थोपे जाने वाले प्रत्याशियों को लेकर बीजेपी के समर्पित कार्यकर्ताओं में रोष है, भले ही पार्टी अनुशासन से बंधे होने के कारण उनमें से अधिकतर खामोश रहने को प्राथमिकता देते हों।
कोई भी व्यक्ति जब किसी पार्टी का फुल-टाइम कार्यकर्ता बनता है, तो उसके दिल में यह सपना अवश्य होता है कि एक दिन उसे भी जनप्रतिनिधि बनने का अवसर मिलेगा। लेकिन जब उसकी पार्टी ऊपर से किसी फिल्मी सितारे, किसी नामचीन क्रिकेटर या दल बदल कर दूसरी पार्टी से आये नेता को ऊपर से प्रत्याशी के रूप में थोप देती है, तो वह ठगा सा महसूस करता है। उसे लगता है कि उसके अवसर को जबरन छीन लिया गया है। यह एहसास तब भी होता है, जब दलगत समझौते के तहत उसके चुनाव क्षेत्र को अन्य पार्टी के खाते में डाल दिया जाता है। यह समस्या लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में है, लेकिन इस समय बीजेपी में सबसे अधिक है। वर्तमान चुनाव में बीजेपी ने जो कुल ४३५ उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं, उनमें से १०६ या लगभग एक चौथाई यानी २४ प्रतिशत ऐसे हैं, जो दूसरी पार्टियों से ‘आयातित’ हैं। यह १०६ प्रत्याशी २०१४ के बाद बीजेपी में शामिल हुए हैं और इनमें से ९० तो पिछले पांच वर्षों के दौरान उसके सदस्य बने हैं। आंध्रप्रदेश में बीजेपी ६ सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिनमें से ५ आयातित प्रत्याशी हैं। इसी तरह तेलंगाना में उसके १७ में से ११ उम्मीदवार आयातित हैं यानी पार्टी के मूल सदस्य नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में ७४ में से २३ प्रत्याशी आयातित हैं और इन २३ में अरुण गोविल को आयातित के तौरपर शामिल नहीं किया गया है क्योंकि वह किसी अन्य पार्टी से बीजेपी में शामिल नहीं हुए हैं।
पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी के ४२ में से १० प्रत्याशी आयातित हैं। अगर अन्य राज्यों की बात करें तो हरियाणा में १० में से ६, पंजाब में १३ में से ७, झारखंड में १३ में से ७, ओडिशा में २१ में से ६, तमिलनाडु में १९ में से ५, महाराष्ट्र में २८ में से ७, बिहार में १७ में से ३, कर्नाटक में २५ में से ४, केरल में १६ में से २, राजस्थान में २५ में से २, गुजरात में २६ में से २ और मध्य प्रदेश में २९ में से २ प्रत्याशी आयातित हैं। इनके अतिरिक्त बीजेपी ने ५४ अन्य सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं, जिनमें से ४ आयातित हैं। गौरतलब है कि १०६ आयातित प्रत्याशियों में बीजेपी के वह सहयोगी शामिल नहीं हैं, जो उसके चुनाव निशान पर लड़ रहे हैं। इनमें ‘घरवापसी’ वाले प्रत्याशी भी शामिल नहीं हैं, जो बीजेपी छोड़कर गये थे और फिर वापस बीजेपी में आ गये हैं, जैसे जगदीश शेट्टर (कर्नाटक), उदयनराजे भोंसले (महाराष्ट्र), साक्षी महाराज (उत्तर प्रदेश) आदि।
दल बदलुओं का अपनी नई पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ना भारत की राजनीति में कोई नई बात नहीं है, लेकिन वर्तमान लोकसभा चुनाव में जिस बड़े पैमाने पर बीजेपी यह कर रही है, वह अप्रत्याशित है। बीजेपी ने प्रत्याशी केवल अपने प्रतिद्वंदी दलों जैसे कांग्रेस, तृणमूल, झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि से ही आयात नहीं किये हैं बल्कि अपने सहयोगी दलों जैसे टीडीपी से भी आयात किये हैं। इनमें से कुछ तो चुनाव की घोषणा होने के बाद या अपनी मूल पार्टी से टिकट न मिलने पर बीजेपी में शामिल हुए थे, मसलन तेलंगाना में जो बीजेपी के ११ आयातित प्रत्याशी हैं, उनमें से ६ ऐसे ही हैं। यह सही है कि आंध्रप्रदेश, तेलंगाना व दक्षिण के अन्य राज्यों (कर्नाटक को छोड़कर) में बीजेपी की अतीत में उपस्थिति सीमित ही रही है, जिस कारण आयात करना ‘मजबूरी’ भी हो सकती है, लेकिन यह बात समझ से परे है कि हरियाणा, जहां पिछले एक दशक से उसकी राज्य सरकार है, में भी उसने १० में से ६ यानी ६० प्रतिशत आयातित उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। इनमें से दो- नवीन जिंदल व अशोक तंवर ने इन चुनावों की गहमा-गहमी के दौरान ही बीजेपी का पटका अपने गले में डाला है।
हरियाणा के पड़ोसी राज्य पंजाब में भी बीजेपी के आधे से अधिक (१३ में से ७) प्रत्याशी आयातित हैं। इसकी एक मुख्य वजह यह है कि इनमें से अधिकतर लोग अमरिंदर सिंह के साथ कांग्रेस से निकले थे और फिर अमरिंदर सिंह ने अपनी नवगठित पार्टी का विलय बीजेपी में कर लिया था। अब पंजाब में कांग्रेस को कमजोर करने के लिए अमरिंदर सिंह बीजेपी से पूरी कीमत तो वसूल करते, भले ही इसके लिए बीजेपी को किरण खेर, सन्नी देओल आदि की कुर्बानी देनी पड़ी। इस संदर्भ में झारखंड का डाटा भी पंजाब जैसा ही है कि बीजेपी के १३ में से ७ प्रत्याशी आयातित हैं। झारखंड में बीजेपी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस व पूर्व झारखंड विकास मोर्चा से आयात किया है, सीता सोरेन इनमें सबसे हाई-प्रोफाइल आयात हैं, वह पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी हैं।
बहरहाल, इस सिलसिले में सबसे अधिक चौंकाने वाला राज्य उत्तर प्रदेश है, विशेषकर इसलिए कि पिछले एक दशक के दौरान इस राज्य में लोकसभा व विधानसभा के सभी चुनावों में बीजेपी का जबरदस्त दबदबा रहा है कि अन्य पार्टियां उसके आसपास भी न आ सकी थीं। बीजेपी की ऐसी क्या मजबूरी रही कि उसने अपने ७४ प्रत्याशियों (इसमें उसके सहयोगी दल का वह उम्मीदवार शामिल नही है, जो उसके चुनाव निशान पर लड़ रहा है) में से २३ (३१ प्रतिशत) को आयात करके मैदान में उतारा? क्या दल-बदल इसी शर्त पर कराया गया था कि उन्हें प्रत्याशी बनाया जायेगा? आयातित प्रत्याशियों का प्रतिशत ओडिशा (२९ प्रतिशत) या तमिलनाडु (२६ प्रतिशत) जैसे राज्यों में समझ में आता है क्योंकि ये बीजेपी के परम्परागत गढ़ नहीं हैं; महाराष्ट्र में भी २५ प्रतिशत आयातित प्रत्याशियों की बात समझ में आती है कि इस राज्य की राजनीति में पिछले पांच वर्षों में ज़बरदस्त उठापटक हुई है, लेकिन उत्तर प्रदेश का प्रतिशत आश्चर्य में डालता है।
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)