मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : अलविदा कॉमरेड सीताराम येचुरी...!!

सम-सामयिक : अलविदा कॉमरेड सीताराम येचुरी…!!

विजय कपूर

एक आइकोनिक तस्वीर है १९७७ की, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जेएनयू (दिल्ली) के आंदोलनकारी छात्रों के साथ खड़ा हुआ देखा जा सकता है, जबकि प्रदर्शन उन्हीं के विरोध में हो रहा था। तस्वीर में जेएनयू छात्र संघ के तीन बार अध्यक्ष चुने गए सीताराम येचुरी को भी देखा जा सकता है, जो हाथ में कागज लिए हुए छात्रों की मांगें पढ़कर सुना रहे हैं, जिनमें प्रमुख यह थी इंदिरा गांधी जेएनयू के चांसलर पद से इस्तीफा दे दें। यह तस्वीर अनेक प्रमुख कारणों से आइकोनिक है। एक, इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए भी प्रदर्शनकारी छात्रों के बीच स्वयं जाकर उनकी मांगों को सुनने का साहस दिखाया, जबकि आज के नेता तो ‘एक फोन कॉल की दूरी’ पर होने की बातें करते हैं। दूसरा यह कि छात्रों की मांग को स्वीकार करते हुए इंदिरा गांधी ने चांसलर पद से इस्तीफा दे दिया था और अंतिम यह कि भारतीय राजनीति के क्षितिज पर सीताराम येचुरी के रूप में एक ऐसे नेता का उदय हुआ, जिसने इंदिरा गांधी को भी त्यागपत्र देने के लिए मजबूर कर दिया था।
कॉमरेड येचुरी की सौम्य, मुखर व व्यावहारिक राजनीति ने अगले कई दशकों तक देश की सियासत को प्रभावित किया। अब ऐसे सुलझे हुए राजनीतिज्ञ की हमेशा कमी महसूस की जाती रहेगी; क्योंकि १२ सितंबर २०२४ को सीताराम येचुरी का श्वास संबंधी बीमारी से निधन हो गया। वे ७२ वर्ष के थे। वे अपने पीछे अपनी पत्नी सीमा चिश्ती को छोड़ गए हैं, जबकि उनके एकमात्र पुत्र आशीष का २०२१ में कोविड के कारण निधन हो गया था, जिसके बाद वे पहले से हंसमुख कभी नहीं रहे। एक छात्र नेता के रूप में अपना राजनीतिक करियर आरंभ करने वाले येचुरी अपने निधन के समय माकपा के महासचिव थे। उनके परिवार ने उनके पार्थिव शरीर को एम्स, नई दिल्ली को मेडिकल रिसर्च व ट्रेनिंग के लिए दान कर दिया है। सीताराम येचुरी का जन्म मद्रास (अब चेन्नै) में १२ अगस्त १९५२ को एक तेलगु ब्राह्मण परिवार में हुआ था, लेकिन उन्होंने बचपन में ही यज्ञोपवीत पहनने व मंत्र जपने से इनकार कर दिया था और इसलिए वह कहते थे, ‘मैं अपने परिवार का पहला वामपंथी हूं।’
लेकिन वह प्राचीन धार्मिक ग्रंथों पर आधारित दार्शनिक वाद-विवाद से पीछे नहीं हटते थे। वे खुले विचारों के व्यक्ति थे और अन्य मार्क्सवादियों के विपरीत उनकी दिलचस्पी केवल वर्ग में ही नहीं थी, बल्कि सामाजिक गुटों व धर्म में भी थी। वे जानते थे कि भारतीय समाज को समझने के लिए इनकी भी जरूरत है। यही वजह थी कि वे दक्षिणपंथियों से बहस करने में सफल रहते थे, विशेषकर इसलिए भी कि लफ्फाजी करने की बजाय हास्य-व्यंग्य से भरा किंतु अर्थपूर्ण एक लाइन का वाक्य बोलना उनकी बातचीत करने की शैली का प्रमुख हिस्सा था। येचुरी की दसवीं कक्षा तक शिक्षा हैदराबाद में हुई, लेकिन १९६९ का तेलंगाना आंदोलन उन्हें दिल्ली ले आया, जहां उन्होंने १२वीं में ऑल इंडिया फर्स्ट रैंक हासिल की, सेंट स्टीफंस कॉलेज से अर्थशास्त्र में बीए (ऑनर्स) किया, इसी विषय में एमए जेएनयू से करने के बाद पीएचडी कर रहे थे कि आपातकाल में वामपंथी विचार रखने के लिए सलाखों के पीछे भेज दिए गए और शिक्षा का सिलसिला आगे न चल सका।
हालांकि, येचुरी की मातृभाषा तेलगु थी लेकिन पार्टी फोरम व बैठकों में वह अंग्रेजी में बोलने को प्राथमिकता देते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि राजनीतिक विचार उन्हें अंग्रेजी में अधिक आसानी से आते हैं। लेकिन जनसभाओं को वे हिंदी में संबोधित करते थे। वे पश्चिम बंगाल से दो बार राज्यसभा सदस्य रहे, जिस दौरान वे बंगाली पत्रकारों से बांग्ला भाषा में ही वार्ता करते थे, जिससे उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अंदाजा लगाया जा सकता है। हालांकि, १९७० के दशक में येचुरी लाल झंडा उठाने लगे थे, लेकिन उन्होंने मार्क्सवाद से ही जन्मे नक्सलवाद से खुद को दूर रखा; क्योंकि नक्सलवाद चीन के वामपंथियों के प्रति अपनी वफादारी घोषित कर रहा था। यह भी येचुरी की राजनीतिक व्यावहारिकता की एक अन्य मिसाल है। फिर जब २०१४ में पहली बार मोदी सरकार आई तो येचुरी ने कहा, ‘स्थितियां बदल गई हैं इसलिए हमारी समीक्षाएं व गठबंधन भी उसी के अनुरूप बदलेंगे।’
येचुरी की राजनीतिक व्यावहारिकता की तुलना अक्सर एक अन्य व्यावहारिक वामपंथी हरकिशन सिंह सुरजीत से की जाती है, जो कि सियासी गठबंधन बनाने में माहिर थे, लेकिन दोनों की सफलता दर में अंतर रहा। सुरजीत के दिनों में माकपा चुनावी दृष्टि से अधिक प्रभावी थी कि बंगाल, त्रिपुरा व केरल में वह मुख्य पार्टी थी। येचुरी के जमाने में माकपा केरल तक सिमटकर रह गई, फिर भी २००४-२००६ के दौरान यूपीए-१ के गठन में येचुरी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसके बाद भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर माकपा ने डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। यह माकपा की भूल साबित हुई। वामपंथियों सहित भारतीय राजनेताओं में यह दुर्लभ ही है कि वह सार्वजनिक तौरपर आत्ममंथन करें। लेकिन येचुरी अपवाद साबित हुए। जब यूपीए-२ फिर से सत्ता में आ गई तो येचुरी ने स्वीकार किया कि उनकी पार्टी परमाणु समझौता मतदाताओं को सही से समझा न सकी। यह स्वीकार करने वाले येचुरी एकमात्र पोलित ब्यूरो सदस्य थे।
बंगाल में तृणमूल की जीत के बाद माकपा व उसके नेता राजनीतिक हाशिये पर चले गए। येचुरी व अन्य वामपंथी नेता बमुश्किल ही राष्ट्रीय सुर्खियों का हिस्सा बन पाते, लेकिन अपने अंतर्राष्ट्रीय वामपंथी संपर्कों के कारण येचुरी फिर भी प्रासंगिक बने रहे। मनमोहन सिंह की सरकार ने २००९ में नेपाल के माओवादी नेता प्रचंड से संपर्क करने के लिए येचुरी की ही मदद ली थी। प्रचंड बाद में नेपाल के प्रधानमंत्री बने। इसमें शक नहीं है कि येचुरी समर्पित वामपंथी थे, लेकिन अगर मार्क्सवादी शब्दावली ‘पोलिटिकल प्रैक्सिस’ (राजनीतिक प्रथा) का प्रयोग किया जाए तो वे हठधर्मिता पर व्यावहारिकता को प्राथमिकता देते थे। वे शालीन, शिष्ट व सौम्य थे और वह हर किसी के साथ अपने इसी स्वभाव के साथ पेश आते थे, भले ही उनके सामने किसी भी विचार का व्यक्ति हो।
वे उन चंद माकपा नेताओं में से थे, जो कांग्रेस से तालमेल के संबंध में आवश्यकता से अधिक जोड़-घटाव नहीं करते हैं। लोकसभा २०२४ के चुनाव में येचुरी ने ही इस बात पर बल दिया था कि बीजेपी का मुकाबला अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग गठबंधन बनाकर किया जाना चाहिए और उनकी बात के नतीजे सबके सामने हैं। ध्यान रहे कि माकपा के वैचारिक शुद्धता वाले नेता अब भी यह नहीं स्वीकार करते हैं कि उनकी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन में है; यह अलग बात है कि माकपा इंडिया गठबंधन का हिस्सा है और हरियाणा व जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने उसके लिए एक-एक सीट छोड़ी है। एक व्यक्ति व नेता के रूप में येचुरी को कितना पसंद किया जाता था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनको श्रद्धांजलि देने वालों में नेता ही नहीं बल्कि अभिनेता व खिलाड़ी भी शामिल हैं। अलविदा कॉमरेड!
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)

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