नौशाबा परवीन
होली (१४ मार्च २०२५) पर दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के आधिकारिक निवास पर आग लग गई थी। इसके कुछ दिन बाद मीडिया में यह खबर आंधी की तरह पैâली कि उनके घर से भारी मात्रा में नकदी मिली है, जिसका १५ से १०० करोड़ रुपए का अंदाजा लगाया जाने लगा। सच किसी को नहीं मालूम था। फिर सफाई आई दमकल विभाग से कि उसके कर्मचारियों को कोई कैश नहीं मिला था। पुलिस को शक था कि कुछ बोरों में कैश भरा था। सुप्रीम कोर्ट बहुत तेज़ी से हरकत में आया, उसने न्यायाधीश वर्मा का इलाहाबाद हाई कोर्ट ट्रांसफर कर दिया, जहां से उन्हें पहले दिल्ली ट्रांसफर किया गया था। इलाहाबाद की बार एसोसिएशन ने इस ट्रांसफर का विरोध यह कहते हुए किया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ‘ट्रैश बिन’ (कूड़ेदान) नहीं है। बार एसोसिएशन का विरोध विशेषकर इसलिए भी था कि सिंभावली शुगर लिमिटेड के २०१८ के तथाकथित बैंक घोटाले में सीबीआई ने अपनी एफआईआर में और ईडी ने अपनी ईसीआईआर में न्यायाधीश वर्मा का नाम शामिल किया था। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने दुर्लभ प्रेस विज्ञप्ति जारी की और कहा कि ट्रांसफर का इस केस से कोई संबंध नहीं है। दिल्ली हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीके उपाध्याय ने इस मामले में इन-हाउस जांच की और २१ मार्च २०२५ को अपनी रिपोर्ट भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को सौंपी। इस लेख के लिखे जाने तक सुप्रीम कोर्ट ने मिली जांच रिपोर्ट पर कोई पैâसला नहीं लिया था।
बहरहाल, कैश मिला था या नहीं मिला था, सच्चाई कोई नहीं जानता, लेकिन ऐसी खबर आने के बाद कांग्रेस ने कहा है कि यह जानना महत्वपूर्ण है कि पैसा किसका था और न्यायाधीश को क्यों दिया गया था?
ऐसे में इस केस के महत्व को अनदेखा इसलिए भी नहीं किया जा सकता कि आज जब अन्य प्रशासनिक संस्थाओं में जनता का विश्वास डगमगा गया है तो न्यायपालिका ही एक उम्मीद की किरण नजर आती है, जिसका एकदम पाक साफ सामने आना आवश्यक है, लेकिन अफसोस कि इन दिनों एक के बाद एक न्यायिक अलमारी से ही कंकाल निकलते आ रहे हैं इसलिए यह प्रश्न प्रासंगिक हो गया है कि ऐसे में जजों को कौन जज करेगा? कलकत्ता हाई कोर्ट के न्यायाधीश सौमित्र सेन ने अपने पद से बीच में ही इस्तीफा दे दिया था, जब संसद में उन्हें हटाए जाने की प्रक्रिया चल रही थी उनके खिलाफ फंड्स की अनियमितता का आरोप था। दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश शमित मुखर्जी ने रिश्वत स्वीकार करने के आरोप लगने पर अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। सिक्किम हाई कोर्ट के न्यायाधीश पीडी दिनाकरण पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे और उन्होंने भी इस्तीफ़ा दे दिया था। फिर पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट की न्यायाधीश निर्मल यादव के दरवाजे पर कैश का मामला था। यह केस उस समय प्रकाश में आया जब १५ लाख रुपए उनके नाम से मिलती हुई एक अन्य न्यायाधीश निर्मलजीत कौर के घर पर गलती से डिलिवर हो गया था। यह २००८ की बात है। इस १७-साल के केस की दिशा को याद रखना आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम ने २००९ में न्यायाधीश यादव को क्लीन चिट दे दी। उन्हें उत्तराखंड हाई कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया गया, जहां से वह मार्च २०११ में रिटायर हुर्इं, लेकिन उनके रिटायरमेंट के अंतिम दिन सीबीआई ने उनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया और यह मुकदमा अभी तक चल रहा है। न्यायाधीश यादव का ‘निर्दोष’ होना अभी तक साबित नहीं हो सका है इसलिए बिना दोषमुक्त के ट्रांसफर करना अच्छा विचार नहीं है।
बात केवल न्यायाधीशों पर आर्थिक भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं है। चिंता उससे भी कहीं ज्यादा तब हो जाती है, जब हाई कोर्ट्स में बैठे न्यायाधीश अपने आदेशों, निर्णयों या सुनवाई के दौरान अनर्गल टिप्पणी करते हैं, विशेषकर महिलाओं या किसी संप्रदाय विशेष के संदर्भ में। भला इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश राम मनोहर नारायण मिश्रा की इस टिप्पणी को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है और वैâसे स्वीकार किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने एक महिला के साथ जबरदस्ती करना और उसके कपड़े खींचने को बलात्कार का प्रयास मानने से इनकार कर दिया। इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक अन्य न्यायाधीश शेखर कुमार यादव के कोर्ट के अंदर व कोर्ट के बाहर विवादित व आपत्तिजनक बयानों की तो एक लंबी सूची है, जिसके लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट से फटकार भी पड़ चुकी है।
न्यायाधीशों की इन अनावश्यक हरकतों पर लगाम कसने के लिए सुप्रीम कोर्ट प्रयास अवश्य करता है, लेकिन वह अभी तक पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया है। सुप्रीम कोर्ट ने २५ सितंबर २०२४ को संवैधानिक अदालतों के न्यायाधीशों पर इस बात का बल दिया कि वह अपनी पूर्व वृत्तियों के प्रति जागृत रहें और संयम बरतें, ताकि अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों के प्रति वफादार रहें और स्त्री जाति से द्वेष या कुछ समुदायों की ओर पूर्वाग्रहपूर्ण प्रतीत हुए बिना वस्तुनिष्ठ व न्यायोचित पैâसले सुना सकें। सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के न्यायाधीश वी श्रीशानंद की टिप्पणियों का स्वत: संज्ञान लिया था, जिन्होंने एक केस की सुनवाई के दौरान बंगलुरु की एक बस्ती को ‘पाकिस्तान’ कहा था और एक महिला वकील से महिलाओं के सिलसिले में आपत्तिजनक बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की खंडपीठ ने श्रीशानंद को तगड़ी फटकार लगाते हुए कहा, ‘हमने आपके अवलोकनों की प्रवृत्ति को देखा है। कोई भी भारत के किसी भी भाग को पाकिस्तान नहीं कह सकता है। यह बुनयादी तौर पर राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता के विपरीत है।’ खंडपीठ ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि श्रीशानंद की टिप्पणियां मौखिक अहेतुक थीं, जिन्हें ‘व्यक्त नहीं किया जाना चाहिए था’ और उन्हें न्यायपालिका के संस्थागत सम्मान की खातिर ही नोटिस नहीं दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने श्रीशानंद को अतिरिक्त शर्मिंदगी से इसलिए बख्श दिया क्योंकि उन्होंने खुली अदालत में माफी मांग ली थी।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)