डॉ. अनिता राठौर
भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि देश के उपराष्ट्रपति जो राज्यसभा के सभापति यानी अध्यक्ष का कार्यभार भी संभालते हैं, उनको पद से हटाने के लिए नोटिस दिया है। इंडिया गठबंधन में शामिल विपक्षी दलों ने जगदीप धनखड़ पर राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करते हुए ‘पक्षपात’ करने का आरोप लगाया है। इसलिए विपक्ष ने उन्हें हटाने के लिए १० दिसंबर २०२४ को नोटिस दिया है। हालांकि, विपक्ष के पास उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए राज्यसभा में संख्या नहीं है। जिस कारण अनुमान यही है कि उन्हें सफलता मिलने नहीं जा रही है, लेकिन यह एक जबरदस्त प्रतीकात्मक विरोध अवश्य है। विपक्ष भी जानता है कि वह अपनी मुहिम में कामयाब नहीं होने जा रहा है, इसलिए उसने भी अपने नोटिस को प्रतीकात्मक संघर्ष कहते हुए कहा है कि यह ‘संसदीय लोकतंत्र को कायम रखने के लिए सशक्त संदेश है।’ इसमें कोई दो राय नहीं है कि अनेक अवसरों पर ऐसा प्रतीत हुआ कि जगदीप धनखड़ सत्तारूढ़ दल के पक्ष में अनावश्यक तौर पर झुक रहे थे, जबकि एक उपराष्ट्रपति से उम्मीद की जाती है कि वह अगर निष्पक्ष न भी हों तो भी निष्पक्ष दिखाई देने चाहिए।
विपक्ष की ‘नैतिक जीत’!
संविधान के अनुच्छेद ६७ (बी) के अनुसार उपराष्ट्रपति (जो कि राज्यसभा के अध्यक्ष भी होते हैं) को हटाने का मोशन राज्यसभा में साधारण बहुमत से पारित होना चाहिए और फिर उस पर लोकसभा की ‘सहमति’ की मुहर लगनी चाहिए। राज्यसभा में २४५ सदस्य होते हैं, इसलिए विपक्ष के पास १२३ मत होने चाहिए। इस समय राज्यसभा में १४ स्थान रिक्त हैं यानी साधारण बहुमत के लिए विपक्ष के पास ११६ सदस्य होने चाहिए, लेकिन इंडिया गठबंधन के पास केवल ८५ सदस्य हैं और सत्तारूढ़ एनडीए के पास ११३ सदस्य हैं। लोकसभा में भी जाहिर है कि विपक्ष के पास पर्याप्त संख्या नहीं है। इसके अतिरिक्त एक अन्य समस्या यह है कि राज्यसभा के उपाध्यक्ष की अनुमति से मोशन के मूव होने से १४ दिन पहले नोटिस देना आवश्यक होता है। राज्यसभा का वर्तमान सत्र २० दिसंबर को समाप्त हो रहा है, जिसका अर्थ है कि १० दिसंबर को दिया गया नोटिस स्वत: ही गिर जाएगा। गौरतलब है कि अगस्त में भी विपक्ष ने ऐसे ही मोशन की योजना बनाई थी, लेकिन तब कोई नोटिस नहीं दिया गया था। दरअसल, विपक्ष ‘नैतिक जीत’ हासिल करने का प्रयास कर रहा है और संख्या बल पर आधारित लोकतंत्र में ‘नैतिक जीत’ का कोई अर्थ होता नहीं है।
चोरी और सीनाजोरी
बहरहाल, उम्मीद के अनुसार सत्तारूढ़ दल ने नोटिस की कड़ी आलोचना व निंदा की है। संसदीय मामलों के मंत्री किरण रिजीजू ने कहा है, ‘चाहे राज्यसभा हो या लोकसभा हो, विपक्ष चेयर का सम्मान नहीं करता है। हम सभी जानते हैं कि संसदीय परंपरा में लोकसभा व राज्यसभा के स्पीकर्स हमारे मार्गदर्शक होते हैं। जो भी चेयर में बैठता है हम सबको उसकी आज्ञा का पालन करना चाहिए, लेकिन कांग्रेस और उसके सहयोगी निरंतर गलत तरीके का व्यवहार करते हैं।’ रिजीजू ने इस बात पर भी बल दिया कि एनडीए के पास सदन में बहुमत है। यहां यह बताना आवश्यक है कि नोटिस को कांग्रेस के सदस्यों जयराम रमेश और नसीर हुसैन ने राज्यसभा के महासचिव पीसी मोदी को सबमिट किया, इस पर ६० सदस्यों के हस्ताक्षर हैं, जिनका तृणमूल कांग्रेस, सपा, राजद, भाकपा, माकपा, जेएमएम, आप व द्रमुक से संबंध है। पहले तृणमूल यह चाहती थी कि उपराष्ट्रपति के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाया जाए, लेकिन कांग्रेस अडानी के मुद्दे पर व्यस्त थी इसलिए बात सोनिया गांधी के सामने रखी गई, जिन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से बात की जो राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी हैं। सोनिया गांधी ने खड़गे को इस बात में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित तो अवश्य किया, लेकिन बाद में यह तय हुआ कि खड़गे, सोनिया और विपक्षी दलों के फ्लोर लीडर्स नोटिस पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे।
ध्यान रहे कि तृणमूल जगदीप धनखड़ से उसी समय से नाराज है जब वह पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। तृणमूल के अनुसार तब धनखड़ ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए काम करना कठिन कर दिया था। उपराष्ट्रपति बनने के बाद धनखड़ और विपक्ष के बीच राज्यसभा में अक्सर टकराव होता रहता है। जया बच्चन व संजय सिंह से हुए उनके विवाद सर्वविदित हैं। विपक्ष ने जब सदन के भीतर व बाहर धनखड़ का विरोध किया था तो धनखड़ ने उसे पूरी जाट बिरादरी के ‘अपमान’ से जोड़ने का प्रयास किया था। दरअसल, अनेक मुद्दे हैं जिनको लेकर विपक्ष धनखड़ से नाराज है। नवीनतम आपत्ति यह है कि धनखड़ ने बीजेपी के सदस्यों को तो अनुमति दी कि वह कांग्रेस और विवादित रईस जॉर्ज सोरोस के बीच संबंध होने के आरोप लगाएं कि वह ‘भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल हैं’, जबकि जिस मीडियापार्ट रिपोर्ट के आधार पर यह आरोप लगाए गए थे, उस मीडियापार्ट ने ही बीजेपी की निंदा करते हुए कहा है कि वह ‘फेक न्यूज’ पैâला रही है और जो कह रही है वह बातें तो रिपोर्ट में हैं ही नहीं, लेकिन विपक्ष को अडानी का मुद्दा उठाने की अनुमति नहीं दी गई, जबकि अडानी समूह के खिलाफ अमेरिका की अदालत में २,२०० करोड़ रुपए की रिश्वत देने की योजना बनाने व अमेरिकी निवेशकों को झूठ बोलकर गुमराह करने के आरोपों में मुकदमा कायम किया गया है।
संवैधानिक पद की गरीमा को ठेस
विपक्ष का कहना है कि ९ दिसंबर २०२४ को धनखड़ का सदन में व्यवहार ‘विशेषरूप से एकतरफा और पूर्णत: अनुचित’ था और वह सत्तारूढ़ दलों के सदस्यों को बेबुनियाद व आपत्तिजनक टिप्पणी करने के लिए ‘प्रोत्साहित व उकसा रहे थे।’ विपक्ष ने संसद के मानसून सत्र से ही धनखड़ के तथाकथित पक्षपाती रवैये के ‘साक्ष्य’ वीडियो, लेखों व अन्य डॉक्यूमेंट्स में एकत्र करने शुरू कर दिए थे। अपने यह आरोप साबित करने के लिए कि वह पक्षपात करते हैं। एक वीडियो क्लिप में दिखाया गया है कि धनखड़ बीजेपी के पीयूष गोयल का पक्ष ले रहे हैं। विपक्षी सांसदों ने जो नोटिस सबमिट किया है, उसमें धनखड़ के ‘पक्षपाती व्यवहार’ की निंदा करते हुए कहा गया है, ‘उनका (धनखड़) का व्यवहार ऐसा नहीं है, जैसा उच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का होना चाहिए कि वह भारत के संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करें।’ नोटिस में यह भी कहा गया है कि राज्यसभा के चेयरमैन के रूप में धनखड़ का व्यवहार ऐसी घटनाओं से भरा हुआ है, जिनमें वह ‘स्पष्टत: पक्षपाती हैं और विपक्ष से संबंधित सदस्यों के प्रति उन्होंने अन्याय किया है’।
राज्यसभा की कार्यवाही को टीवी पर देखने वाले लोग जानते हैं कि धनखड़ का झुकाव अक्सर बीजेपी के सदस्यों के तरफ प्रतीत होता है इसलिए विपक्ष के आरोपों में कुछ तो दम नजर आता है। विपक्ष अपनी बात साबित करने में सफल भी हो सकता है, लेकिन संख्या बल आधारित लोकतंत्र में विपक्ष का सफल होना लगभग नामुमकिन है। सदन के इस सत्र में तो उसका मोशन स्वीकार भी नहीं किया जाएगा, लेकिन उसने संकेत दिया है कि वह अगले सत्र में नए सिरे से धनखड़ को हटाने का नोटिस देगा।
(लेखिका शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं)