संजय श्रीवास्तव
कम समय में ज्यादा बारिश एक चिंतनीय रेन पैटर्न है। पर्यावरणविद् और जलवायु वैज्ञानिकों का दावा है कि इनका दौर, संख्या और व्यापकता भविष्य में और बढ़ेगी। समस्या का पानी सिर के ऊपर से गुजरे इससे पहले ही सरकार को सचेत हो जाना चाहिए और पर्यावरण के प्रति लापरवाह आमजन को भी।
हीटवेव से हलाकान और मानसून का इंतजार करनेवाले लोग अचानक मानसून के आगमन से सहम गए हैं, क्योंकि मौसम विभाग के द्वारा दो दर्जन राज्यों में भारी बारिश का ऑरेंज अलर्ट और चेतावनियां जारी करने से पहले उत्तर भारत के कई शहर मूसलाधार बारिश के कहर का शिकार हो चुके हैं। देश के तमाम शहरों से मिले वर्षा संबंधी आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि ज्यादातर के वहां महीनेभर, सालभर की बारिश एक दिन, एक हफ्ते या कुछ घंटों में हो जा रही है। लोग चैनलों और इंटरनेट पर हरिद्वार, दिल्ली, भागलपुर जैसे शहरों में उतराती, बहती कारें देख रहे हैं तो कई राज्यों में महज कुछ घंटों में हुई बारिश के बाद का हौलनाक मंजर भी सामने है। बंगलुरु, राजस्थान ही नहीं दुबई, सऊदी अरब की अचानक आई वर्षा को याद कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों से मानसून के दौरान कई जगहों पर वर्षा दिवसों में कमी तो कुछ जगहों पर इनकी संख्या अपेक्षा से ज्यादा है। बारिश का कहीं कम या ज्यादा होना पहले भी होता आया है, लेकिन बेहद कम समय में अत्यधिक वर्षा एक नया मौसमी चलन है, जो इन दिनों बहुधा देखने में आ रहा है।
सवाल यह है कि आखिर इस साल यह चलन क्योंकर आया, बारिश का पुराना पैटर्न बदलने का कारण क्या है? क्या यह मानव निर्मित है और उसके द्वारा इसे ठीक किया जा सकता है अथवा मानवीय नियंत्रण से बाहर पूर्णतया प्राकृतिक प्रक्रिया है? अतिवृष्टि से सबसे ज्यादा सामान्यजन ही प्रभावित होते हैं, लेकिन वे अलनीनो प्रभाव, वेस्टर्न डिस्टर्वेंस, साइक्लोनिक सर्क्युलेशन, मानसून टर्फ, ऑरोग्राफिक लिफ्टिंग जैसे तमाम तकनीक कारकों को न जानते हैं, न उसकी तह में जाना चाहते हैं। जागरूकता के अभाव में उनके लिए यह बस मौसम की मर्जी है। मानसून में अचानक और भारी वर्षा तमाम तरह की समस्याएं बरसाकर निकल जाती है और बाकी समय में शहर, शासन, प्रशासन, जनता अगले मानसून में फिर अलग स्तर पर उन्हीं समस्याओं के लिए प्रतीक्षारत हो जाता है।
जलवायु वैज्ञानिकों का दावा है कि आगे से वर्षा ऋतु में भारी वर्षा वाले दिन ज्यादा होंगे और इसका दौर साल दर साल बढ़ता जाएगा। ऐसे में इस अचानक और भारी वर्षा के पीछे क्या कारक हैं, उसके संभावित निवारक तत्व क्या हो सकते हैं और उससे उपजने वाली समस्याओं के खिलाफ भविष्य में क्या तैयारियां अपेक्षित हैं? जानना ज़रूरी होगा और सरकार तथा आमजन दोनों को अपने कार्य व्यवहार के लिए उसके अनुरूप छोटे तथा दीर्घावधि वाले लक्ष्य तय करने होंगे। क्लाइमेट चेंज पर अंतर-सरकारी पैनल की रिपोर्ट कहती है कि १९५० के दशक से संसारभर में भारी वर्षा की घटनाएं बढ़ी हैं। देश के लोग तकरीबन तीस सालों से अनियमित मानसून पैटर्न के तहत कहीं अतिवृष्टि, कही अनावृष्टि की घटनाओं को देख रहे हैं। हालांकि, इस पर ज्यादा ध्यान बीते कुछ बरसों में ही दिया गया है। एक अध्ययन बताता है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान पिछले १० वर्षों में भारत के ४,४१९ उपजिलों के ५५ प्रतिशत में बारिश में वृद्धि दर्ज की गई, जबकि ११ फीसद उपजिलों में बारिश में कमी आयी है। पर्यावरणविदों के अनुसार, कम समय में ज्यादा बारिश होने की अधिकांश वजहें मानव-जनित जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग से जुड़ी हुई हैं, जिनके चलते भारी वर्षा के मुख्य कारण, वातावरण में नमी की मात्रा और वायुमंडलीय तापमान प्रभावित होता है, ज्यादा नमी और ठंडे वायुमंडलीय तापमान का मतलब है, भारी बारिश।
नासा ने दो बरस पहले कहा था कि धरती के तापमान में हर एक डिग्री की बढ़त वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा लगभग ७ प्रतिशत बढ़ाता है। इससे थोड़े समय में भारी बारिश की आशंका बढ़ती है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार, वर्ष १९०१-२०१८ के दौरान देश में सतह की हवा का तापमान दशमलव सात डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, इसके चलते वायुमंडलीय नमी में भी बढ़ोतरी हुई है। १९५१-२०१५ के दौरान हिंद महासागर में समुद्री सतह का तापमान १ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है, बीते बरसों से समुद्री सतह के तापमान में तेज बढ़त जारी है। पहले मानसून के दौरान इसका तापमान गिरता था, लेकिन अब नहीं। सो ये असामान्य ताप वृद्धि नमी में बढ़ोतरी कर मानसून का नियमित पैटर्न बिगाड़ देती है। पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते वायुमंडल की नमी बढ़ती है, इस नम हवा को पहाड़ियां रोकती और उठाती हैं, इस ऑरोग्राफिक लिफ्टिंग के कारण पर्वतों में भारी बारिश, भूस्खलन जैसी तबाही आती है। इसके अलावा जब ठंडी हवा वातावरण में ऊपर की तरफ जाती है तो साइक्लोनिक सर्वुâलेशन की स्थिति बनती है और ज्यादा बारिश होती है, इसी तरह मानसून के दौरान कम दबाव वाले क्षेत्र में इकट्ठा हुई हवाएं मानसून टर्फ बना लेती हैं, पश्चिमी विक्षोभ से यह मानसून टर्फ टकराता है तो भीषण वर्षा होती है।
तापमान और नमी में वृद्धि के साथ-साथ अचानक भारी वर्षा का दौर लगातार बढ़ते जानेवाला है। हमारा नियंत्रण इससे संबंधित बहुत-सी परिस्थितियों पर नहीं है, पर जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने और इनकी वजह से गड़बड़ाए रेन पैटर्न के दुष्प्रभावों, समस्याओं से निपटने के उपाय हम अवश्य कर सकते हैं। बरसों से अनियोजित विकास ने बारिश से होने वाली आपदा को रोकने वाली जिन प्राकृतिक सुरक्षा को नष्ट कर दिया है, हमें उनको पुनर्जीवित करना होगा। व्यापक बाढ़ और सूखे जैसी खतरनाक परिस्थितियों के शिकार होने से पहले नेतृत्व को सचेत होना होगा और देश को अपना हरितक्षेत्र बढ़ाने, हरित र्इंधन पर जोर देने के साथ उन सभी पर्यावरणीय नियमों, उपायों को अपनाना होगा, जिससे पर्यावरण की रक्षा हो सके और धरती का ताप न बढ़े। बेशक इसमें सरकार की सक्रियता, सदिच्छा, जनता का सहयोग बहुत आवश्यक है। जलवायु पैटर्न को सुरक्षित और स्थिर बनाने के लिए सरकार को जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना को पूरी ईमानदारी से लागू करना होगा, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसके लिए बेहतर प्रयास की आवश्यकता है। संबंधित विभाग द्वारा मौसम संबंधी अधिकतम आंकड़े एकत्र कर उनका विश्लेषण करना चाहिए, ताकि मानसून के अनिश्चित व्यवहार के बारे में बेहतर समझ बने।
मौसम विभाग को मौसम संबंधी पूर्वानुमानों की सटीकता, विश्वसनीयता और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अधिक अवलोकन केंद्र स्थापित करने होंगे, अधिक संसाधनों में बड़ा निवेश करना होगा, इसके अलावा संचार चैनलों को बढ़ावा देकर प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को सशक्त, समुदाय-आधारित और सर्वग्राही बनाना होगा। मानवीय प्रवृत्तियों पर नियंत्रण लगाने के अलावा कुछ पर्यावरणीय कानून भी लाने होंगे। मानसून केवल बारिश नहीं बाढ़ भी ला रहा है, जिससे जान-माल का भारी नुकसान हो रहा है। बीमारियां पैâल रही हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, बाढ़ के चलते देश के ५,६४९ करोड़ रुपए हर साल पानी में चले जाते हैं। औसतन १,६५४ मानव जीवन का नुकसान होता है। मरनेवाले पशुधन की संख्या भी बड़ी है। निस्संदेह इससे निपटने के लिए मजबूत बुनियादी ढांचे में निवेश करना होगा, बाढ़ की रोकथाम की तकनीक में शामिल हैं जल निकासी प्रणाली का विकास, नदी तटबंधों का निर्माण, जल ग्रहण क्षेत्रों के विकास हेतु छोटे-बड़े तालाबों, झीलों को खोदना।
टिकाऊ शहरी डिजाइन अवधारणाओं के तहत शहरी नियोजन को नए सिरे से देखना और भूमि उपयोग प्रबंधन के सुविचारित नियम बनाना भी आवश्यक होगा- जैसे उन क्षेत्रों को निर्माण से अलग रखना जहां बाढ़ आ सकती है या वर्षा का जल इकट्ठा होता है। इसके साथ ही नष्ट होती जा रही प्रभावी प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों की पुनर्स्थापना भी। समस्या का पानी सिर के ऊपर से गुजरे इससे पहले सरकार को सचेत होकर विकास के नाम पर वातावरण की उपेक्षा करने की बजाय इस आसन्न समस्या पर गंभीरता से विमर्श कर समाधान के व्यावहारिक उपाय तलाशना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार हैं)