विजय कपूर / डॉ.अनिता राठौर
४ जून २०२४ की सुबह जब १८वीं लोकसभा चुनावों के रुझान आने शुरू हुए तो एक कार्टून वायरल हुआ, जिसमें लिखा था कि ‘रुझानों में तो एग्जिट पोल पीछे चल रहे हैं’। यह तीखे व्यंग्य के साथ ही कड़वा सच भी था। १ जून २०२४ को आम चुनाव के सातवें व अंतिम चरण का मतदान पूर्ण होने के बाद, जब इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने अपने अपने एग्जिट पोल के डाटा देने शुरू किए, तो लगभग सभी ने बीजेपी के नेतृत्ववाले एनडीए को ३५० से ४०० तक सीटें दी थीं, जिससे अगले दिन सेंसेक्स ने ३,००० अंकों की उछाल लगा दी, लेकिन जब ४ जून २०२४ को रुझान आने शुरू हुए तो एकदम स्पष्ट हो गया कि एग्जिट पोल तो असल नतीजों के आसपास भी नहीं थे। हां, यह बात अवश्य सामने आई कि ‘इंडिया’ गठबंधन ने अच्छा संघर्षपूर्ण प्रदर्शन किया है और बीजेपी, एनडीए में अपने सहयोगी दलों के सहारे इन पंक्तियों के लिखे जाने तक लगातार तीसरी बार केंद्र में सरकार बनाने में थी, लेकिन अचानक सियासी गलियारों में दो नामों की चर्चा बहुत अधिक होने लगी है। एक है, बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और दूसरे तेलगु देसम पार्टी के मुखिया चंद्रबाबू नायडू, जिन्होंने न सिर्फ आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल करके शानदार वापसी की है, बल्कि अपने राज्य के लोकसभा चुनावों में भी शानदार प्रदर्शन किया है। शाम ५.०५ तक रुझान यह था कि एनडीए ने २९६ सीटों पर बढ़त बनाए हुए था और ‘इंडिया’ गठबंधन ने २०१ सीटों पर कब्जा कर रखा था। इसमें एनडीए २४ सीटें और इंडिया १० सीटें जीत चुका था। ओडिशा के विधानसभा चुनावों में बीजेपी जबरदस्त उलटफेर करती हुई दिख रही थी कि उसने ८० सीटों पर बढ़त बनाई हुई थी और सत्तारूढ़ बीजू जनता दल ५० सीटों पर आगे थी, जबकि कांग्रेस अप्रत्याशित रूप से १६ सीटों पर आगे थी। आम चुनाव के नतीजे बहुत धीमे-धीमे घोषित किए जा रहे थे, जिसके लोग अलग अलग कारण बता रहे हैं।
हालांकि, दोनों नीतिश कुमार व चंद्रबाबू नायडू फिलहाल एनडीए का हिस्सा हैं, लेकिन उनका इतिहास बताता है कि वह कब पाला बदल लें, इस बारे में कोई ज्योतिष भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता। इस बात को बीजेपी भी समझती है इसलिए ३ जून २०२४ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई दिल्ली में नीतिश कुमार से मुलाकात की और चार जून को मोदी ने फोन पर चंद्रबाबू नायडू से वार्ता की। अनुमान यह है कि इस वार्ता में नायडू को एनडीए का संयोजक पद ऑफर किया गया है। दूसरी ओर ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ से शरद पवार ने नायडू से बात की है (हालांकि, बाद में उन्होंने इंकार कर दिया) और बिहार में नीतिश कुमार से राजद संपर्क बनाए हुए है। तेजस्वी यादव सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि मतगणना के बाद चाचा (नीतिश कुमार) कोई बहुत बड़ी घोषणा कर सकते हैं। दरअसल, नीतीश कुमार व नायडू का महत्व अचानक इसलिए बढ़ गया है कि सरकार बनाने में उनकी भूमिका की अहमियत हो गई है। दोनों या दोनों में से कोई एक फिलहाल या निकट भविष्य में एनडीए का साथ छोड़ेगा, यह कहना तो कठिन है, लेकिन इतना तय है कि इन दोनों नेताओं की बारगेनिंग पॉवर बहुत अधिक बढ़ गई है और यह इतने मंझे हुए नेता हैं कि किसी भी अवसर को अपने हाथ से निकलने नहीं देंगे।
इसलिए दिल्ली और पटना के गलियारों में चर्चा तो यहां तक है कि नीतिश कम से कम उप-प्रधानमंत्री पद पर नजर लगाए हुए हैं, अब जिस भी गुट से सौदा पट जाए, उसे ही बदले में बिहार का मुख्यमंत्री पद दे देंगे। दूसरी ओर बीजेपी की भी कोशिश है कि ‘इंडिया’ गठबंधन के कुछ दलों को अपने साथ एनडीए में शामिल कर लिया जाए। उद्धव ठाकरे की शिवसेना का नाम इस सिलसिले में विशेषरूप से लिया जा रहा है। अकाली दल को भी वापस एनडीए में लाने का प्रयास है। बहरहाल, इस लोकसभा चुनाव में जो कांटे की टक्कर रही उसकी एक बड़ी वजह यू-ट्यूबर्स रहे, जिन्होंने चुनावी खेल में टीवी को भी मात दी। जमीन पर राय बनाने में स्थानीय व स्वतंत्र पत्रकारों की अपने यू-ट्यूब चैनलों ने जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इस चुनाव से पहले वैसी भूमिका अनौपचारिक मीडिया की किसी भी चुनाव में नहीं रही। यह लोग अपना फोन या छोटा-सा वैâमरा और ट्रायपोड लेकर उन स्थानों पर गए, जहां राष्ट्रीय मीडिया नहीं पहुंच रहा था और फिर निडरता से इन्होंने अपने यू-ट्यूब वक्तव्यों, फेसबुक पोस्ट्स, व्हॉट्सऐप मैसेजों और ट्वीट्स से जनता की राय को प्रभावित किया।
यह कहना गलत न होगा कि यू-ट्यूबर्स ने बाकी मीडिया से बाज़ी मार ली और उन्होंने हर चीज़ हर जगह की। वे वहां गए जहां टेलीविजन न जा सका, जो अभी तक ‘समाचार वितरण’ का सबसे प्रभावी माध्यम था। अगर इन यू-ट्यूबर्स में चुनाव को प्रभावित करने के संदर्भ में केवल एक नाम लिया जाए तो वह ध्रुव राठी का होगा, जिनके कंटेंट को देशभर में अलग-अलग भाषाओं में बड़े स्क्रीन पर भी दिखाया गया। नई सरकार दुर्लभ अल्पकालीन लाभों के साथ ऑफिस में आएगी। मैक्रोइकनोमिक इंडीकेटर्स तो दुरुस्त हैं और कोई त्वरित संकट निपटाने के लिए नहीं है। इससे यह अवसर मिल जाता है कि सावधानीप्ाूर्वक उन स्ट्रक्चरल परिवर्तनों को संबोधित किया जाए जिनसे भारत उन गिने चुने देशों में शामिल हो जाये जो ‘मिडिल-इनकम ट्रैप’ से बाहर निकल चुके हैं।
इस चुनाव में सबसे ज्वलंत मुद्दा बेरोज़गारी का था इसलिए नई सरकार के समक्ष मुख्य चुनौती जॉब मार्किट की दुर्दशा को दूर करना होगा। जॉब्स की गुणवत्ता में जबरदस्त पतन आया है। पिछले पांच वर्षों के दौरान शहरी क्षेत्रों में भी उन लोगों की संख्या बढ़ी है, जिन्हें स्वरोजगार की श्रेणी में रखा जाता है। आज भारत का बुनियादी आर्थिक व सामाजिक संकट यह है कि बड़ी तादाद में कार्यबल ऐसे बेकार के जॉब्स में फंसा हुआ है, जिनमें बहुत मामूली वेतन मिलता है। फेडरलिज्म को भी मजबूत करने की आवश्यकता है, विशेषकर इसलिए कि वे परम्पराएं कमजोर हुई हैं, जो इसका आधार बनी हुई थीं। मसलन, कुछ राज्यों ने केंद्र सरकार के साथ संसाधनों की शेयरिंग पर मतभेद को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी है। इस पृष्ठभूमि में टकराव का एक अन्य बिंदु संसदीय सीटों का संभावित परिसीमन है, जो राज्यों के बीच पॉवर संतुलन को बदल देगा। इस क्षेत्र में केंद्र सरकार को ध्यानपूर्वक चलना होगा। एक बार जब कहीं भी दीर्घकालीन पतन आरंभ हो जाता है तो प्रजनन डर उलटती नहीं है इसलिए फेडरल सिस्टम में परिसीमन का अर्थ पोलिटिकल पॉवर खोना भी है। चीन अमेरिका का मुख्य स्ट्रेटेजिक प्रतिद्वंदी बनकर उभरा है। शीत युद्ध युग के विपरीत, भारत का चीन के साथ अनसुलझा सीमा विवाद है, जबकि उसके बढ़ते बाजार का हर कोई फायदा उठाना चाहता है। नई सरकार को इस पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। इसी के साथ भारत को अपनी ट्रेड नीति पर भी पुनर्विचार करना होगा, जिसने सुरक्षात्मक रुख अपनाया हुआ है जबकि भू-राजनीति ने नए अवसर खोल दिए हैं।
(लेखक विजय कपूर सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं और लेखिका डॉ. अनिता राठौर शिक्षा क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं)