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सम-सामयिक: गठबंधन युग की वापसी के साथ

शाहिद ए चौधरी

नतीजों में छिपे हैं कई सियासी सबक!

लोकसभा की संरचना बदल गई है। एग्जिट पोल्स ने एनडीए के लिए विशाल बहुमत की भविष्यवाणी की थी, जैसे भाजपा के ४०० पार के नारे को ध्यान में रखते हुए अपना हिसाब लगाया हो, लेकिन जमीनी रिपोट्र्स कड़े मुकाबले की ओर इशारा कर रही थीं। अत: बीजेपी २७२ के जादुई अंक से बहुत दूर रह गई और अब उसे एनडीए की सरकार बनाने के लिए बिहार के नीतिश कुमार व आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू पर निर्भर होना पड़ेगा, जबकि २०१४ व २०१९ में वह अकेले दम पर बहुमत लिए हुए थी। दोनों नीतिश व नायडू २०२४ लोकसभा चुनाव से जरा पहले ही एनडीए में लौटे थे, लेकिन दोनों का ही ट्रैक रिकॉर्ड राजनीतिक कांधा बदलने वाले सहयोगियों का रहा है। जहां तक राहुल गांधी व `इंडिया’ गठबंधन की बात है तो नतीजे बता रहे हैं कि उनके हालात में सकारात्मक नाटकीय परिवर्तन आए हैं, जो २००४ की याद दिलाते हैं। जब कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए सोनिया गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए पर शानदार जीत दर्ज की थी। उस समय एनडीए के बारे में एग्जिट पोल्स ने भविष्यवाणी की थी कि ‘इंडिया शाइनिंग’ अभियान उसे विजय दिला देगा। सोनिया के कारण यूपीए की सरकार बनी, जिसने २००९ में भी जीत दर्ज की। हालांकि, फिलहाल इंडिया गठबंधन केंद्र में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि उसकी वजह से दस साल के अंतराल के बाद देश में एक बार फिर गठबंधन युग की वापसी हो गई है। चुनावी नतीजे आने के बाद अपने पहले भाषण में नरेंद्र मोदी ने अपनी आदत के विपरीत ‘मोदी सरकार’ की बजाय ‘एनडीए सरकार’ के शब्दों का प्रयोग किया, जो गठबंधन युग की वापसी का स्पष्ट संकेत है।

अगर इन चुनावों में ‘प्लेयर ऑफ द मैच’ का खिताब दिया जाता तो उसके प्रमुख दावेदार राहुल गांधी, अखिलेश यादव, चंद्रबाबू नायडू, नीतिश कुमार, ममता बनर्जी, एमके स्टालिन और उद्धव ठाकरे होते। दूसरी ओर अगर किसी पर हार का ठीकरा फोड़ने का अवॉर्ड होता तो उसके प्रमुख दावेदार व्हाईएस जगन मोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल, मायावती, तेजस्वी यादव और योगी आदित्यनाथ होते। तमामतर विपरीत स्थितियों के बावजूद सफलता के झंडे गाड़ने का पुरस्कार संयुक्त रूप से चंद्रशेखर आजाद व पप्पू यादव को दिया जाता। भीम आर्मी के आजाद को दोनों बसपा व सपा ने गले नहीं लगाया था और सपा ने तो कांग्रेस को भी मना कर दिया था कि वह आजाद को अपना प्रत्याशी न बनाए। इसके बावजूद आजाद ने अपने दम पर नगीना में १,५१,४७३ मतों से शानदार जीत दर्ज की और अब वह उत्तर प्रदेश में मायावती की जगह ‘दलित मसीहा’ बनने की राह पर हैं।
पप्पू यादव ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी, लेकिन लालू प्रसाद यादव इस जिद पर अड़ गए कि कांग्रेस उन्हें अपना प्रत्याशी नहीं बनाएगी। आजाद की तरह पप्पू यादव भी पूर्णिया से स्वतंत्र प्रत्याशी बने, ४७.५ प्रतिशत मत हासिल किए और १८वीं लोकसभा में पहुंचे। चुनाव में हार-जीत के अनेक कारण होते हैं, लेकिन अगर बीजेपी के बहुमत से दूर रहने की केवल एक वजह बतानी हो तो वह यह है कि उत्तर प्रदेश के दलितों में यह बात घर कर गई थी कि बीजेपी संविधान बदलने के लिए ४०० पार का प्रयास कर रही है। दलितों, विशेषकर जाटवों के लिए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा गठित संविधान ‘धर्मग्रंथ’ की हैसियत रखता है और अब तो उनका एक बड़ा वर्ग विवाह में संविधान के सप्तपदी पेâरे लेता है। उत्तर प्रदेश में २१ प्रतिशत दलित हैं, जिनमें से ११ प्रतिशत जाटव हैं। उत्तर प्रदेश में दलितों के लिए १७ सीट आरक्षित हैं, इनमें से एक पर भी इस बार बसपा सफल नहीं हुई है, जबकि २०१९ में उसने २ और बीजेपी ने १५ सीटों पर विजय हासिल की थी। इस बार आरक्षित सीटों का बड़ा हिस्सा ‘इंडिया’ गठबंधन के हाथ लगा है।
बहरहाल, इन चुनावों की सबसे बड़ी सीख यह है कि भारतीय मतदाताओं को ‘फॉर ग्रांटेड’ नहीं लिया जा सकता। सबसे पहले तो यह मानकर चलना ही गलत है कि मोदी पॉपुलर हैं और वह अपने दम पर चुनाव जिता देंगे। भारत अति विविध देश है और औसत मतदाता अति स्वतंत्र है, जो व्यक्ति-पूजा को एक सीमा तक ही बर्दाश्त करता है। इसलिए हर नेता, हर पार्टी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और तब भी जीत की कोई गारंटी नहीं होती है। दरअसल, इस विविधता का ही प्राकृतिक विस्तार गठबंधन की राजनीति है, जो दस साल बाद फिर से केंद्र में लौट आई है और इससे लोकतंत्र के ‘चेक व बैलेंस’ फिर से लौट आएंगे यानी कोई मनमर्जी या तानाशाही नहीं कर सकेगा। दोनों बीजेपी व कांग्रेस ने शानदार अलायंस निर्मित किए थे जो दोनों पार्टियों के लिए क्रमश: आंध्रप्रदेश व उत्तर प्रदेश में सफल रहे।
इन चुनावों से एक अन्य सीख यह मिलती है कि संदेश और वास्तविकता में कुछ तालमेल अवश्य होना चाहिए। बीजेपी के ४००-पार के नारे से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उसने मतदाताओं को ‘फॉर ग्रांटेड’ ले लिया है। उसका यह संदेश जमीनी हकीकत से बहुत दूर था। सरकार का जॉब्स डाटा बता रहा था कि उच्च जीडीपी ग्रोथ के लाभ नीचे तक नहीं पहुंचे हैं। बीजेपी व मोदी अपने परफॉरमेंस के बारे में जो बोल रहे थे, वह मतदाताओं के अनुभव से एकदम अलग था। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि संदेश जमीनी हकीकत के करीब होना चाहिए, खासकर जब कोई भावनात्मक मुद्दा न हो। चुनाव से पहले इंडिया गठबंधन बिखरता हुआ नजर आ रहा था। उसके एक उत्प्रेरक नितीश अचानक पाला बदलकर एनडीए का हिस्सा बन गए थे। फिर बंगाल में ममता बनर्जी ने अकेले चुनाव लड़ने का पैâसला किया। इन धक्कों के बावजूद इंडिया गठबंधन ने अपने पत्ते अच्छी तरह से खेले। उत्तर प्रदेश में उसने अपनी सभी कमजोरियों पर विजय पा ली। जो राज्य बीजेपी के लिए तुरुप का पत्ता था, वह ही उसकी कमजोरी बन गया। महाराष्ट्र में भी इंडिया गठबंधन ने अपने पत्ते होशियारी से चले, जबकि बीजेपी ने दो पार्टियों को तोड़कर विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास किया था।
पहली बार २००९ के बाद नई सरकार गठबंधन की होगी। पिछले दो अवसरों (२०१४ व २०१९) की तरह सहयोगी दलों को हाशिए पर नहीं डाला जा सकेगा। सहयोगी दलों की असंगत मांगों का प्रबंधन कुशलता से करना होगा, जो एक बार फिर सेंटर स्टेज ले लेगा। इसलिए अनुमान यह है कि अब शॉर्ट नोटिस पर बेकार के निर्णय देखने को नहीं मिलेंगे। जैसा कि नोटबंदी, लॉकडाउन आदि के समय हुआ था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सुधार कार्यक्रम बंद हो जाएंगे। अतीत की गठबंधन सरकारों ने महत्वपूर्ण व अच्छे निर्णय लिए थे, जैसे पूâड सिक्यूरिटी एक्ट, मनरेगा, सूचना का अधिकार आदि। मतदाताओं ने दो टूक शब्दों में कहा है कि जॉब्स व आर्थिक महत्वाकांक्षाओं का ही महत्व है। नई गठबंधन सरकार को इसी संदेश को सुनने की आवश्यकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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