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 सम-सामयिक : ट्रंप को खुश करने के लिए जुकरबर्ग ने दी फेक न्यूज को हरी झंडी

विजय कपूर

फेक न्यूज का विस्फोट
‘बाहुबली’ फिल्म के रिलीज होने के साथ ही एक व्हॉट्सऐप मैसेज वायरल हुआ था, जिसमें पत्रकार मधु त्रेहन की तस्वीर के साथ बड़े फोंट में लिखा था, ‘वामपंथी बुद्धिजीवी मधु त्रेहन ने बाहुबली फिल्म पर साधा निशाना, बोलीं, -‘बाहुबली फिल्म में कोई मुस्लिम किरदार क्यों नहीं, ये फिल्मों का भगवाकरण है।’ इसके नीचे थोड़े छोटे फोंट में लिखा था, ‘वैसे इस मैडम के बच्चों में कोई मुसलमान क्यों नहीं है, पहले इसका जवाब देना चाहिए।’
जाहिर है वायरल हुआ यह पोस्ट एकदम निराधार था। मधु त्रेहन ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था और न वे इस किस्म की बेवकूफी भरी बातें करती हैं। यह पोस्ट फेक न्यूज की लाखों मिसालों में से केवल एक है। फेक न्यूज विशेषरूप से राजनीतिक लाभ अर्जित करने के लिए फैलायी जाती है, लेकिन इससे जो समाज में हिंसा व नफरत का जहर फैलता है, उसके जख्म वर्षों तक रिसते रहते हैं। इंग्लैंड के उत्तर पश्चिम तट पर लिवरपूल के निकट साउथपोर्ट में २९ जुलाई २०२४ को टेलर स्विफ्ट थीम डांस पार्टी में एक १७ वर्षीय युवक ने चाकू से हमला किया था, जिसमें छह, सात व नौ वर्ष की तीन बच्चियों की मौत हो गई थी व १० अन्य व्यक्ति घायल हो गए थे। इस हमलावर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन ऑनलाइन यह अफवाह फैलायी गई कि डांस क्लास चाकूबाजी का हमलावर ‘एक मुस्लिम व अप्रवासी’ है। हालांकि, इंग्लैंड में १८ वर्ष की आयु से कम के संदिग्ध का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता है, लेकिन इस अफवाह व आशंकित हंगामे को रोकने के उद्देश्य से न्यायाधीश एंड्रू मेनारी ने संदिग्ध का नाम सार्वजनिक करने का आदेश दिया। संदिग्ध वेल्स में जन्मा रवांडा पैरेंट्स का १७ वर्षीय पुत्र एक्सेल रूदाकुबाना था। उस पर तीन काउंट्स हत्या के और १० काउंट्स हत्या के प्रयास के चार्ज लगाए गए हैं। इसके बावजूद सोशल मीडिया पर फैलाए गए इस झूठ के कारण इंग्लैंड में ऐसे भयंकर दंगे हुए जैसे कि इस देश में १३ साल पहले देखे गए थे। दंगों में फार राइट (अति दक्षिणपंथी) गुटों ने अप्रवासियों पर हमले किए व जगह- जगह आगजनी, पथराव व तोड़-फोड़ की वारदातों को अंजाम दिया।
दरअसल, फेक न्यूज का विस्फोट इतना अधिक है कि एक सर्वे के मुताबिक, हर साल फेक न्यूज में लगभग ३६५ प्रतिशत की वृद्धि हो रही है इसलिए कॉलिंस डिक्शनरी ने तो ‘फेक न्यूज’ को २०१७ का ‘वर्ड ऑफ द ईयर’ (साल का शब्द) घोषित किया था। गौरतलब है कि फेक न्यूज का अर्थ है, ‘न्यूज रिपोर्टिंग के बहाने ऐसी खबर को प्रचारित व प्रसारित करना जो झूठ पर आधारित हो या तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करे और अक्सर सनसनी फैलाने या राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए फैलायी गई हो।’ यह जहर इतना अधिक फैल चुका है कि चिंतित नागरिकों को कुछ साइटें तो सिर्फ इस काम के लिए बनानी पड़ीं हैं कि झूठ का निरंतर पर्दाफाश किया जाता रहे, जैसे ऑल्टन्यूज.इन, एसएमहोक्सस्लेयर आदि। फिर भी फेक न्यूज को रोकना इतना कठिन है कि ऑल्टन्यूज के मुहम्मद जुबैर को तो फेक न्यूज का पर्दाफाश करने के लिए जेल तक की हवा खानी पड़ी थी। फिलहाल वह जमानत पर बाहर हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई
इस पृष्ठभूमि में मेटा का यह निर्णय चिंताजनक है कि उसने अपनी फैक्ट-चेक व्यवस्था को बंद कर दिया है। मेटा, जिसके अधीन फेसबुक, इंस्टाग्राम व व्हॉट्सऐप भी हैं, ने अमेरिका में डोनल्ड ट्रंप द्वारा राष्ट्रपति का कार्यभार संभालने से पहले ७ जनवरी २०२५ को अपनी फैक्ट-चेक नीति में परिवर्तन करने की घोषणा की और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए हर किस्म की झूठी-सच्ची खबरों के लिए अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के दरवाजे खोल दिए। उसने अपनी नीति परिवर्तन की घोषणा के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग किया जैसे उसे अपनी एक दशक की फैक्ट-चेक नीति पर अत्यधिक खेद हो रहा हो, जबकि उसकी इस नीति से अनेक जगह दंगे होने से रुके व मैक्सिको सहित अनेक देशों में निष्पक्ष चुनाव संपन्न हो सके। मेटा के सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने ऑनलाइन कुछ भी कहने की छूट देते हुए कहा, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी जड़ों पर लौटने का समय आ गया है। कंपनी का फैक्ट-चेकिंग सिस्टम ऐसे मकाम पर पहुंच गया था, जहां बहुत अधिक गलतियां हो रही थीं और बहुत अधिक सेंसरशिप थी।’ जाहिर है कि यह निर्णय ट्रंप को खुश करने के लिए लिया गया है। ट्रंप फेक न्यूज के दुनिया में संभवत: सबसे बड़े समर्थक हैं। उनकी राजनीतिक सफलता में फेक न्यूज की अहम भूमिका रही है। जब वह पहली बार राष्ट्रपति बने थे, तब उन्होंने एक सर्वे के अनुसार, सैकड़ों की संख्या में अपने ट्विटर हैंडल से गलत व भ्रामक सूचनाएं दी थीं।
वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार, अपने पिछले ४ वर्ष के कार्यकाल के दौरान ट्रंप ने ३०,५७३ झूठ फैलाए थे। ट्विटर (जो अब एक्स है) ने तो जनवरी २०२१ में उनका अकाउंट ब्लॉक करके अपने प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंधित कर दिया था। जब एलन मस्क ने ट्विटर को खरीदकर उसे एक्स किया तब ट्रंप से यह प्रतिबंध हटा था। इसका अर्थ है कि जुकरबर्ग ने ट्रंप की ‘फेक न्यूज पैâलाओ नीति’ को ही गले लगाया है। जुकरबर्ग ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मुद्दा बताकर पैâक्ट-चेक पर विराम लगाया है। ट्रंप ने इसकी मांग की थी। जुकरबर्ग ने सहमति व्यक्त की है। ट्रंप की प्रतिक्रिया ने इस बात की पुष्टि की है, लेकिन क्या कहीं इस बात पर बहस है कि फेक न्यूज कितनी खतरनाक हो सकती है? खतरनाक बदमाशों को खुली छूट देने के अतिरिक्त फेक न्यूज जन कल्याण कार्यक्रमों को सीधा प्रभावित करती है। कोविड में गलत सूचनाओं की वैâसी बाढ़ आई थी, यह तो आपको याद ही होगा। फेक न्यूज से दुनियाभर में कितने दंगे हुए हैं, यह भी सब जानते हैं। फैक्ट-चेकर्स गलत सूचना या अफवाह को पकड़ते हैं, चाहे वह अज्ञानता में पैâलायी गई हो या शरारत के लिए जानबूझकर। संस्थागत संरचना को पटरी से उतारने के लिए या मतदाता/नागरिक/उपभोक्ता को प्रभावित करने के लिए भ्रामक सूचनाएं ऑनलाइन तैयार की जा सकती हैं, चाहे उनका इरादा कुछ भी हो।
एशिया यूरोप की सरकारों का फर्ज
ऐसी फेक न्यूज पर तुरंत विराम लगाने की जरूरत होती है इसलिए फैक्ट-चेक का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कोई संबंध नहीं है। इस बात के अकाट्य तथ्य हैं कि वर्तमान में दुनिया के अनेक हिस्सों में जो इतिहास के पुनर्लेखन का ट्रेंड है, वह भी इतिहास को बदल नहीं सकता है। वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित तथ्यों को बदला नहीं जा सकता। जुकरबर्ग इस बात को जानते हैं। ट्रंप जब हारे तो वह एक पक्ष के लिए खेल रहे थे और अब दूसरे पक्ष के लिए खेल रहे हैं। जुकरबर्ग से पहले एक्स ने फैक्ट-चेक हटा दिया था। इसलिए बिग टेक की अब कोई जवाबदेही नहीं है। ग्लोबल सब्सक्राइबर्स के बावजूद सोशल मीडिया कंपनियों ने उन जिम्मेदारियों को अनदेखा किया है जो अन्य प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध हैं। नागरिकों के अथक प्रयासों से फैक्ट-चेक संस्थागत हो पाए हैं। चूंकि ट्रंप/मस्क फैक्ट-चेक नहीं चाहते तो इससे बाकी सरकारों को असहाय नहीं हो जाना चाहिए। यूरोप और एशिया में सरकारों को सोशल मीडिया को जवाबदेह बनाने के लिए अपने प्रयासों को अधिक तीव्र कर देना चाहिए और वह भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित किये बिना। फैक्ट-चेक प्रिंट व डिजिटल सभी प्लेटफॉर्म्स पर होना चाहिए, अच्छी, सच्ची व निष्पक्ष पत्रकारिता का यही तकाजा है।

(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)

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