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देश-दुनिया : दुनिया पेरिस समझौता सफल बनाए …यही होगा उजड्ड ट्रंप को करारा जवाब..!!

शाहिद ए चौधरी

 

तीसरी दफा
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने २० जनवरी २०२५ को पद संभालते ही पहला काम यह किया कि पेरिस क्लाइमेट समझौते (२०१५) से अपने देश को अलग कर लिया। यह तीसरा अवसर है, जब अमेरिका यूनाइटेड नेशंस प्रâेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के तत्वावधान में गठित क्लाइमेट समझौते से अलग हुआ है। सबसे पहले उसने यह हरकत २००१ में की थी, जब राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने १९९७ के क्योटो प्रोटोकॉल से अमेरिका को अलग कर लिया था। वह समझौता महत्वपूर्ण था; क्योंकि पहली बार ३७ औद्योगिक देशों ने कार्बन डाईऑक्साइड एमिशन को कम करने के लिए निश्चित लक्ष्य निर्धारित किया था। बुश ने यह कहते हुए कि इससे अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है, समझौते को छोड़ दिया था। यही कारण देते हुए २०१७ में ट्रंप ने पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया था। अब तीसरी बार अमेरिका ने यह हरकत की है। समझौते से अलग होने का अर्थ है कि अमेरिका एमिशन कम करने के लक्ष्यों को पूरा नहीं करेगा और ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ में अपने हिस्से का पैसा नहीं देगा। यह फंड उन देशों की मदद करने के लिए है, जो क्लाइमेट चेंज से प्रभावित हो रहे हैं, लेकिन स्थिति से निपटने के लिए आर्थिक रूप से कमजोर हैं।
बहरहाल, जब २०१७ में अमेरिका-पेरिस समझौते से अलग हुआ था तो वह तकनीकी रूप से अलग नहीं हुआ था, क्योंकि समझौते की शर्तों में यह शामिल था कि सदस्य देश अपनी घोषणा के तीन वर्ष बाद ही अलग हो सकता था और इसके अतिरिक्त एक वर्ष संयुक्त राष्ट्र की प्रशासनिक इकाई को बताने में लगेगा। इसका अर्थ यह था कि समझौते से अलग होना नवंबर २०२० में ही प्रभावी हो सकता था, लेकिन उस समय तक जो बाइडेन अमेरिका के ४६वें राष्ट्रपति चुन लिए गए थे और जनवरी २०२१ में पद संभालते ही उन्होंने अमेरिका को पुन: समझौते में शामिल कर दिया था। पेरिस समझौता इस बात के लिए समर्पित है कि सभी देश मिलकर तापमान को १.५ डिग्री सेल्सियस से आगे न बढने दें और उसे हर हाल में २ डिग्री सेल्सियस तो कम रखें। ट्रंप के २०१७ के ऑर्डर के विपरीत, उनका नवीनतम आदेश अमेरिका को एक साल के भीतर पेरिस समझौते से अलग कर देगा।
करे कोई, भरे कोई
अमेरिका न सिर्फ संसार की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, बल्कि २००६ तक वह दुनिया में सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करता था। यूरोपीय यूनियन द्वारा समर्थित क्लाइमेट समझौतों पर उसका नजरिया यह प्रदर्शित करने का रहा है कि जैसे वह ही क्लाइमेट संकट का समाधान कर रहा है, लेकिन कानूनी तौर पर उसने कभी भी एमिशन कम करने की हामी नहीं भरी। बॉन में १९९५ में हुई पहली कांप्रâेंस ऑफ पार्टीज से लेकर अब तक उसने यूएनएफसीसीसी के बुनियादी स्वत: सिद्ध सत्य के प्रति असहजता व्यक्त की है, जिससे क्योटो प्रोटोकॉल व पेरिस समझौतों जैसे प्रयासों को अर्थ मिलता है। चूंकि वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ऐतिहासिक दृष्टि से विकसित देशों के एमिशन से बढ़ी है, इसलिए उनकी ही जिम्मेदारी है कि सफाई का अधिकतर खर्च भी वह ही वहन करें। विकसित देशों की वजह से विकासशील देशों को भी फॉसिल-फ्यूल के मार्ग पर चलना पड़ा, चूंकि मुख्य फॉसिल-फ्यूल अर्थव्यवस्थाओं अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया व कनाडा- ने असहजता व्यक्त की इसलिए संयुक्त रूप से कार्यक्रम को लागू करने जैसे विचारों ने जन्म लिया, जिनमें विकासशील देशों में क्लीन एनर्जी प्रोजेक्ट्स लागू करने के लिए देश क्रेडिट अर्जित करते हैं। अमेरिका क्लाइमेट समझौतों से वाक-आउट करने के बावजूद कांप्रâेंस में ‘पर्यवेक्षकों’ के तौर पर बड़े दल भेजता रहा और वार्ताओं में करीब से शामिल रहा। मोंट्रियल, कनाडा में २००५ में आयोजित कोप ११ में अमेरिकी दल ने वार्ता से वाक आउट किया इसके बावजूद कि अमेरिका उस समय क्योटो प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं था। अगर वर्तमान की बात करें तो अमेरिका में तेल व गैस उत्पादन को कम न करने के लिए द्विपक्षीय समर्थन है। बाइडेन प्रशासन के दौरान तेल व गैस का उत्पादन बढ़ा। अमेरिका विश्व में सबसे ज्यादा क्रूड आयल का उत्पादन करता है और २०२३ में उसने रिकॉर्ड उत्पादन किया। अमेरिका गैस का भी सबसे बड़ा उत्पादक है और २०२२ में वह लिक्विफाइड नेचरल गैस का संसार में सबसे बड़ा निर्यातक बना। ट्रंप अतिरिक्त वृद्धि करने के लिए समर्पित हैं। इस सबके बावजूद अमेरिका ग्रीनहाउस गैस एमिशन टारगेट करने के संदर्भ में बहुत पीछे है। एमिशन कम करने का जो २०३० तक का लक्ष्य रखा गया है, उसका अमेरिका ने २०२२ तक केवल एक-तिहाई ही हासिल किया था।
ड्रिल बेबी ड्रिल
सवाल यह है कि अमेरिका के पेरिस समझौते से अलग होने का क्या प्रभाव पड़ेगा? ध्यान रहे कि अमेरिका पेरिस समझौते से अलग हुआ है न कि यूएनएफसीसीसी से। अनेक समीक्षकों का कहना है कि २०१७ के बाद से रिन्यूएबल एनर्जी में निवेश बहुत अधिक बढ़ा है, जिसमें अमेरिका से निजी फाइनेंस भी शामिल है। कोयले पर निर्भर बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं- भारत, चीन व इंडोनेशिया के विपरीत अमेरिका कोयले पर कम निर्भर है। क्लाइमेट वार्ताओं में अमेरिका ने हमेशा से ही यूरोपीय संघ के कोयला-विरोधी दृष्टिकोण का समर्थन किया है। लेकिन ट्रंप का ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ नारा तेल व गैस की ड्रिलिंग को अधिक प्रोत्साहित करेगा, जिसे पिछली सरकारों ने मामूली तौर पर ही धीमा किया था। अमेरिका का पेरिस समझौते से अलग होने का अर्थ होगा कि विकासशील देश कम महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को ही प्राथमिकता देंगे। वैसे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि क्लाइमेट लक्ष्यों से ग्लोबल एमिशन को कम नहीं किया जा सका है, इसलिए इस समय अमेरिका के अलग होने से कुछ खास फर्क पड़ने नहीं जा रहा है।
अमेरिका को मुंहतोड़ जवाब जरूरी
तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि पेरिस समझौते में लगभग २०० पार्टियां हैं, जो औसत ग्लोबल तापमान २ डिग्री सेल्सियस से कम रखने की इच्छुक हैं और कोशिश यह कर रही हैं कि तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर यानी १.५ डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर दिया जाए। रईस देशों ने वादा किया है कि वह २०३५ तक प्रति वर्ष ३०० बिलियन डॉलर गरीब देशों को देंगे, ताकि वह तापमान को कम करने में सहयोग कर सकें। यह नया वादा तब हुआ है, जब रईस देश २०२० तक प्रतिवर्ष १०० बिलियन डॉलर देने का वादा दो वर्ष से पूरा न कर सके। चूंकि अमेरिका संसार की सबसे बड़ी औद्योगिक अर्थव्यवस्था है इसलिए ग्रीन फंड में उसे सबसे अधिक हिस्सा देना था, जो अब नहीं आयेगा। साथ ही ट्रंप के ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ कार्यक्रम से अमेरिका २०३० तक जितनी कार्बन डाईऑक्साइड गैस निकलता, अब उस समय तक उससे ४ बिलियन टन अधिक निकालेगा, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी ही। अमेरिका के इस रवैए से रईस देशों के प्रति अविश्वास में वृद्धि हुई है और संसार एकजुट होने की बजाय खेमों में विभाजित हुआ है। क्लाइमेट चेंज ग्लोबल समस्या है, जिसका समाधान एकजुट होकर ही निकाला जा सकता है। अमेरिका के जाने से अन्य देशों पर पेरिस समझौते को मजबूत करने का दबाव अवश्य बढ़ा है, लेकिन पृथ्वी व मानवता को बचाए रखने के लिए उन्हें अधिक जोश से पेरिस समझौते को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए, भले ही वर्तमान तनावपूर्ण और भविष्य खतरे से भरा प्रतीत हो रहा हो।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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