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बदमाश फौज का शरीफ पर दांव!…पाकिस्तान में आम चुनाव की नौटंकी

सुषमा गजापुरे

८ फरवरी, २०२४ को पाकिस्तान के चार प्रांतों बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा, पंजाब और सिंध में नेशनल असेंबली और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए बैलट पेपर से मतदान कराया गया। पूरा चुनाव प्रचार विवादों में घिरा रहा। जैसे कि अपेक्षा थी कई इलाके हिंसा की चपेट में आए और कई मासूमों ने अपनी जानें भी गंवाईं। पाकिस्तान में लगभग १३ करोड़ मतदाताओं ने इन चुनावों में मतदान किया। नेशनल असेंबली की ३३६ सीटों और प्रांतीय असेंबली की ७४९ सीटों के लिए मतदान हुआ। सभी दलों के लगभग १८,००० उम्मीदवार मैदान में हैं। चुनावों के परिणाम जल्द आने चाहिए थे, पर गिनती में कुछ गड़बड़ियों के संकेत हैं।
इन चुनावों में तीन प्रमुख दलों पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज, पाकिस्तान पीपल्स पार्टी तथा जेल में बंद इमरान खान की पीटीआई के बीच त्रिकोणीय मुकाबला था। इसके अलावा कुछ क्षेत्रीय दल भी हैं, जिनकी उपस्थिति कुछ खास इलाकों में है। इनमें अवामी नेशनल पार्टी (खैबर पख्तूनवा), मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट, जमाते इस्लामी, जमीयत उल उलेमा, और बलूचिस्तान अवामी पार्टी तथा कुछ अन्य शामिल हैं। पाकिस्तान के तीन प्रमुख दल भी एक प्रकार से राष्ट्रीय दल नहीं हैं क्योंकि उनका प्रभुत्व भी अपने-अपने प्रांतों में ही है। पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज पंजाब में प्रभुत्व रखती है और उनके मुखिया नवाज शरीफ के इस बार पाकिस्तान की बदमाश फौज के सहयोग से चुनाव जीतने की पूरी संभावना है। मतदान के बाद शुरुआती खबरों में इमरान की पीटीआई समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों को आगे बताया गया था। इसके बाद कई घंटों तक गिनती रुकी रही। अब आरोप लगाए जा रहे हैं कि पाकिस्तान की बदमाश फौज नवाज शरीफ को जिताने के लिए गिनती में हेरफेर कर चुनावी नौटंकी को पूरा कर रही है। खैर, जब आप यह आलेख पढ़ रहे होंगे तबतक संभवत: तस्वीर साफ हो चुकी होगी।
बिलावल भुट्टो की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी का प्रभुत्व सिंध प्रांत तक सीमित है, जबकि इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ सीमांत और खैबर पख्तूनवा में ज्यादा प्रभुत्व रखती है। पाकिस्तान इस समय कई ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है जो उनके सभी शासकों के कुप्रबंधनों के कारण है। इनमें कुछ हैं-
१. राजनैतिक अस्थिरता : २०२४ के आम चुनाव देश में राजनैतिक स्थिरता लाएंगे, इस बात की संभावना कम ही है। इस बार फौज नवाज शरीफ के साथ पूरी तरह खड़ी है। गहरे राजनैतिक संकट में डूबे पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगला आम चुनाव कौन जीतेगा? क्या पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ वापसी कर पाएंगे? क्या सेना से टकराव के बावजूद इमरान खान की पार्टी अपने जनसमर्थन के दम पर जीत हासिल कर सकती है? बिलावल भुट्टो भी एक कमजोर जमीन पर खड़े नजर आते हैं। परिणाम चाहे जो भी हो, पाकिस्तान के राजनैतिक इतिहास को देखते हुए हम यही कह सकते हैं कि देश की दिशा बदलने की संभावना बिलकुल भी नहीं है।
२. आर्थिक अस्थिरता : पाकिस्तान कमरतोड़ महंगाई से जूझ रहा है। रुपए का मूल्य तेजी से गिर गया है और इसका विदेशी भंडार अब बेहद निचले स्तर पर है, जिससे डिफॉल्ट की संभावना हर महीने बनी रहती है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था विदेशी ऋण पर निर्भर करती है। पिछले वर्ष की आंतरिक राजनीतिक अस्थिरता और बाढ़ की विभीषिका ने इसे और बदतर बना दिया है। आईएमएफ की मदद और मित्र देशों, विशेषकर सऊदी अरब, चीन और अन्य खाड़ी देशों से ऋण लेकर पाकिस्तान कुछ समय के लिए डिफॉल्ट से बचता रहा है। देश की अर्थव्यवस्था एक ऐसे कुचक्र में फंस चुकी है, जिससे बाहर निकलने में पाकिस्तान को कई दशक लगेंगे।
३. आतंकवाद : पाकिस्तान दक्षिण एशिया में आतंकवाद का जनक रहा है, पर आज वो उसी आग में सुलग रहा है। अलकायदा, तालिबान, हक्कानी नेटवर्क तथा अन्य कई छोटे-छोटे आतंकवादी गुटों ने पाकिस्तान में अपनी जमीन और पुख्ता कर ली है। भारत भी इस आतंकवाद से अछूता नहीं रहा है, पर बड़ा खतरा आज पाकिस्तान को उन्हीं के बनाए आतंकवादी गुटों से है।
४. पाकिस्तान में फौज का रोल : कुछ महीने पहले पाकिस्तान में नया सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया था। जनरल असीम मुनीर ने जनरल कमर जावेद बाजवा का स्थान लिया था, जिन्होंने छह साल के लिए पदभार संभाला था। पिछले साल सेनाप्रमुख की नियुक्ति काफी राजनीतिक विवाद का विषय थी। अब सभी की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि मुनीर के नेतृत्व में नागरिक-सैन्य संबंध कैसे आकार लेते हैं। बाजवा के नेतृत्व में, सेना ने पर्दे के पीछे से सभी प्रकार के प्रशासन और नीतियों पर अपना नियंत्रण कर लिया था। असीम मुनीर के पास अब देश को यह दिखाने का मौका है कि क्या वह अपने पूर्ववर्ती जनरल्स के नक्शे-कदम पर चलेंगे या पाकिस्तान में नागरिक-सैन्य संबंधों के लिए एक नया रास्ता तैयार करेंगे। पाकिस्तान का इतिहास पूर्व का संकेत देता है।
नवाज शरीफ का भारत पर रुख काफी नरम है, पर उसी के साथ पाकिस्तान का पुराना राग भी चलता रहता है। नवाज शरीफ ने अपनी पार्टी के घोषणापत्र में भारत को शांति का संदेश देने का वादा किया है लेकिन यह वादा इस शर्त पर है कि नई दिल्ली कश्मीर पर अपने अगस्त-२०१९ के फैसले (अनुच्छेद-३७० को रद्द करना) को वापस ले लेगी, जो असंभव है। नवाज शरीफ ने हाल ही में हिंदुस्थान की प्रगति और वैश्विक प्रगति को स्वीकार किया था। नवाज शरीफ के पास हिंदुस्थान के साथ मेलजोल बढ़ाने का एक पुराना रिकॉर्ड भी है। मोदी जी भी जब पाकिस्तान गए थे, तब नवाज शरीफ का ही शासन था। ये बात भी सही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन में नवाज शरीफ के प्रति नरम रुख है। संभावना इस बात की है कि हिंदुस्थान-पाकिस्तान के साथ कुछ व्यापार और पारंपरिक संबंधों को नवाज की वापसी के बाद फिर से शुरू कर सकता है। ये बड़ी टिकट वाली चीजें तो नहीं ही होंगी पर कुछ प्रकार की सामान्य स्थिति बहाल की जा सकती है। बिलावल भुट्टो या इमरान खान की वापसी के उपरांत सामान्य स्थिति की संभावनाएं बिलकुल न के बराबर हैं, पर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए हमें पाकिस्तान के चुनाव के फाइनल नतीजों की ओर देखना होगा।
(लेखिका प्रसिद्ध चिंतक, शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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