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सम-सामयिक : पाक से हथियार खरीद रहा बांग्लादेश …आखिर इसके मंसूबे क्या हैं…?

संजय श्रीवास्तव

उत्तर-पूर्वी राज्यों से जुड़े बांग्लादेश में शांति और स्थायित्व का सीधा असर भारत की सुरक्षा से जुड़ा है। बांग्लादेश की पाकिस्तान से हथियार, गोला-बारूद की खरीद और लड़ाकू विमान खरीदने की मंशा के साथ चीन-पाकिस्तान-बांग्लादेश की दुरभिसंधि भारत की विदेश नीति, कूटनीति के साथ रक्षा व सुरक्षा रणनीति के लिए भी चुनौती बन सकती है।
भारत को चुनौती
पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश ने पश्चिमी पाकिस्तान से ५२ साल बाद हथियारों की खरीद-फरोख्त का रिश्ता बनाया है। गोला-बारूद की खरीद-फरोख्त की। वहां के राजनीतिक टिप्पणीकार सलाह दे रहे हैं कि बांग्लादेश को पाकिस्तान से जेएफ-१७ युद्धक विमान के तीन स्क्वाड्रन जल्द खरीदना चाहिए। बहाना यह कि चीन की मदद से पाकिस्तान में बना यह लड़ाकू जेट नई पीढ़ी के अमेरिकी युद्धक विमानों की टक्कर का, प्रभावशाली और सस्ता है। इसमें उन्नत चीनी तकनीक, रडार और एवियोनिक्स शामिल हैं। पर असल बात यह कि उसे भारत को ताकत दिखाना है। विरोधी पाकिस्तान और चीन से नजदीकी जताना है। बांग्लादेश ने तख्तापलट के बाद और राजनीतिक अस्थिरता के बीच सैन्य सलाहकारों की राय पर पड़ोसी हिंदुस्थान को परे रखकर पाकिस्तान से इस तरह हथियारों की खरीद की है, विमानों के सौदे की मंशा जाहिर की है, रक्षा बजट को ११ फीसदी बढ़ाया है तो उसके सबसे नजदीकी पड़ोस में इसके निहितार्थों की बात तो अवश्य होगी। निस्संदेह यह बात चीन, पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल में नहीं भारत में ही होगी। खास तौर पर तब, जब भारत के साथ बांग्लादेश के रिश्तों में पहले जैसी समरसता न बची हो, बांग्लादेश में प्रश्रय प्राप्त या छिपे तौर पर रह रहे रोहिंग्या मुसलमान एकजुट होकर न सिर्फ म्यांमार में अपने उत्पीड़कों के विरुद्ध लामबंद हो रहे हों, बल्कि पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में अशांति पैâलाने वाले गुटों को भी मजबूत करने की बात खुलेआम कह रहे हों, जब दशकों बाद भारत को तीन मोर्चों-पश्चिम, उत्तर-पूर्व सहित उत्तर पूर्व में प्रतिकूल सैन्य स्थिति का सामना होने की आशंका हो, साथ ही कुछ अन्य मामलों में कुछ आसन्न विसंगतियां सामने दिख रही हों।
ऐसे में भले ही सत्ता संभाल रही बांग्लादेशी सेना महज इसलिए सैन्य खरीदारी कर रही हो कि उसके पास गोला-बारूद का टोटा हो गया हो, लेकिन वह जिस तरह की आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के बीच ऐसा कर रही है, सरकारी कोष को इस गाढ़े वक्त में बेदर्दी से इस मद में खर्च कर रही है, वह शोचनीय है। उसकी इस खरीदारी से क्षेत्रीय स्तर पर जो असंतुलनकारी भू-राजनीतिक समीकरण बनते हैं वह भी उल्लेखनीय है। पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश का त्रिगुट बनना एक दुरभिसंधि सरीखा है। कई दशकों से लेकर अभी हाल तक बांग्लादेश से हमारे संबंध अत्यंत मित्रतापूर्ण और भरोसे के रहे हैं। सीमा सुरक्षा और जल बंटवारे जैसे मुद्दों पर किंचित तनाव के अलावा बांग्लादेश से हमारे संबंध कभी इस कदर खराब नहीं हुए कि उनका उल्लेख विशेष हो। बांग्लादेश का वजूद भारत के सहयोग से आया ऐसी धारणा हमेशा बनी रही, जिसका हालिया दौर में वहां से खंडन आ रहा है। शेख मुजीब ने भारत-बांग्लादेश की दोस्ती को विदेश नीति की आधारशिला घोषित किया था, लेकिन भू-राजनीति में रिश्ते अप्रत्याशित तौर पर बदलते हैं। वहां भारत विरोधी हवा के बीच इस छोटे से हथियार खरीद को बड़ी गंभीरता से देखना होगा।
उल्टा चोर कोतवाल को…
आज हालात ये हैं कि बांग्लादेश में विगत के संबंधों और सहायताओं, परंपराओं को ताक पर रख कर भारत विरोध की मुहिम जारी है। कुछ गुटों द्वारा यह अफवाह पैâलाई जा रही है कि भारत बांग्लादेश में अशांति पैâलाने के लिए एक खास राजनीतिक दल और कुछ गुटों को फंड कर रहा है। इस तरह की दुर्भावनाओं और अफवाहों का असर यह है कि भारत की सही सलाह भी बांग्लादेश के सैन्य सरकार को हस्तक्षेप लग रही है। ममता अगर वहां की सैन्य शासन की सहमति से संयुक्त राष्ट्र से शांति सेना भेजने की बात करती हैं तो उसे गलत अर्थों में लिया जा रहा है अथवा भारत सरकार द्वारा हिंदू अल्पसंख्यकों के दमन के मुद्दे को भी जातीय मामले में दखल माना जा रहा है। एक बड़ा गुट कुछ अंदरूनी तो कुछ बाहरी ताकतों के बल पर भारत विरोध को हवा देने में लगा है। वह बांग्लादेश में भारत विरोध की बात तो कर ही रहा है, साथ में उसका मानना है कि बांग्लादेश को भारत के उन क्षेत्रों में खास तौर पर पूर्वोत्तर में जहां अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं, अतिवादी सक्रिय हैं वहां सक्रिय रूप से उनकी हर प्रकार से मदद करनी चाहिए, ताकि ये गुट लंबे समय तक भारत के खिलाफ लड़ सकें और उनकी लड़ाई कमजोर न पड़ने पाए। सभी तरह की मदद में क्या गोला-बारूद, असलहे भी शामिल हैं, जिसकी खरीद वह भारत की बजाय पाकिस्तान जैसे देश से कर रहा है। बेशक उनकी इस नीति से भारत के पूर्वोत्तर में जहां वैसे ही अशांति मुश्किल से काबू में है, उपद्रव की आग भड़क सकती है। सैन्य स्तर पर भी वह मोर्चा कमजोर होगा, जो चीन की चाहत है। सबको पता है कि दो सबसे बड़े रोहिंग्या आतंकवादी समूह-रोहिंग्या सॉलिडैरिटी ऑर्गनाइजेशन और अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के प्रशिक्षण शिविर बांग्लादेश में चल रहे हैं और वे पूर्वोत्तर के लिए भी खतरा बनेंगे। मुश्किलें तो वे बांग्लादेश के लिए भी पैदा करेंगे, मगर भारत विरोध के चक्कर में उसे कुछ सूझ नहीं रहा। बांग्लादेश में भारत विरोधी भावना और कुछ धड़ों की बांग्लादेश और भारत के बीच सभी समझौतों और संधियों पर पुनर्विचार की मांग स्वस्थ संकेत नहीं हैं। बेशक, दोनों देशों के बीच विश्वास का स्खलन हुआ है ऐसे में यदि अपने देश में भी यह प्रश्न उठने लगे हैं कि क्या बांग्लादेश में एक और मुक्ति अभियान का समय आ गया है? या फिर हिंदुओं की प्रताड़ना के बीच बांग्लादेश के विरुद्ध कठोर कदम उठाने की मांग की जा रही है तो बहुत अप्रत्याशित नहीं।
चीन और पाकिस्तान की साजिश
अपने मंसूबों में नाकाम रहने के बावजूद पाकिस्तान जम्मू एवं कश्मीर में आतंकवादी वारदात में जुटा रहता है। चीन भी भारत को सीमा पर उलझाए रखने के लिए सीमा विवाद की वार्ता को पिछले पांच साल से लटकाए हुए है। चीन और पाकिस्तान के मंसूबे हो सकते हैं कि बांग्लादेश में मौजूद भारत-विरोधी ताकतों को खड़ा कर देश की एक और सीमा असुरक्षित कर दिया जाए। हालांकि, यह बहुत आसान तो नहीं पर आंशिक तनाव भी कष्टकारी होगा। बांग्लादेश की सेना १४५ देशों में ३७ वें पायदान पर है। भले ही उसके पास कुछ अच्छे हथियार, चीनी टैंक, युद्धपोत मौजूद हों और खरीद के लिए हर साल तकरीबन चार बिलियन डॉलर अपनी सेना पर खर्च करता हो, जो दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बाद तीसरा सबसे बड़ा बजट हो पर यह सब भारत की सैन्य शक्ति के आगे तुच्छ है। ऐसे में एक बात तो तय है कि बांग्लादेश भारत से सीधे सैन्य भिड़ंत कभी नहीं करेगा, उसको हमारी ताकत का पूरा अहसास है। वह भारत से दस दिन भी मुश्किल से ही मुकाबला कर सकेगा। पर क्या हो कि भारत को तीन मोर्चों पर अटकाने के लिए चीन और पाकिस्तान जो सीमा विवादों के जरिए भारतीय पश्चिमी, उत्तरी और उत्तर-पूर्वी सीमा को सदैव संवेदनशील स्थिति में बनाए रखने के प्रयास में लगे रहते हैं परोक्ष तौर पर उसके साथ आ जाएं?
बेशक उसके बावजूद बांग्लादेश का मोहरा पिटेगा, लेकिन आधुनिक युद्ध में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अब परंपरागत युद्ध बीते जमाने की बात है। यूक्रेन-रूस युद्ध जब आरंभ हुआ था तब किसी ने भी उस युद्ध के दस दिन से ज्यादा खिंचने की कल्पना नहीं की थी। आज स्थितियां सबके सामने हैं। खैर यह अतिरेकी कल्पना है, भारत को तो बस हालात पर कड़ी नजर रखने की जरूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार हैं)

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