संजय श्रीवास्तव
अमेरिका आग से जूझ रहा है। जमीन से समुद्र तट की ओर बहने वाली सेंटा एना हवाएं जंगल की इस आग को और भड़का और बढ़ा रही हैं। यह आग तो बुझ जाएगी पर कई सुलगते सवाल अपने पीछे छोड़ जाएगी, क्या ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के नारे लगाने वाले इन प्रश्नों का यथोचित उत्तर दे पाएंगे?
अंतरिक्ष से देखा जा सकने वाला वैâलिफोर्निया का दावानल दस दिन से धधक रहा है। अमेरिका के जंगलों में पहले भी भीषण आग लगती रही है पर इस बार इसने जिस इलाके को चपेट में लिया है, वह इतना खास है कि अमेरिका को इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। व्यापक स्तर पर की जा रही अग्निशमन की कोशिशें देर-सवेर कामयाब होंगी और आग बुझेगी, रह जाएंगी तो बस राख हुई वनस्पतियां, उजड़े हुए मकान, पिघले एटीम, जली दीगर संपत्तियां, भस्मीभूत मवेशी, पालतू जानवर वगैरह। साथ ही इस कथित प्राकृतिक आपदा, उसके कारणों, सरकारी, प्रशासनिक प्रयासों तथा तकनीकि और संसाधनों वाली अमेरिकी
श्रेष्ठाता की विफलता से जुड़े तमाम सवाल लंबे अर्से तक अमरीकियों को परेशान करेंगे। सबसे बड़ा सवाल यह है कि अपनी तकनीकि दक्षता, तत्परता तथा संसाधनों की प्रचुरता की डींग हांकता अमेरिका हर ऐसे मौकों पर बुरी तरह विफल क्यों रहता है, जब इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है? वह चाहे वियतनाम और अफगानिस्तान जैसे सैन्य मामले हों, कोरोना से होने वाली मौतें हों अथवा वैâलिफोर्निया या दूसरे इलाकों के जंगलों में लगी भीषण आग। इस आग के बुझ जाने के बाद कोई गारंटी नहीं कि कहीं और ऐसी आग नहीं लगेगी। और यदि भविष्य में आग लग भी जाती है तो इस घटना से सबक सीखकर अमेरिका इतना सतर्क हो जाएगा कि वह आग इस कदर नहीं पैâलेगी, इतनी बड़ी बर्बादी नहीं होगी।
यहीं लॉस एंजिल्स के ग्रिफिथ पार्क में १९३३ में लगी आग ने वैâलिफोर्निया के करीब ८३ हजार एकड़ के इलाके को अपनी चपेट में ले लिया था, जिससे ३ लाख लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा था। यही नहीं इससे पहले वैâलिफोर्निया में पिछले ५० सालों में ७८ से ज्यादा बार आग लग चुकी है पर अमेरिका ने इससे कितना सबक लिया, उसकी क्या तैयारी थी? यह आज सबके सामने है। इस बार वैâलिफोर्निया में लगी आग की पिछले साल की आग से तुलना करें तो यह पांच गुना अधिक विकराल है। निकट भविष्य में अमेरिका ऐसी आग बुझाने के लिए पर्यावरण प्रिय तरीकों का इस्तेमाल करेगा। आग बुझाने के क्रम में और लगी हुई आग से होने वाले पर्यावरणीय नुकसानों की वह पर्याप्त भरपाई कम से कम समय में कर सकेगा। यह उम्मीद भी तब संदेह के घेरे में आती है, जब यह देखा जा रहा हो कि वह समुद्री पानी और गुलाबी रसायन से आग को बुझाने तथा नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है; जो घोषित तौर पर एक पर्यावरण विरोधी प्रयास है। अमेरिकी दावा कि वह उसकी तकनीक कुशलता सर्वश्रेष्ठ है। यह खामख्याली ही है, क्योंकि अमेरिका में इससे पहले भी कई बार जंगलों में आग लगने की घटनाएं हुई हैं और उसने पिछली बार से अधिक नुकसान उ’ाया है।
वैâसे लगी आग?
सवाल यह कि यदि धरती के महाशक्ति महाबली अमेरिका का इस मामले में यह हाल है तो पूर्वी ऑस्ट्रेलिया जैसे अग्नि प्रवण क्षेत्रों अथवा बाकी विकसित और भारत जैसे विकासशील देशों का हाल क्या होगा और क्या वे एक अगुआ के बतौर संसार के देश अमेरिका से सीख ले, भविष्य में इस जैसी परिस्थिति से निबटने के लिए पूरी तरह तैयार हो सकेंगे? बड़ी बात यह है कि तमाम तकनीक और विशेषज्ञों के साथ-साथ समुचित निगरानी व्यवस्थाओं के होते हुए भी अमेरिका अब तक तय नहीं कर पाया है कि आग लगी वैâसे? उसके पास इस बात का कोई साफ जवाब नहीं है। एक व्यक्ति को इस आरोप में गिरफ्तार किया गया कि उसने ही जंगल में आग लगाना शुरू किया। बताते हैं कि यह एक अवैध अश्वेत घुसपै’िया है। हालांकि, पुलिस मानती है कि उसके खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं है, जांच जारी है। एक कंपनी बता रही है कि उसके सेंसर जो बिजली आपूर्ति के दौरान पेड़ की शाखाओं के तारों को छूने या हवा के चलते तारों के टकराने से उड़ने वाली चिंगारी की वजह से हुई खराबी का पता देते हैं। बताते हैं कि पैलिसेड्स में आग लगने से कुछ ही घंटे पहले ६३ ऐसी खामियां थीं और पूरे इलाके में ३१७ मामले दिखे जो सामान्य से बहुत ज्यादा हैं।
सबब यह कि बिजली के शार्ट सर्किट के चलते यह आग लगी। स्थानीय अधिकारियों ने लॉस एंजिल्स में आग लगने के पीछे सूखे मौसम की तरफ इशारा किया तो यहां के लोग इसके लिए तेज हवाओं को दोष दे रहे हैं, जिसकी रफ्तार कई बार ८० से १०० मील प्रति घंटा तक पहुंच जाती है। उधर अमेरिकी सरकार के रिसर्च में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पश्चिमी अमेरिका में बड़े पैमाने पर जंगलों में लगी भीषण आग का संबंध ग्लोबल वॉर्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन से है। उधर दूसरे विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन सीधे दोषी नहीं, उसकी वजह से अमूमन अतिशय वर्षा भी होती है। असल बात यह कि जलवायु परिवर्तन हालात को बदल रहे हैं। इसकी वजह से आग लगी। आज भी अमेरिका इस समस्या और घटना के कारणों के प्रति स्पष्ट नहीं है तो स्थायी समाधान का क्या ही कहा जाए। विमानों से घरों और पहाड़ियों पर चमकीले गुलाबी रंग के अग्निरोधी रसायनों का छिड़काव किया जाना जो पानी की तरह तुरंत वाष्पित न होकर सतह पर बने रहकर आग लगने या जलने की प्रक्रिया को मंद कर देता है। इसमें अमोनियम पॉलीफास्फेट, कुछ दूसरे रसायनों के साथ उर्वरक मिला होता है। यह रसायन बाद में इंसानों और पर्यावरण पर बुरा असर डालेगा यह तय है। दूसरी तरफ आग बुझाने के लिए समुद्री खारे पानी का अतिशय इस्तेमाल सरल, सुलभ उपाय भले लगे, लेकिन यह कालांतर में जंगल की जमीन को इतना नमकीन बना देगा कि वहां की रोगाणुरोधी जमीन में फिर कुछ और उगना मुश्किल होगा।
भारत ले सबक
सबब यह कि अपने संसाधनों और उन्नतशील सुविचारित वैज्ञानिक उपायों का ढिंढोरा पीटने वाला अमेरिका पर्यावरण की गड़बड़ी से उपजे संकट को दूर करने के नाम पर हताशा में प्रकृति को ही नष्ट करने वाले अदूरदर्शी पैâसले ले रहा है। ऐसे में बाकी देश उससे क्या सीख ले सकते हैं? फिलहाल भारत में जहां तकरीबन ५५ फीसद जंगल आग की चपेट में आते रहते हैं। अमेरिका जैसे दावानल की कोई आशंका नहीं है, क्योंकि यहां शहर मैदानी इलाके में और अमूमन जंगलों से दूर बसे हुए हैं। पहाड़ों पर बसे शहर भी जंगल की आग की जद से किंचित सुरक्षित हैं, क्योंकि आसपास के जंगल तेजी से साफ हुए हैं। घने वन क्षेत्रों पर जिस तरह कॉरपोरेट की नजर है, एक न एक दिन उनमें से अधिकांश को साफ हो जाना है। पर यह तथ्य गौरतलब है, स्टेट ऑफ फॉरेस्ट की २०२१ में आई रिपोर्ट बताती है कि २०१३ और २०२१ के बीच देश में कुल वन क्षेत्र में बेहद मामूली वृद्धि हुई, जबकि इस दौरान जंगल की आग की घटनाओं में १८६ प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई। हर साल जंगलों के बड़े क्षेत्र अलग-अलग तीव्रता और सीमा की आग से प्रभावित होते ही हैं। देश के ३६ प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र में बार-बार जंगल की आग लगने की आशंका बनी रहती है, जिसमें से २८ फीसदी क्षेत्र महाविनाशकारी हो सकते हैं। महज दो साल पहले इसका प्रतिशत २५ ही था। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे बढ़े हैं। निस्संदेह हमको लांस एंजिल्स के दावानल से सबक लेते हुए आग का पता लगाने में रिमोट सेंसिंग को महत्व देने और अग्नि पूर्वानुमान प्रणाली विकसित की जानी चाहिए। यूं तो आग की रोकथाम पता लगाना राज्य की जिम्मेदारी है पर केंद्र को भी इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार हैं)