लोकमित्र गौतम
नजूल की जमीन से संबंधित उत्तर प्रदेश सरकार के बिल में आखिर ऐसा क्या था, जिससे कि जो बिल एक दिन पहले विधानसभा में पारित होता है, उसी बिल को अगले दिन विधान परिषद में पारित कराने की बजाय सरकार कुछ विधायकों की मांग पर प्रवर समिति को भेज देती है, दूसरे शब्दों में कहें तो ठंडे बस्ते में डाल देती है?
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने ३१ जुलाई २०२४ को नजूल संपत्ति से संबंधित जो बिल- नजूल संपत्ति (लोकप्रयोजनार्थ प्रबंध और उपयोग) बिल २०२४ विधानसभा में पेश किया था और जिसे भारी विरोध के बावजूद पास भी करवा लिया था, उसी बिल को आखिरकार अगले दिन यानी १ अगस्त २०२४ को जब विधान परिषद में लाया गया तो क्यों बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सहित कई विधान परिषद सदस्यों के विरोध पर इसे आनन-फानन में प्रवर समिति के पास भेज दिया गया? यह रहस्य काफी अटपटा लगता है। अगर योगी सरकार को अपने विधायकों के सुझाव दमदार लग रहे थे, तो फिर सरकार ने इन सुझावों को विधानसभा में बिल पास कराते समय क्यों नहीं सुना? क्योंकि इस बिल का विरोध तो तब भी बीजेपी के कई विधायक खुले तौर पर और ज्यादातर दबे छुपे स्तर पर कर रहे थे?
विधानसभा में तो योगी सरकार ने अपने विधायकों की कोई बात नहीं सुनी और संख्याबल के कारण बिल को अंतत: पास भी करा लिया। लेकिन रातोंरात ही आखिरकार मुख्यमंत्री का इस कदर हृदय परिवर्तन क्यों हुआ कि जिस बात को पहले वह जरा भी भाव नहीं दे रहे थे, अब उन्हें उन बातों में गहराई नजर आने लगी? दरअसल, हकीकत यह है कि योगी सरकार इस बात को भली-भांति जान रही थी कि सिर्फ विपक्षी विधायक ही नहीं और न ही अकेले राजा भईया जैसे दबंग विधायक ही इस बिल का विरोध कर रहे थे। सच्चाई यह थी कि शुरू से ही इस बिल का विरोध ९० फीसदी से ज्यादा विधायक कर रहे थे और इसकी बड़ी सीधी सी वजह है।
दरअसल, नजूल संपत्ति, जिसमें मुख्यत: जमीनें होती हैं, वह एक ऐसी संपत्ति है, जिसे इतिहास में अंग्रेजों ने विरोध करने वाली रियासतों से छीन लिया था और आजादी के बाद इन संपत्तियों यानी जमीनों को वापस हासिल करने के लिए ये रियासतें जरूरी दस्तावेज नहीं उपलब्ध करा पाईं, जिसके कारण आजादी के बाद भी ये जमीनें सरकार की संपत्ति ही रहीं। सरकार विभिन्न जनप्रतिनिधियों की सिफारिश पर ये जमीनें सामाजिक और सामुदायिक हितार्थ, ऐसी संस्थाओं, संगठनों और समुदायों को लीज पर देती है। लेकिन यह तो ऊपरी तौर पर और किताबी सिद्धांत है। हकीकत ये है कि ये सरकारी जमीनें वास्तव में विधायकों और दबंग नेताओं की कमाई का बहुत बड़ा जरिया हैं। चूंकि ये जमीनें विभिन्न समितियों, समुदायों और लोकप्रयोजन की संस्थाओं को ९९ साल की लीज पर बहुत मामूली लगभग न के बराबर किराए पर दी जाती हैं। इस वजह से हर राजनेता चाहता है कि उसके पास ऐसी संपत्तियां किराए पर देने की सिफारिशी ताकत बनी रहे।
क्योंकि वास्तव में यह तो कागजों में ही बहुत मामूली दर पर दी जाती हैं, हकीकत में तो इसके लिए अच्छा-खासा चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है। योगी सरकार इस पर प्रतिबंध लगाना चाहती थी और यह तय करना चाहती थी कि प्रदेश में जो भी नजूल संपत्ति है यानी सरकारी जमीन है, उस पर सिर्फ सरकारी अस्पताल, सरकारी स्कूल-कॉलेज और दूसरी लोकप्रयोजन की शासनिक-प्रशासनिक इमारतें ही बनें। अगर ऐसा हो जाता तो निश्चित रूप से इन सरकारी जमीनों पर बहुत जगह बनी झोपड़पट्टियों को भी उजाड़ा जाता, लेकिन ऐसी भी बहुत सी इमारतों को बेदखल कराना पड़ता, जिस पर सामाजिक उपयोग और हितों का भले ठप्पा लगा हो, लेकिन ये कुछ लोगों के हितों को ही पूरा करती हैं। ऐसे में न सिर्फ विभिन्न संस्थाओं, संगठनों और समुदायों के कब्जे वाली इमारतों को खाली कराना पड़ता, जो बहुत मशक्कतभरा काम होता। साथ ही विधायकों और स्थानीय दबंग राजनेताओं की वे दुकान भी बंद हो जाती, जो उनकी आर्थिक कमाई के साथ-साथ राजनीतिक प्रभाव जमाने के लिए बड़ा हथियार है।
योगी सरकार पहले भी यह विधेयक लाना चाहती थी, लेकिन अंदर से ही इसका काफी विरोध था। जिस कारण उसे इस साल मार्च में इसके लिए ऑर्डिनेंस लाना पड़ा था। लेकिन ऑर्डिनेंस को हमेशा तो नहीं बरकरार रखा जा सकता। अंतत: विधेयक पास करवाना ही था, लेकिन जब सचमुच में विधेयक आ गया तो न सिर्फ विरोधी बल्कि भाजपाई विधायक भी इस बात से काफी डर गए कि सरकारी जमीनों का प्राइवेट लोगों और संस्थाओं को लीज पर दिलवाने की जो उनकी सिफारिशी ताकत है, इस विधेयक के कानून बन जाने के बाद खत्म हो जाएगी तो उनकी कमाई के एक बहुत बड़े साधन पर ताला पड़ जाएगा। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में ४,००० से ज्यादा नजूल संपत्तियां हैं, जो अनेक प्राइवेट संस्थाओं और लोगों को नेताओं की सिफारिश पर मिली हुई हैं, जिन पर एक तरह से प्राइवेट कब्जा है। नि:संदेह कम से कम ६५ से ७० जगहों पर सरकारी जमीनों पर आम गरीब लोगों का भी कब्जा है, जहां वे झोपड़ियां बनाकर रह रहे हैं। खास तौर पर इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों की नजूल जमीन पर झोपड़पट्टियां मौजूद हैं।
लेकिन राजनेता कभी भी सिर्फ गरीब लोगों पर इतने मेहरबान नहीं होते कि अपनी ही सरकार का विरोध करके उनके आवास को सुनिश्चित कराएं। वास्तव में राजनेता सबसे ज्यादा अपने हितों को ही देखते हैं। वैसे अगर नजूल संपत्ति पर सिर्फ शिक्षा, अस्पताल, लोक कल्याण के सरकारी दफ्तर ही बनें तो सरकार के कामकाज में काफी तेजी आ सकती है और शिक्षा तथा स्वास्थ्य का भी मसला काफी हद तक बेहतर हो सकता है। लेकिन राजनेताओं को इस सबसे बहुत कुछ लेना-देना नहीं है। हां, इन जमीनों पर बहुत सारे धार्मिक स्थल भी निर्मित हैं और उनको हटाने पर काफी संवेदनशील स्थिति हो सकती है जैसे- हाल के दिनों में हम उत्तराखंड में देख चुके हैं, जब नजूल की जमीन पर बनी दो मस्जिदों को वहां से हटाने के नाम पर भारी बवाल हो गया था और पुलिस व एक समुदाय विशेष के बीच हुई झड़पों के चलते पांच लोगों ने अपनी जान गवां दी थी।
जब योगी सरकार नजूल संपत्तियों को सरकारी स्वामित्व के निर्माण के लिए नया विधेयक लाने की बात कही थी, तब इसी घटना को विशेष तौर पर केंद्र बनाया था और इससे यह संदेश भी गया था कि नजूल जमीनों पर एक विशेष अल्पसंख्यक समुदाय का काफी ज्यादा कब्जा है, जिसे यह कानून बनाकर छीना जा सकता है। लेकिन उस समय तो बहुत सारे राजनेता इसलिए चुप्पी साध गए कि इस सेंटीमेंट से उन्हें राजनीतिक फायदा हो सकता था, लेकिन अब जबकि सचमुच ही यह बिल कानून की शक्ल में जा रहा था तो उन्हें समझ में आया कि इससे किस तरह से उनकी कमाई पर असर पड़ेगा? इसलिए आनन- फानन में सत्ता पक्ष के विधायकों ने भी विपक्षियों के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश सरकार को बाध्य कर दिया कि वह विधानसभा में पास हुए विधेयक को भी वापस लेने पर मजबूर हो जाए, लेकिन सीधे वापस लेना संभव नहीं था और इससे मुख्यमंत्री योगी की पराजय भी दिखती, इसलिए यह रास्ता अपनाया गया है।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)