मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : बिहार में मध्यावधि चुनाव की सुगबुगाहट ...क्या शराबंदी मुद्दा होगा?

सम-सामयिक : बिहार में मध्यावधि चुनाव की सुगबुगाहट …क्या शराबंदी मुद्दा होगा?

शाहिद ए चौधरी

बिहार में इन दिनों कुछ ऐसी गतिविधियां हो रही हैं, जो महत्वपूर्ण राजनीतिक संकेत दे रही हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली का दौरा करते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात नहीं करते हैं। दिल्ली वह घूमने तो आए नहीं थे कि कुतुब मीनार की सैर की और लौट गए, जाहिर है कोई सियासी उद्देश्य होगा, किन्हीं प्रमुख व्यक्तियों से भेंट भी की होगी, जिसे गुप्त रखा गया है। बिहार लौटने पर जनता दल (यूनाइटेड) की बैठक बुलाई जाती है, जिसमें ललन सिंह, जोकि जद(यू) की तरफ से केंद्र में मंत्री हैं, की अनुपस्थिति चौंका देती है। बैठक में नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए २२५ सीटें जीतने का लक्ष्य रखते हैं, जबकि वर्तमान विधानसभा के कार्यकाल में अभी लगभग एक वर्ष का समय शेष है। क्या वह बिहार में मध्यावधि चुनाव का संकेत दे रहे हैं?
इस संदर्भ में कोई अंदाजा लगाने से पहले कुछ अन्य सियासी संकेतों को समझना भी आवश्यक है। ऐसी बातें सामने आ रही हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि ललन सिंह की अमित शाह के साथ नजदीकियां बढ़ती जा रही हैं। ललन सिंह ने लोकसभा में वक्फ विधेयक का समर्थन बीजेपी के सदस्यों से भी अधिक मुखर होकर किया था, जबकि जद (यू) इस विधेयक के विरोध में है। अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर व हरियाणा विधानसभा चुनावों में अपनी रैलियों में कई बार दोहराया कि संसद के अगले सत्र में वक्फ विधेयक को पारित कर दिया जाएगा, जोकि फिलहाल पुनर्विचार के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के पास है, तो क्या जद (यू) संसदीय दल में दो फाड़ की कोशिशें चल रही हैं? चिराग पासवान भी वक्फ विधेयक से असहमत व आरक्षण में वर्गीकरण को लेकर नाराज हैं और उन्हें हरदम यह डर सताए हुए है कि कहीं पिछली बार की तरह इस बार भी उनके सांसद उनसे छीन न लिए जाएं।
इस बीच एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम भी हुआ है। केंद्रीय काबिना ने चेन्नै मेट्रो रेल प्रोजेक्ट के फेज २ को मंजूरी दे दी है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने २७ सितंबर २०२४ को प्रधानमंत्री से मुलाकात की थी। इस मुलाकात के मात्र एक सप्ताह के भीतर केंद्र ने फेज २ के लिए अपने हिस्से के ७,४५५ करोड़ रुपए के फंड को क्लियर कर दिया, जिससे १२८ स्टेशनों वाली ११८.९ किमी की लाइन के निर्माण में आसानी हो जाएगी। केंद्र पिछले तीन वर्ष से अधिक समय से इस प्रोजेक्ट को रोके हुए था। फिर अचानक स्टालिन की मोदी से मुलाकात के तुरंत बाद प्रोजेक्ट को मंजूरी दिया जाना मात्र संयोग नहीं है। इसके जरिए बीजेपी ने एनडीए में अपने सहयोगी दलों को स्पष्ट स्ट्रेटेजिक संदेश भेजा है कि वह अपनी ‘निरंतर बढ़ती मांगों पर काबू रखें’ क्योंकि उसके पास समर्थन के अन्य विकल्प भी हैं।
केंद्र की मोदी सरकार फिलहाल नीतीश कुमार, एन चंद्रबाबू नायडू व चिराग पासवान की पार्टियों के समर्थन पर टिकी हुई है। इन तीनों ही पार्टियों की भरपाई स्टालिन की द्रमुक कर सकती है। फिलहाल, द्रमुक इंडिया गठबंधन का हिस्सा है, लेकिन सियासत में सब कुछ संभव है। दुश्मन कब दोस्त बन जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। ध्यान रहे कि चौधरी चरण सिंह को भारतरत्न दिया गया और जयंत चौधरी सपा का साथ छोड़कर एनडीए का हिस्सा बन गए थे। इंडिया गठबंधन को बनाने में नीतीश कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका थी, लेकिन जब लोकसभा चुनाव का निर्णायक समय आया तो वह पाला बदलकर एनडीए में शामिल हो गए। इसी तरह कौन यकीन कर सकता था कि अजीत पवार शरद पवार को धोखा देकर बीजेपी से हाथ मिला लेंगे। जिस तरह से महाराष्ट्र में शिवसेना में एकनाथ शिंदे से बगावत कराकर उसमें दो फाड़ कराए गए, उससे हर पार्टी में यह आशंंका तो रहती ही है कि उसमें तोड़फोड़ हो सकती है। वैसे भी बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है; पंजाब में सुखबीर सिंह बादल की अकाली दल, हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी, ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजू जनता दल या आंध्रप्रदेश में वाइएस जगन मोहन रेड्डी की वाइएसआर कांग्रेस पार्टी का हाल सबके सामने है।
बिहार में जद (यू) एक समय में सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी, लेकिन २०२० के विधानसभा चुनाव में वह मात्र ४३ सीट ही जीत सकी थी। कभी बीजेपी तो कभी राजद के समर्थन से इस दौरान नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के पद पर तो बने रहे, लेकिन अगर उन्होंने अपनी पार्टी को मजबूत न किया तो यह पद उनके हाथ से निकल भी सकता है। अत: अपनी पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए नीतीश कुमार भी बीजेपी को संकेत दे रहे हैं कि उनके सांसदों से कोई छेड़छाड़ न की जाए, उन्हें ही एनडीए की तरफ से मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया जाए, उन्हें लड़ने के लिए २४३ सीटों में से १०० से कम न दी जाएं और अगर ऐसा न हुआ तो उनके पास केंद्र में समर्थन वापस लेने व अन्य छोटी पार्टियों (चिराग पासवान सहित) को साथ लेकर तीसरा मोर्चा गठित करके मध्यावधि चुनाव कराने का विकल्प भी खुला हुआ है।
बहरहाल, बिहार में अगर मध्यावधि चुनाव होते हैं तो क्या शराबबंदी मुद्दा होगा? प्रशांत किशोर का कहना है कि पटना में सरकार बनाने के एक घंटे के भीतर उनकी पार्टी शराब पर से पाबंदी हटा देगी। किसी भी प्रमुख राजनीतिक दल ने नीतीश की शराबबंदी नीति का विरोध नहीं किया है, जबकि यह नीति बुरी तरह से फ्लॉप रही है, जैसे कि ऐसे प्रतिबंध अक्सर असफल रहते ही हैं। शराबबंदी से बिहार को अनचाहे परिणाम भुगतने पड़े हैं। सबसे पहली बात तो यह कि इससे राज्य में अवैध शराब का भयंकर धंधा पैâल गया है, जोकि पुलिस राजनैतिक नेताओं की सांठ-गांठ से चलता है। यह तो होना ही था, क्योंकि नीतीश कुमार ने देसी से लेकर हर प्रकार की शराब पर प्रतिबंध लगाया, नीति को ‘सरप्राइज’ के तौरपर घोषित किया और एकदम से उसे सख्ती से लागू किया। नतीजा? राज्य का पहले से ही कमजोर खजाना अतिरिक्त खाली हो गया। पड़ोसी राज्यों में शराब की मांग बढ़ गई- बंगाल व झारखंड का एक्साइज राजस्व कई गुना बढ़ गया।
दूसरा यह कि बिहार ने शराब पीने वाले अपने ही नागरिकों को रातभर में ‘अपराधी’ बना दिया। प्रतिबंध से शराब के सेवन में कमी नहीं आती है। जिस तरह पानी अपना रास्ता बना लेता है, वैसे ही जो पीना चाहते हैं वह शराब तलाश लेते हैं।
तीसरा, जैसा कि इस प्रकार के प्रतिबंधों से होता है, गतिविधि भूमिगत चली जाती है, अवैध फैक्ट्री बन जाती हैं- नया माफिया गठित हो जाता है। नकली शराब से मरने वालों की संख्या बढ़ने लगती है। चार, देसी शराब के बनाने व बिक्री में हाशिये पर पड़े समुदाय ही ज्यादा लगे हुए थे, उनकी जीविका के जरिये चले गए। जेलों में लोगों की संख्या बढ़ गई और अदालतों पर बोझ बढ़ गया। पहली बार के ‘अपराधियों’ के लिए कानून लचीला किया गया, लेकिन कुल मिलाकर नीति फ्लॉप रही। चूंकि नीतीश कुमार चुनाव पर चुनाव जीत रहे थे, इसलिए शराबबंदी के शुरुआती आलोचक भी खामोश हो गए, विशेषकर महिलाओं के रूप में नए वोट बैंक के उभरने से। लालू प्रसाद यादव व जितेन मांझी ने शराबबंदी नीति को फ्लॉप अवश्य कहा, लेकिन २०१६ के बाद, जब इस कानून का गठन हुआ था, किसी सियासी दल ने शराबबंदी को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया। अगर प्रशांत किशोर के समर्थन में लोग आ जाते हैं, तो आश्चर्य न होगा कि नीतीश कुमार स्वयं इस नीति पर यू-टर्न कर लें। महिलाएं भी तो बदलाव चाह रही हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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