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सम-सामयिक : बाल दिवस पर विशेष : मासूम बच्चों के लिए लापतागंज बनती डिजिटल दुनिया…!!

वीना गौतम

एक तरफ तो आज की डिजिटल दुनिया आधुनिक संचार माध्यमों और तीव्र परिवहन साधनों की बदौलत ग्लोबल विलेज में तब्दील हो गई है। दूसरी तरफ इसी वन क्लिक दुनिया में भारत से हर दिन हजारों की संख्या में बच्चे लापता हो रहे हैं। जी हां, यह कोई मजाक नहीं है। एक ऐसे दौर में जब हर कहीं आसानी से पलक झपकते सूचना पहुंच जाती हो, जब हर कहीं वैâमरे की पहुंच हो गई हो, ऐसे दौर में आखिर हर साल देशभर से लगभग ८०,००० से ज्यादा बच्चों के गायब होने का क्या मतलब है? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े एक साल बाद जारी होते हैं इसलिए इस समय दिसंबर २०२३ में जारी आंकड़े ही हमारे पास हैं, जो बताते हैं कि साल २०२२ में ८३,३५० बच्चे गायब हुए, जिनमें २०,३८० लड़के, ६२,९४६ लड़कियां और २४ ट्रांसजेंडर थे। इनमें से २०,२५४ लड़के, ६०,२८१ लड़कियां और २६ ट्रांसजेंडर को तो तलाश लिया गया। लेकिन २,७८१ बच्चे हमेशा हमेशा के लिए आंखों से ओझल हो गए, जबकि इसके पहले एनसीआरबी ने जो डाटा २०२२ में पेश किया था, उसमें लापता हुए बच्चों की संख्या ७६,०६९ थी। मतलब साफ है कि अगले एक साल में लापता हुए बच्चों की संख्या में तकरीबन ६,००० की बढ़ोतरी हो गई, जबकि २०२१ में इसी श्रेणी के तहत गायब होने वाले बच्चों की संख्या सिर्फ ३३,६५० और उससे पहले साल में २९,२४३ था। इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि न सिर्फ लगातार बच्चे गायब हो रहे हैं बल्कि गायब होने की उनकी संख्या में भी भारी बढ़ोतरी हो रही है।
सवाल है एक तरफ जहां बच्चों की सुरक्षा के लिए हर साल नई से नई बातें कही जाती हैं, कसमें खाई जाती हैं और आधुनिक से आधुनिक उपकरण लगाकार सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद किया जाता है। फिर भी मासूम बच्चों के गायब होने के सिलसिले में जरा भी कमी आने की बजाय उल्टे बढ़ोतरी क्यों रही है? अगर इस मामले में हम एनसीआरबी के आंकड़ों की जगह उन गैरसरकारी संस्थाओं की बातों पर यकीन करें, जो बच्चों के लापता होने की समस्या पर काम करती हैं, तो उसके मुताबिक तो बच्चों के गायब होने की वास्तविक संख्या इससे भी कहीं ज्यादा है। इनके मुताबिक तो हर साल ८०-८५ हजार नहीं बल्कि कई लाख बच्चे गायब हो रहे हैं। यही वजह है कि आज देश में हर एक मिनट में कम से कम दो बच्चे गायब हो रहे हैं। घर से बिछुड़कर आखिर ये मासूम कहां चले जाते हैं? क्योंकि जो बच्चे अगले एक महीने तक नहीं मिलते, घरों से गायब होने वाले ऐसे बच्चों के घर वापस न आने की आशंका करीब सौ फीसदी हो जाती है। मतलब यह कि गायब होने वाले बच्चे अगर शुरुआत के एक महीने में मिल गए तो मिल गए, वरना किस्मत के बहुत धनी मां-बाप के बच्चे ही एक बार, एक महीने तक गायब रहने के बाद वापस लौट पाते हैं।
जो बच्चे गायब होने के बाद मिल जाते हैं, उनके बारे में तो हम थोड़ा- बहुत जानते भी होते हैं कि इन्हें कौन और वैâसे बहला-फुसलाकर ले गया होता है। लेकिन जो बच्चे कभी गायब होने के बाद से लौटकर आए ही नहीं, उनके बारे में मां-बाप कुछ भी नहीं जानते। संचार के इतने ज्यादा साधनों के होने बावजूद करीब एक से डेढ़ फीसदी बच्चे गायब होने के बाद कभी भी लौटकर वापस नहीं आते। हालांकि अपराधियों की धर-पकड़ में हाल के सालों में इजाफा हुआ है। पुलिस के पास आज पहले के मुकाबले जांच-पड़ताल के लिए बेहतर और व्यापक संसाधन हैं, इसके बाद भी गायब होने वाले बच्चों की एक निश्चित संख्या वापस लौटकर घर नहीं आती, तो आखिर उनका होता क्या है? बहुत खोजे जाने के बाद भी उनका कोई सुराग क्यों नहीं मिलता?
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ऑफ इंडिया के डाटा विश्लेषण के मुताबिक हर दिन हजारों की संख्या में गायब होने वाले बच्चों में से बहुत मामूली संख्या में ही बच्चे लौटकर आ पाते हैं। सैकड़ों बच्चों की तो रिपोर्ट ही नहीं लिखी जाती, उनके मां-बाप के द्वारा कोशिश किए जाने के बाद भी पुलिस उन्हें डांट डपटकर थाने से भगा देती है। इससे पता चलता है कि गायब होने और न मिलने वाले बच्चों की संख्या इन आंकड़ों से हर हाल में ज्यादा होगी। जब राष्ट्रीय राजधानी से जुड़े नोएडा में निठारी जैसा बच्चों के विरुद्ध वीभत्स कांड हुआ था, उस समय भी जांच-पड़ताल से पता चला था कि जिन बच्चों को निठारी कांड में क्रूरता की बलि चढ़ा दिया गया था, उनके मां-बाप ने पुलिस से उनके लापता होने की शिकायतें की थीं, लेकिन पुलिस ने उन शिकायतों पर कोई ध्यान ही नहीं दिया।
वास्तव में जो बच्चे कभी भी वापस घर नहीं आ पाते, वो बेहद खूंखार किस्म के आपराधियों के चंगुल में फंस जाते हैं। गायब होने वाली लड़कियों के साथ अकसर रेप जैसी घिनौनी वारदातें होती हैं और इसका विरोध करने पर ज्यादातर को मार दिया जाता है। अगर इंटरनेशनल क्राइम पर नजर रखने वाले पत्रकारों की रिपोर्टें देखें तो साफ पता चलता है कि ऐसे सैकड़ों बच्चों के अंगों की तस्करी होती है। बड़ी ही सफाई से कई सफेदपोश संगठन इन बच्चों के अंगों को चुपचाप निकाल लेते हैं या इनके जानते, समझते हुए भी ऐसा कर लिया जाता है। क्योंकि इस उम्र में बच्चे शरीर के कई कम अंगों के साथ भी जी लेते हैं।
बच्चे आतंकवाद का भी सबसे मुलायम और आसान चारा बन जाते हैं। कुछ साल पहले आई यूएनओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक एशिया, अप्रâीका और लैटिन अमरीका के तमाम सत्ता विरोधी सशस्त्र संगठनों ने बच्चों को अपने संघर्षों में हिस्सेदार बना दिया है। यही कारण है कि आज की इस शातिर दुनिया में बच्चों की मासूमियत के लिए कोई जगह नहीं बची। शायद इसी का नतीजा है कि बच्चों के खोने की आपराधिक घटनाओं में तमाम सरकारी, गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद किसी भी तरह की कोई कमी नहीं आ रही बल्कि हर गुजरते दिन, महीने, साल में खोने वालों बच्चों की तादाद बढ़ रही है। अगर दुनिया को अपने नौनिहालों से जरा भी प्रेम है, तो वक्त आ गया है कि लोग घरों से निकलकर सड़क पर आएं और गायब हो रहे बच्चों की खोज खबर लें वर्ना लापतागंज बनते हमारे शहर बच्चों के लिए बेहद खौफनाक बन जाएंगे।

(लेखिका विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में कार्यकारी संपादक हैं)

 

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