त्रेता युग में स्वयंभू मनु के पौत्र
प्रख्यात भारत ने बसाया भारतवर्ष
जिसमें पैदा हो गया रावण
और छोड़कर मरा असंख्य रावण
इस धरती पर।
अब वे भारतवर्ष को भारत बना दिए
और खड़ी कर दिए फौज रावणों की।
हर जगह रावणों को देख
अधीर ही नहीं हैरान हैं राम।
दुखी हैं लक्ष्मण चिंतित हैं वशिष्ठ।
किंकर्तव्यविमूढ़ हैं विश्वामित्र।
फस गए हैं दुश्चक्र में
क्या करें क्या न करें।
और कह रहे हैं लड़ाई जारी है
क्योंकि यह बहुत बड़ी बीमारी है।
हर साल दशहरा मनाते हैं
रावण जलाते हैं फिर पता नहीं
कहां से नए-नए रावण आ जाते हैं।
आदर्श को खाते हैं उछलते हैं
कूदते हैं जश्न मनाते हैं
कभी-कभी तो वे अत्याचार के शिखर पर
चढ़ जाते हैं जुल्म बरसाते हैं।।
-अन्वेषी
मैं पुतला रावण का
सज रहा हर साल की भांति,
हो गया तैयार फिर से जलने के लिए।
मानव है चालाक बहुत,
है जानता वो भी बेहतर है कि
मैं रहता उसके मानस में हूं !
अंत न हो पाया मेरा कभी
चालों से उसकी बखूबी मैं वाकिफ हूं,
खतरनाक तो फितरत है उसकी,
मुझ से भी है भयावह वो,
धोखा देता जो अपनों को ही,
ठगता रचकर नित रूप नए,
भाइयों से ही करता प्रपंच है
जो मैंने कभी किया नहीं !
हां..मर्यादा से था बंधा हुआ,
मार्ग मेरा बेशक गलत था,
किंतु दिया नहीं धोखा मैंने,
अपने बंधु बांधव को कभी!
हिरासत में मेरी रही जो परस्त्री,
किया बाल ना बांका उसका कभी,
किंतु मानव आज का हुआ चरित्रहीन,
नजरें बुरी वो रखता और
शील भंग के किस्सों से वो
मशहूर हुआ जा रहा आज खूब है!
और जलाकर पुतला मेरे नाम का
ताली खूब बजा रहा है!
माना मेरा था मार्ग अधर्म का,
किंतु इतिहास में वीर वहीं कहलाते हैं,
रन में दर्ज कराएं
जो अपनी विजय की!
संधि मैं भी कर सकता था,
किंतु निज देश की रक्षा में मैंने,
कुर्बान अपना सर्वस्व कर दिया,
परंतु मानव हुआ खुदगर्ज आज का,
चंद सिक्कों की खातिर
दलाली राष्ट्र की खूब वो करता है !
धूर्त मानव तभी तो पुतला मेरा,
सहर्ष हर साल जलाता है !
भक्त था, न होगा मुझ सा,
अहंकार यही था मुझ में,
रचियता था ग्रंथ अनेकों का,
मालिक शिव अपने से
वफादारी निभाने की चाहत
बेहद मैं रखता था,
कठिन कैलाश के जीवन को देख
पीड़ित मैं खुद होता था
भक्ति सेवा में होकर लीन शिव को
सुख लंका में देना चाहता था,
किंतु मानव आज का बनाता रिश्ते
सोच कर यही कि जाने कब किस से
कैसे क्या और कहा पड़ जाए काम कभी
वफादारी की खाकर कसमें झूठी
दग़ा अपनों को देता है और
पुतला फिर वो हर साल
मूर्ख मेरा ही जलाता है !
मैं रावण बसता मानव मन में,
मार सका ना वो मुझ को कभी,
तभी तो बनता रहता पुतला हर बार,
सदियों से जलाया जा रहा हूं मैं..!
-मुनीष भाटिया
कुरुक्षेत्र