क्षणभंगुर सा जीवन मानव का,
हर दिन एक नया सपना बुनता,
अपनों की खातिर जो शहर बसाए,
मिट्टी में मिलने का डर सताये।
जीना है या जाना कब है,
इस रहस्य से अनजान सब हैं।
मिथ्या अभिमान का मोल न समझा,
ये तेरा वो मेरा, सब कुछ बस सपना,
जहां भर का संग्रह करता इंसान,
पर अंत में सब छूटे, यही सत्य पहचान।
जीना है या जाना कब है,
सांसों में ये सवाल गहरे सब हैं।
रिश्तों का मायाजाल खुद ही बुनता,
हर पल बेख़बर, गंवाए जीवन,
आशाओं में उलझा, हकीकत से दूर,
जमीं पर घर भूल, बना रहा नूर।
जीना है या जाना कब है,
इस गूंज का जवाब कहां है?
-मुनीष भाटिया
मोहाली