प्रधानमंत्री मोदी इस समय अपने सरकारी लाव-लश्कर के साथ महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं। सच तो यह है कि प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति को चुनाव प्रचार में ज्यादा शामिल नहीं होना चाहिए। प्रधानमंत्री किसी पार्टी के नहीं होते। विधानसभा, महानगरपालिका, जिला परिषद चुनावों के प्रचार में हाल के वक्त हमारे प्रधानमंत्री बार-बार दिखाई देते हैं। इसकी वजह से पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मनमोहन सिंह, नरसिम्हा राव जैसे नेताओं ने प्रधानमंत्री पद की जो गरिमा बढ़ाई थी, वह काफी नीचे आ गई है। फिर, ऐसे प्रचार सभाओं में प्रधानमंत्री द्वारा दिए जाने वाले भाषणों को लेकर भी कुछ निर्दिष्ट मानक हैं। परंपरा है कि प्रधानमंत्री को संयमित होकर बोलना चाहिए, लेकिन भाजपा के प्रधानमंत्री मोदी ने पद की गरिमा गिरा दी है। वह राज्य चुनाव में ‘बंटेंगे तो कटेंगे’, ‘एक हैं तो सेफ हैं’, ‘देशद्रोही’ आदि विषय लेकर आए हैं। ‘कुछ देशद्रोही तत्व अपने स्वार्थ के लिए समाज को बांटने का प्रयास कर रहे हैं। लोगों को उन्हें हराना चाहिए’ ऐसा श्री मोदी ने सार्वजनिक रूप से कहा। उनके श्रीमुख से इस तरह के सुवचन बिखरते देख बड़ा आश्चर्य होता है। बीच-बीच में वे हिंदू धर्म का शिगूफा छोड़ते हैं। जल्द ही उनकी प्रचार सभा में ट्रंप, यूक्रेन युद्ध का भी प्रवेश हो जाएगा। कश्मीर, धारा ३७० का कांग्रेस ने वैâसे इसका विरोध किया, इस पर प्रधानमंत्री के भाषण चल रहे हैं। चिमूर की सभा में भीड़ में भगवा रंग देखकर उन्होंने भीड़ का ‘भगवा भीड़’ के तौर पर एलान कर दिया। भाजपा के कुछ लोगों ने कहा है कि महाराष्ट्र चुनाव एक ‘धार्मिक युद्ध’ है और प्रधानमंत्री मोदी भी चुनावी धर्मध्वजा के साथ प्रचार में उतर गए हैं। महाराष्ट्र में कुछ इस तरह की तस्वीर दिखाई दे रही है, मोदी मानो होश गंवाकर बोलते हैं और उनके भक्त तालियां बजाकर लफ्फाजी का हौसला बढ़ाते हैं। प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार, देशद्रोह आदि का मुद्दा उठाया, लेकिन मोदी को यह खुलासा क्यों नहीं करना चाहिए कि ये भ्रष्ट और देशद्रोही कौन हैं? अन्य दलों के सभी भ्रष्टाचारी ईडी, सीबीआई के आरोपी, मनी लॉन्ड्रर भाजपा में शामिल हो गए हैं। इकबाल मिर्ची, दाऊद इब्राहिम के साथ वित्तीय लेन-देन करने वालों को श्रीमान मोदी और उनकी महान पार्टी ने अपने पंखों तले कर लिया है। उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए संविधान, कानून, अदालतों को मनमर्जी से तोड़ा। एक व्यापारी की तरह देश चलाते हुए मोदी ने सारी सार्वजनिक संपत्ति अपने एक ही उद्योगपति मित्र के हवाले कर दी। क्या ये देशभक्ति की निशानी है? सत्ताधारी दल और उसके नेताओं को ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का शोर मचाना शोभा नहीं देता। अगर मोदी यह मानते हुए काम कर रहे हैं कि वे एक ही राज्य और एक ही धर्म के प्रधानमंत्री हैं तो यह ठीक नहीं है। उन्होंने महाराष्ट्र जैसे एक समय के मजबूत राज्य को कमजोर कर दिया और कमजोर रीढ़ के लोगों को सत्ता सौंप दी। यह एक तरह से महाराष्ट्र के साथ विश्वासघात है। मोदी का ध्यान धार्मिक ध्रुवीकरण के जरिए चुनाव जीतने पर है और इसके लिए वह ‘बंटेंगे तो कटेंगे’, ‘एक हैं तो सेफ हैं’ का नारा देते हैं। जब प्रधानमंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति अपना संयम और होश खो बैठता है तो वह मोदी बन जाता है और ऐसे मोदी को पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह के प्रति ईर्ष्या होने लगती है। मोदी को मनमोहन सिंह के चुनाव प्रचार भाषणों का अध्ययन करना चाहिए। पंडित नेहरू आदि तो उनकी कल्पना से परे हैं। जिस तरह से मोदी चुनाव प्रचार में भाषण दे रहे हैं, उससे यह माना जाने लगा है कि अब खरे लोगों की दुनिया नहीं रही। अगर समाज को बांटने की भाषा प्रधानमंत्री की ओर से आ रही है तो क्या भारत का चुनाव आयोग वहां बैठकर चुरूट फूंकते हुए धुआं उड़ा रहा है? महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में धारा ३७० का मुद्दा लाने का कोई औचित्य नहीं है। धारा ३७० अब उस राज्य का विषय है। अनुच्छेद ३७० हटाते समय शिवसेना ने तो संसद में कोई विरोध नहीं किया। फिर भी मोदी महाराष्ट्र में धारा ३७० का बुलबुलतरंग बजा रहे हैं। क्योंकि उनके पास विकास संबंधी मुद्दे नहीं हैं। महाराष्ट्र में रोजगार की समस्या पैदा हुई है वह मोदी की नीतियों के चलते। मोदी ने महाराष्ट्र के कई बड़े उद्योगों को गुजरात ले जाकर महाराष्ट्र के युवाओं के पेट पर लात मारी है। अनुच्छेद ३७०, ‘बंटेंगे, कटेंगे’ के बजाय हमारे उद्योग गुजरात क्यों ले गए? हमारे बच्चों को बेरोजगार क्यों रखा? इन सवालों का जवाब मोदी को महाराष्ट्र को देना चाहिए, लेकिन मोदी अलग ही विषयों पर बात कर रहे हैं। इसे ही छल कपट कहते हैं!