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संपादकीय : चाटुकारिता करो, निधि लो!

अर्थनीति में राजनीति न लाएं, ऐसी एक सामान्य समझ होती है। देश में और महाराष्ट्र में पूर्ववर्ती सुसंस्कृत शासकों ने इस समझ का सख्ती से पालन किया और राजनीति के पोखर की छींटें अर्थनीति पर नहीं उड़ें, इसका सदैव ध्यान रखा। लेकिन पिछले कुछ समय से लगातार बढ़ रही विकृत व असभ्य राजनीति ने वित्तीय विषयों में भी जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप करने के निकृष्ट धंधे शुरू कर रखे हैं। केंद्रीय बजट से भी इसका अनुभव पूरे देश को हुआ। देश के आज तक का सबसे पक्षपाती बजट के तौर पर इस बजट की आलोचनाएं होते वक्त ही महाराष्ट्र में भी चीनी मिलों के कर्ज को लेकर सरकार ने ऐसा ही पक्षपाती रवैया अपनाया। जो चीनी मिलें सरकार के खूंटे से बंधी हुई हैं, केवल उन्हीं के लिए करोड़ों रुपयों के कर्ज मंजूर किए गए और जिन मिलों के अध्यक्ष व संचालक मंडल ने सत्तारूढ़ पक्ष के जूते चाटने से इंकार कर दिया, उन चीनी मिलों के कर्ज प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया। जो मिलें ज्यादा ‘चाटुकारिता’ करेंगी, उन्हें ज्यादा कर्ज मिलेगा, कुछ इस तरह की ही यह योजना नजर आ रही है। लोकसभा चुनाव से पहले महाराष्ट्र में ‘दो फुल, एक हाफ’ सरकार ने एक साथ १३ सहकारी चीनी मिलों के कर्ज प्रस्ताव को मंजूर करके एनसीडीसी अर्थात राष्ट्रीय सहकारी विकास महामंडल के पास भेजा था। हालांकि, लोकसभा चुनाव में सरकारी खेमे को मदद करनेवाली ११ चीनी मिलों के ही करोड़ों रुपयों के कर्ज प्रस्ताव को अब मंजूर किया गया है। इसके विपरीत विरोधियों की दो चीनी मिलों द्वारा लोकसभा चुनाव में अपेक्षित मदद न मिलने से उनके प्रस्तावों में मीन-मेख निकालकर उनका कर्ज नामंजूर कर दिया गया। कर्ज जैसे वित्तीय विषयों में ऐसी मनमानी और भेदभाव पूर्ण अन्याय करना यह मुगलई ही है। बारामती लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस के विधायक संग्राम थोपटे ने सरकारी खेमे को मदद नहीं की, इसलिए थोपटे की राजगड सहकारी चीनी मिल की ८० करोड़ रुपए की बकाया गारंटी का प्रस्ताव रद्द कर दिया गया। नगर जिले में कोल्हे व विखे के बीच राजनीतिक संघर्ष कोई नया नहीं है। लेकिन इस विवाद में भाजपा के युवा नेता विवेक कोल्हे को भी कर्ज में लटका दिया गया। कोल्हे ने भाजपा प्रत्याशी सुजय विखे को लोकसभा चुनाव में मदद नहीं की थी, इसलिए उनकी मिल के १२५ करोड़ के कर्ज प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया गया। इसके विपरीत अभिजीत पाटील के विट्ठल सहकारी मिल के ३४७ करोड़ रुपए के कर्ज को मंजूर किया गया। अभिजीत पाटील शरद पवार के राष्ट्रवादी कांग्रेस से होने के बावजूद उन्होंने ऐन वक्त पर सोलापुर में भाजपा को समर्थन दिया था इसलिए उन्हें करोड़ों के कर्ज का तोहफा मिला। भाजपा विधायक अभिमन्यु पवार के किल्लारी मिल को २२ करोड़, श्रीरामपुर के अशोक मिल को ९० करोड़ का कर्ज दिया गया। घातियों द्वारा प्रत्याशियों की मदद करने की वजह से सांगली की क्रांतिवीर मिल को १४८ करोड़ रुपए की कर्ज गारंटी दी गई। हाल ही में हुए विधान परिषद चुनाव में शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के विधायक मानसिंह नाईक ने अजीत पवार के प्रत्याशी को वोट किया था, ऐसा कहा जा रहा है। उसके इनाम स्वरूप नाईक की चीनी मिल को ६५ करोड़ रुपए का कर्ज दिया गया। जो शरण में आएगा उसे खोखे, ऐसी ही यह नीति है। ‘जो पहरेदारी करेगा, वो फायदा भी उठाएगा’ ऐसी एक कहावत है। हालांकि, जमीनी जुड़ाव छोड़ चुके मौजूदा सत्ताधारियों के लिए ‘जो सरकार की चाटुकारिता करेगा, केवल वही निधि का लाभ चखेगा’, इस तरह की नई कहावत ही प्रचलित हो गई है। विधायकों की विकास निधि में, केंद्रीय बजट में और अब चीनी मिलों के कर्ज वितरण में भी ‘चाटुकारों’ का ही बोलबाला है। सहकारी चीनी मिलें भले ही राजनीति के अड्डे हों, तब भी उनके राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों के वित्तीय विकास में योगदान से कोई इंकार नहीं कर सकता। इसलिए जब मिलें सक्षम होती हैं तो उन मिल क्षेत्रों के सदस्य, किसान भी आर्थिक दृष्टि से सक्षम व संपन्न होते हैं और चीनी मिलें जब बर्बाद होने के कगार पर पहुंचती हैं तो उस क्षेत्र के गन्ना उत्पादक किसान भी बेजार हो जाते हैं। इसलिए आर्थिक अड़चनों में फंसी चीनी मिलों को आधार देने के लिए बकाया गारंटी अथवा मार्जिन लोन देते समय कौन-सी मिल सत्तारूढ़ नेताओं की है और कौन-सी मिल विरोधी नेताओं की, यह देखकर यदि केवल अपने खेमे को ही कर्ज दिया जाएगा तो कर्ज लाभ से वंचित मिलों के गन्ना किसानों के साथ यह अन्याय होगा। राज्य की सहकारी चीनी मिलों के कर्ज मसलों में सरकार द्वारा अपनाई गई यह अन्यायपूर्ण नीति मतलब सत्ता का सीधा-सीधा दुरुपयोग है। जो चीनी मिलें सरकार की चाटुकार होंगी, उन पर सैकड़ों करोड़ कर्ज उड़ाना और विरोधियों की मिलों के कर्ज प्रस्ताव सीधे कचरे की टोकरी में डालना, ये राजनीति की विकृति ही है। अर्थनीति में राजनीति को घुसेड़ा नहीं जाना चाहिए। हालांकि, हर मामले में चौबीसों घंटे कोरी राजनीतिक गंदगी पैâलाने वाले निर्लज्जों को यह कहने का क्या लाभ?

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