भारत के चुनाव आयोग का पूरी तरह से सत्यानाश कर ‘आयुक्त’ राजीव कुमार उम्र के चलते रिटायर हो गए। टी एन शेषन ने जिस चुनाव आयोग को ‘बाघ’ बनाया था, वह इस दौरान बाघ से पालतू बिल्ली बना दिखता है। भाजपा ने कई चुनावों में चुनाव आयोग से हाथ मिलाकर अपना हुनर दिखाया है। राजीव कुमार के कार्यकाल में दलबदल और दल विभाजन को बढ़ावा देने का पाप किया गया और इसके लिए उनके राजनीतिक आका उन्हें राज्यपाल आदि पद की खैरात जरूर देंगे। अब राजीव कुमार की जगह पर सरकार ने आनन-फानन में ज्ञानेश कुमार को बिठा दिया। चर्चा है कि उनकी नियुक्ति का आदेश आधी रात को जारी किया गया। सरकार को ऐसे कर्मों की आवश्यकता क्यों पड़ती है? संवैधानिक पदों पर नियुक्तियां करने में भी सरकार को इतने छल-कपट, गुप्त कार्यवाहियां क्यों करनी पड़ती हैं? देश के लोकतंत्र का भविष्य चुनाव आयोग के हाथ में है और उस स्तंभ को कमजोर कर देने पर लोकतंत्र के आप मालिक बन जाते हैं यह इसका सीधा-साधा गणित है, सूत्र है। इसलिए यदि ज्ञानेश कुमार राजीव कुमार की जगह लेते हैं, तो भी क्या लोकतंत्र के ढहते स्वरूप पर ध्यान दिया जा सकता है? राजीव कुमार पहले से ही विवादास्पद थे और अब नए ज्ञानेश कुमार भी अपनी नियुक्ति के साथ ही विवादों में हैं। कांग्रेस समेत पूरे विपक्षी दलों का मानना है कि यह नियुक्ति नियमों के मुताबिक नहीं है। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने नियुक्ति प्रक्रिया पर आपत्ति जताई है। वह सही है। यह सच है कि इस बाबत कांग्रेस नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को दो दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी द्वारा की गई बैठक में बुलाया गया था, लेकिन वह
एक तमाशा
था। आगे के घटनाक्रमों से भी यही स्पष्ट हो गया है। मूलत: सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल पहले स्पष्ट आदेश दिया था कि प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और देश के मुख्य न्यायाधीश की चयन समिति मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन करेगी। लेकिन तानाशाही तरीके से निर्णय लेना, उन्हें लागू करने के लिए महत्वपूर्ण पदों पर अपनी पसंद के लोगों को नियुक्त करना, मोदी सरकार की कार्यप्रणाली रही है। तो सुप्रीम कोर्ट की यह लगाम मोदी-शाह के लिए वैâसे काम करती? इसीलिए २०२३ में मोदी सरकार ने बहुमत के बल पर संसद में नया कानून पारित कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी कर दिया। नए कानून के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश को चयन समिति से बाहर कर दिया गया और उनकी जगह केंद्रीय मंत्री को नियुक्त किया गया। अब इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। मंगलवार को उसकी सुनवाई थी। इसलिए कांग्रेस और राहुल गांधी ने मांग की कि नए मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए। लेकिन मोदी सरकार इसे नजरअंदाज करते हुए नये कानून के तहत मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की अधिसूचना निकालकर स्वतंत्र हो गई है। तो फिर प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में विपक्षी नेताओं के साथ मुलाकात का तमाशा क्यों किया? क्या इस नियुक्ति से सत्ताधारी यह बतलाना चाहते हैं कि वे सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले को महत्व नहीं देते?
जल्दबाजी में नियुक्ति
करने के पीछे सरकार का असली गणित क्या है? नए मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के साथ ही ऐसे कई सवाल खड़े हो गए हैं। बेशक मोदी सरकार को उनका जवाब देना है, लेकिन ये भी उतना ही सच है कि जवाब नहीं दिया जाएगा। मोदी सरकार के दौरान देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर जो प्रमुख नियुक्तियां हुर्इं, उनकी निर्णय लेने की प्रक्रिया सत्ताधारियों की मनमानी, सौदेबाजी और दबाव की तकनीक के कारण अक्सर विवादों के घेरे में रहीं, मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति भी कई सवालों के घेरे में रही। देखना यह है कि नये मुख्य चुनाव आयुक्त इस भंवर से निकलने का रास्ता वैâसे निकालेंगे। पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक दलों के पैâसलों को लेकर, खासकर शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस के संदर्भ में राजनीतिक विवादों के बाबत चुनाव आयोग की कार्यशैली और निर्णय लेने की प्रक्रिया पर गंदे छींटे उड़े हैं। क्या नये मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार में गंदगी साफ करने का साहस होगा? उनका कार्यकाल २६ जनवरी २०२९ तक है। यानी उन्हें काम करने के लिए लंबा समय मिला है। ज्ञानेश कुमार को इस बात का ध्यान रखना होगा कि उनका करियर आरोपों से घिरा न हो, अपने पूर्ववर्तियों से अलग हो। लोकतंत्र-प्रेमी और संविधान-प्रेमी जनता को नये मुख्य चुनाव आयुक्त से यही अपेक्षा है। क्या ज्ञानेश कुमार इन उम्मीदों पर खरे उतरेंगे? वरना इस बदलाव का सिर्फ इतना ही अर्थ रह जाएगा कि वे गए और ये आए!