पिछले कुछ वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति में संवाद और सौहार्द खत्म हो गया है इसलिए जब दो अलग-अलग पार्टियों के लोग एक-दूसरे से मिलते हैं तो तुरंत भौंहें तानकर सवाल पूछे जाते हैं, ‘ये कैसे, क्या है?’ न्यूज चैनल यह संदेह करके सनसनी फैला देते हैं कि पर्दे के पीछे जरूर कुछ पक रहा है। हिंदूहृदयसम्राट बालासाहेब ठाकरे के स्मारक पर चर्चा करने के लिए सोमवार को शिवसेना नेता सुभाष देसाई, अंबादास दानवे और मिलिंद नार्वेकर ने एक प्रतिनिधिमंडल के तौर पर मुख्यमंत्री फडणवीस से मुलाकात की। इस दौरे पर पत्रकारों ने पतंगें उड़ार्इं, लेकिन पतंगें ज्यादा ऊंचाई तक नहीं गईं। शिवतीर्थ में स्मारक का काम अपने पूर्णत्व की ओर बढ़ रहा है। चूंकि यह स्मारक सरकार द्वारा बनाया जा रहा है इसलिए सरकारी मुलाकातें भी होंगी। विपक्षी नेताओं को मुख्यमंत्री से मिलने पर रोक नहीं है। उसी दिन मुख्यमंत्री फडणवीस स्वयं अपने छिपे मित्रदल के राज ठाकरे से मिलने शिवाजी पार्क गए। उस मुलाकात के बारे में भी तर्क-वितर्क और कुतर्क मिला-जुलाकर अनुमानों के साथ खबरों के गुब्बारे हवा में छोड़े गए थे। ‘फडणवीस-राज’ की यह कोई पहली मुलाकात नहीं थी। भाजपा के अन्य नेता भी नियमित रूप से राज के घर चाय-पान के लिए आते-जाते रहते हैं। मनसे प्रमुख का आवास अब एक राजनीतिक ‘कैफे’ बन गया है और भाजपा के शेलार, लाड आदि जैसे वरिष्ठ नेताओं ने उस कैफे में सीटें आरक्षित कर रखी हैं, लेकिन जब मुख्यमंत्री जाकर कहते हैं कि वह ‘नाश्ते’ के लिए गए थे तो कैफे का महत्व बढ़ जाता है। असल में इसमें आश्चर्य क्या है कि मुख्यमंत्री चले गए? भाजपा और राज की ‘मनसे’ पार्टी का ‘तन-मन-धन’ गठबंधन है इसलिए मुख्यमंत्री वहां गठबंधन के दलों से संवाद करने गए होंगे। जब शिवसेना-भाजपा का गठबंधन था, तब भी मुख्यमंत्री चाय-पान के लिए ‘मातोश्री’ आते थे, लेकिन अब, जब राजनीति गुस्से और ईर्ष्या से जल रही है इसलिए कौन किसके पास जाता है और चाय-पान करता है, इस पर मीडिया के कैमरे को रोक रखा है। बीच में शरद पवार ने बड़े आकार के अनार वाले किसानों के साथ प्रधानमंत्री
मोदी से मुलाकात की
और इसके साथ ही उन्होंने दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन वालों को भी साथ ले लिया। यानी अनारवालों के निमित्त साहित्य सम्मेलन के लोगों का भी उद्धार हो गया। फिर भी शरद पवार ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की और दोनों के बीच क्या पक रहा है, इसकी चर्चा ही छिड़ गई। हालांकि, इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है कि कौन किससे मिल सकता है, लेकिन केंद्र में मोदी-शाह और महाराष्ट्र में फडणवीस-शिंदे सरकार आने के बाद से राजनीति में खुलापन खत्म हो गया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष का व्यवहार ऐसा होने लगा मानो वे एक-दूसरे के कट्टर दुश्मन हों, जो लोकतंत्र की पहचान नहीं है। पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जैसे नेता थे और वे कांग्रेसी नहीं थे, लेकिन वे देश की आवश्यकता के रूप में नेहरू के मंत्रिमंडल में शामिल हुए। नेताओं की मुलाकातें खुलेआम होनी चाहिए। आज के डिजिटल युग में कोई भी बात छुप नहीं सकती। संतों ने कहा है, ‘उजाले में पुण्य है, अंधेरे में पाप है।’ महाराष्ट्र में ‘ठाकरे’ सरकार को गिराने के लिए रात १२ बजे के बाद चेहरे पर मेकअप लगाकर देवेंद्र फडणवीस और एकनाथ शिंदे लैंप पोस्ट के नीचे मीटिंग कर रहे थे। इस रहस्य का खुलासा खुद श्रीमती अमृता फडणवीस ने किया। शिवसेना को तोड़ने के लिए उस दौरान शिंदे रात-बेरात दिल्ली आकर अमित शाह से मिलते थे। राजनीति में ऐसी मुलाकातों का कोई अंत नहीं है। वे होती रहती हैं। तो अब भी इस बात पर चर्चा क्यों करें कि कौन किससे मिलता है और क्यों? महाराष्ट्र को अब सभी स्तरों पर संकुचित नेतृत्व मिला है इसलिए उनके विचार भी संकुचित ही होंगे। यशवंतराव चव्हाण, एस. एम. जोशी, नानासाहेब गोरे, वसंतराव नाईक, वसंतदादा पाटील, कॉमरेड. श्रीपाद अमृत डांगे और हिंदूहृदयसम्राट बालासाहेब ठाकरे के बीच मतभेद थे, फिर भी उनका मिलना-जुलना और संवाद बंद नहीं हुआ। शिवसेना के पहले महाअधिवेशन में तो कट्टर वैचारिक विरोधी श्रीपाद अमृत डांगे को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था और
शिवसेनाप्रमुख ने डांगे के
चरणों में नतमस्तक होकर आशीर्वाद लिया था, लेकिन क्या अब ऐसा होगा? तो बिल्कुल नहीं! इसीलिए ‘कहां गए वो लोग?’ ये सवाल हर किसी के मन में है। मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कौन किस पार्टी का है, इस आधार पर मुलाकातें नहीं करते थे। उनके दरवाजे सभी के लिए खुले थे इसलिए लोकतंत्र के स्तंभ मजबूत रहे।’ यह दिलदारी विलासराव देशमुख, शरद पवार, मनोहर जोशी के समय भी दिखती रही। ‘मातोश्री’ में शिवसेनाप्रमुख का दरबार सभी दलों और जातियों और धर्मों के लिए खुला था, लेकिन आज महाराष्ट्र में तस्वीर क्या है? नफरत, ईर्ष्या और तोड़-फोड़ की राजनीति सुलग चुकी है और एक-दूसरे को राजनीति से हमेशा के लिए खत्म करने की हद तक पहुंच चुकी है। यह बदलाव पिछले दस वर्षों में ज्यादा बढ़ा है। ऐसा क्यों हुआ? महाराष्ट्र में ये जहर किसने बोया? हमें एक साथ बैठकर इस पर चिंतन करने की जरूरत है। महाराष्ट्र की राजनीति में दो पुराने सहयोगी दल शिवसेना और भाजपा अलग हो गए और उसी दरम्यान कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना जैसी तीन अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियां एक साथ आर्इं। यही हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती है। भाजपा ने सत्ता खोने के द्वेष के चलते जहरीला डंक मारा। एकनाथ शिंदे को जेल का डर दिखाकर तोड़ा और अजीत पवार को चक्की पीसने के लिए जेल भेजने की गर्जना देवेंद्र फडणवीस ने ही की थी। आज ये तीनों एक साथ हैं। भले ही फडणवीस-शिंदे के चेहरे अलग-अलग दिशाओं में हैं, लेकिन मजबूरी में वे एकत्र हैं। राजनीति में कौन किसके साथ है ये समझना मुश्किल हो गया है और महाराष्ट्र में माहौल पहले जैसा साफ-सुथरा नहीं रह गया है। एक-दूसरे से मिलना तो दूर, बात करना यहां तक कि एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराना भी मुश्किल होता जा रहा है। यह भारत को मोदी-शाहकृत भाजपा का उपहार है। एक तरह से देश अव्यवस्थित हो गया है इसलिए मनसे प्रमुख और फडणवीस की ‘वैâफे’ में मुलाकात की चर्चा होती है। मित्रपक्ष से खुलेआम मिलना भी चोरी है। क्या इसे लोकतंत्र कहा जाए?