केंद्र की मोदी सरकार उठते-बैठते ‘विकसित भारत’ की शेखी बघार रही है। पांच ट्रिलियन इकोनॉमी से लेकर २०४७ में भारत कैसे आर्थिक महाशक्ति बनेगा, इसके सपने सरकार जनता को दिखा रही है। सरकार का यह भी दावा है कि इस उद्देश्य के लिए बनाई गई उसकी आर्थिक नीतियां सही हैं। ‘जीएसटी’ उनमें से ही एक जुमला है। सरकार यह दिखावा कर रही है कि जीएसटी आर्थिक विकास का राजमार्ग है, करोड़ों करोड़ का जीएसटी संग्रह प्रगति की एक छलांग है जो देश ने पहले कभी नहीं लगाई है। सरकार जीएसटी का गुणगान कर रही है। क्योंकि जीएसटी से हर महीने सीधे केंद्रीय खजाने में भारी राजस्व आता है, लेकिन उसके चलते आम आदमी को बेवजह जो आर्थिक नुकसान हो रहा है, उसके बारे में सरकार कब सोचेगी? जीएसटी भले ही सरकार के लिए राजस्व पैदा करने का जरिया है, लेकिन आम आदमी के लिए यह जेब काटने का साधन बन गया है। एक सरकार के रूप में आपका राजस्व पर ‘लक्ष्य’ हो सकता है, लेकिन आप आम आदमी को क्यों ‘लक्ष्य’ बना रहे हैं? जब आप जीवन बीमा और यहां तक कि स्वास्थ्य बीमा को जीएसटी के तहत डालते हैं, तो आपके लिए केवल पैसा और राजस्व ही मायने रखता है। फिर, आप इस बारे में नहीं सोचते, लेकिन अगर विपक्षी दल संसद में आवाज उठाते हैं, तो भी आपके कान पर जूं नहीं रेंगती। सरकार के ही एक मंत्री नितिन गडकरी ने भी केंद्रीय वित्त मंत्री को पत्र लिखकर यही मांग की है। फिर भी सरकार की गैंडे की खाल पर हल्की सी कंपन नहीं होती। इसके उलट, वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने सदन में बड़ाई मारते हुए बताया कि वैâसे पिछले तीन वर्षों में बीमा पर जीएसटी संग्रह बढ़कर २१ हजार करोड़ रुपए हो गया है। सरकार को इस बात का न तो खेद है और न अफसोस कि उन्होंने ये २१ हजार करोड़ रुपए आम जनता की जेब से छीनकर निकाल लिए। फिर, विपक्ष की मांगों पर निर्णय लेने के बजाय, ‘जीएसटी’ की दरों और छूट या रियायतों पर निर्णय जीएसटी परिषद में लिया जाता है। और मंत्री ने यह कहकर गेंद विपक्ष के पाले में डाल दी कि परिषद में विपक्षी दलों के भी प्रतिनिधि होते हैं। आप अपने विरोधियों के सिर पर ठीकरा क्यों फोड़ते हैं? आप सरकार में हैं। आप सीधा निर्णय लीजिए और परिषद में उसकी घोषणा कीजिए। बीमारी हो या मृत्यु, यह मानव जीवन की न टाली जाने वाली मजबूरी है। इसके अलावा, चिकित्सा उपचार का बोझ हाल ही में आम आदमी की पहुंच से बाहर हो गया है। इसलिए भले ही उसकी जेब उसे इजाजत न दे, बावजूद आम आदमी इन किश्तों का बोझ उठाता है। ऐसे में इस बीमा पर छोटी-मोटी नहीं, बल्कि १८ फीसदी जीएसटी लगाकर इस सरकार ने अपना ‘व्यापारी’ रवैया ही दिखाया है। आज आपने स्वास्थ्य बीमा पर जीएसटी लगाया है, कल आप अंतिम संस्कार के खर्च पर जीएसटी लगाएंगे! स्वास्थ्य बीमा कंपनियों को उपभोक्ता से जो भी ‘क्लेम’ या ‘रिफंड’ मिलेगा, उस पर आयकर लगाने का तुगलकी पैâसला लिया जाएगा। केंद्र के शासकों को न तो जनता की दुर्दशा की चिंता है, न ही उनकी आर्थिक मार की परेशानी से उन्हें कोई लेना-देना है। स्वास्थ्य और जीवन बीमा जैसी जीवन-मृत्यु संबंधित सेवाओं को जो सत्ताधारी १८ प्रतिशत जीएसटी के अंतर्गत रखते हैं उन्हें शासक कैसे कहा जा सकता है? एक सच्चा शासक सरकारी खजाने से ज्यादा जनता के कल्याण और सुखद भविष्य की परवाह करता है। जीवन बीमा और स्वास्थ्य बीमा पर जीएसटी लगाने वाली सरकार जनहित की परवाह करने वाली सरकार है ऐसा कैसे कहा जा सकता है? यह ‘पैसे की भूखी’ सरकार है। सच तो यह है कि स्वास्थ्य बीमा और जीवन बीमा पर जीएसटी का फंदा लगाया आपने और इसे हटाने के लिए जीएसटी काउंसिल के प्यादों को आगे क्यों कर रहे हो? यह सरकार सरकारी खजाने की ‘खनखनाहट’ में मगन है। ऐसे में जीएसटी और समग्र कराधान प्रणाली ने आम आदमी की जेब पर जो ‘ठन ठनाहट’ पैदा की है, उसके बारे में उन्हें कैसे पता चलेगा?