बुलढाणा जिले के एक युवा किसान कैलास अर्जुनराव नागरे की धक्कादायक आत्महत्या ने फिर से दिखाया है कि कृषि और किसानों के मामले में राज्य में मौजूदा हुक्मरान किस हद तक गैंडे की खाल की तरह हैं। कैलास नागरे ने ऐन होली के दिन जहर खाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। स्थानीय प्रशासन और शासकों द्वारा बार-बार शब्दों के जाल में घुमाने के कारण उन्हें यह कठोर आत्मघाती कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। कैलास नागरे की मांग क्या थी? वे अपने लिए कुछ भी व्यक्तिगत नहीं चाहते थे। उनकी लड़ाई आसपास के किसानों को खेती के लिए पानी दिलाने के लिए थी। उनकी मांग थी कि आसपास के किसानों को खड़कपूर्णा बांध की बाईं नहर से पानी मिलना चाहिए। इसके लिए वे कई महीनों से संघर्ष कर रहे थे। सरकारी मशीनरी और शासक केवल खोखले वादे करके समय काट रहे थे। वादा करके भी नहीं निभाना ऐसा रवैया सिर्फ प्रशासन का ही नहीं, बल्कि जिले के पालक मंत्री का भी था। किसान हित की बात करनेवाले मौजूदा शासकों की ऐसी ही धोखाधड़ी के चलते पिछले तीन वर्षों में किसानों की आत्महत्याएं चरम सीमा पर पहुंच गई हैं। नागरे आत्महत्या मामले पर कृषिमंत्री की प्रतिक्रिया हुक्मरानों की
बेरहम मानसिकता का सबूत
है। कृषिमंत्री माणिकराव कोकाटे ने कहा, ‘कैलास नागरे एक आदर्श किसान थे, लेकिन क्या सरकार, जन प्रतिनिधि उन्हें समझाने-बुझाने में विफल रहे? हमें इसके बारे में सोचना होगा।’ अरे, आप किस प्रकार के समझाने-बुझाने और ज्ञानवर्धन की बात करते हैं? कैलास नागरे की मांग सिर्फ उनके ही खेत को बांध का पानी मिले ये नहीं थी। इस पानी का लाभ आसपास के किसानों को मिलना चाहिए। और इसे पूरा करने का आश्वासन आपके प्रशासन और आपके पालक मंत्री ने बार-बार दिया था। एक सरकार के तौर पर इसका पालन करना आपका कर्तव्य था, लेकिन आपने इसका पालन नहीं किया। एक साधारण सी मांग आपने पूरी नहीं की। जिसकी वजह से नागरे ने अपना जीवन समाप्त कर लिया और अब आप किस तरह की मानवता की नौटंकी कर रहे हैं? वाकई, किसानों की तुलना भिखारियों से करनेवाले कृषिमंत्री से आप किस तरह की भलाई की उम्मीद कर सकते हैं? भिखारी भी एक रुपया नहीं लेता, लेकिन हम किसानों को एक रुपया में फसल बीमा देते हैं।’ यदि ऐसा ज्ञान बांटने वाले कृषि मंत्री हों तो, न तो किसानों को न्याय मिलेगा और न ही उनकी आत्महत्याएं रुकेंगी। कैलास नागरे जैसे तरुण पुरस्कार विजेता किसान पर भी सत्ताधारियों के नकारेपन के चलते खुद की
जिंदगी खत्म करने की नौबत
आ गई। इस बात की शर्म न तो कृषि मंत्री को है और न ही सरकार के मुखियाओं को। वरना कैलास नागरे की ‘आहुति’ के बाद भी उन्हें खुद पर शर्मिंदगी महसूस होती और कृषि के लिए बांध का पानी देने की मांग पर सहमति जताकर उनकी आत्महत्या को न्याय देने की समझदारी दिखाई होती। लेकिन कैलास नागरे की आत्महत्या के बाद भी शासकों ने इसकी सुध नहीं ली। इसके विपरीत उनके कृषि मंत्री ज्ञानवर्धन की बात कर रहे हैं, अगर अधिकारी दोषी होंगे तो कार्रवाई होगी, वे ‘अगर-मगर’ की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। राज्य के एक युवा किसान कैलास नागरे, जो कृषि जल के लिए आंदोलन कर रहे थे, को हां का वचन दिया गया, फिर टालमटोल किया गया और संवेदनशील किसान को हताशा में आत्महत्या के कगार पर पहुंचा दिया गया। कहां से आती है ऐसी निर्लज्जता? शासक इतने बेहया कैसे हो जाते हैं? हुक्मरानों के वादों के खेल में आसपास के किसानों को पानी दिलाने के लिए संघर्ष करनेवाले एक युवा किसान की बेवजह जान चली जाती है। ‘किसानों की खेती को पानी दो’ कहकर नागरे ने पानी के लिए ‘आहुति’ दी। यह आत्महत्या नहीं, बल्कि सत्ता में बैठे बेहया लोगों द्वारा ली गई कुर्बानी है। किसानों को इसके लिए राज्य सरकार के खिलाफ मामला दर्ज करना चाहिए!