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संपादकीय : वो दिन दूर नहीं… दमनकारी साल बीत गया!

आज १ जनवरी है। नए साल का पहला दिन। जैसे सृष्टि का नियम है कि पेड़ का पका हुआ पत्ता गिरता और उसी समय एक शाखा से नया कोंपल फूटता है, इस तरह साल का बदलना हमेशा से शुरू है हमेशा की तरह। पुराने को अलविदा कहना और नए का स्वागत करना दुनिया की रीत है। और इस परंपरा का निर्वहन करते हुए ३१ दिसंबर की रात को गुजरते साल को विदाई दी गई और नए साल का हर्षोल्लास के साथ स्वागत किया गया। थर्टी फर्स्ट की आधी रात अब सारी दुनिया को एक साथ लाने वाला एक अंतरराष्ट्रीय त्योहार बन गया है। देश-विदेश में नए साल के स्वागत का उत्साह हर साल की तरह इस बार भी रोमांचक रहा। पुराने साल के बदलने और नए साल के शुरू होने से इंसान की जिंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे कोई बड़ा बदलाव कहा जा सके। हालांकि, एक उत्सवप्रिय व्यक्ति स्वभाव से ही हर नई चीज की लालसा रखता है। तो आम इंसान पुराने साल के दुखों और कड़वी यादों को कुरेदने की बजाय नए साल में कुछ बेहतर होने की उम्मीद में मौज-मस्ती करे तो इसमें बुराई कहां है? दिनांक और वर्ष में परिवर्तन के कारण, २०२४ वैâलेंडर अतीत की बात बन गया और दीवार से उतर गया। इसकी जगह २०२५ के नये वैâलेंडर ने ले ली। वैâलेंडर बदला मतलब वक्त बीत गया; लेकिन बदला हुआ साल लोगों की जिंदगी में क्या बदलाव लेकर आया है, हमारे राज्य, देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या बदलाव आए हैं। इस हिसाब से गौर करें तो साल २०२४ में हिंदुस्थान में चुनावों का बोलबाला रहा! ये चुनाव नतीजों से भी ज्यादा गड़बड़ घोटालों से चर्चित रहे और विवादास्पद साबित हुए। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने ‘चार सौ पार’ का नारा दिया था; लेकिन वोट प्रतिशत में संदिग्ध बदलाव के बावजूद भाजपा लोकसभा में बहुमत से दूर रह गई। चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की बैसाखियों की मदद से नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बने।
लेकिन लोकसभा के नतीजों ने
भाजपा के विमान को काफी अच्छी तरह से जमीन पर ला दिया। चुनाव के लिए प्रभु राम का इस्तेमाल करने वाली भाजपा ने धर्माचार्य के विरोध को अनदेखा करते हुए ऐन चुनाव के मौके पर अर्धनिर्मित राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा प्रधानमंत्री मोदी के शुभ हाथों से करवा ली। लेकिन यह अयोध्या के लोग ही थे, जिन्होंने राम का सौदा करने वाली भाजपा को सबक सिखाया। पैâजाबाद सीट का मतलब अयोध्या में भाजपा सीधे मुंह के बल गिर पड़ी। इसे २०२४ की एक अहम यादगार कहा जा सकता है। उसके बाद हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और उसके बाद महाराष्ट्र और झारखंड राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। लोकसभा चुनाव में संदिग्ध अनियमितताओं की कमी से सावधान हुए हुक्मरानों ने चुनाव आयोग से हाथ मिलाकर हरियाणा तथा महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी वोट के आंकड़ों के साथ बड़ा खेल खेला। लोकतंत्र की हत्या करने वाले इस हथकंडे के परिणामस्वरूप विपक्षी दलों के सभी निश्चित जीत वाले उम्मीदवारों की हार हुई और सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवारों की आश्चर्यजनक जीत हुई, जिनकी जमानत जब्त होने की आशंका थी। ये दोनों राज्य भाजपा ने आखिरी घंटे में बढ़े हुए, ईवीएम’ के दुरुपयोग से बढ़े हुए मतदान के दम पर जीते। लेकिन इस नतीजे के खिलाफ इन दोनों ही राज्यों के गांवों के मतदाताओं में भारी असंतोष है। इसीलिए जब सोलापुर जिले के मारकडवाडी गांव ने सरकारी तंत्र को किनारे कर ‘ईवीएम’ के बजाय बैलेट पेपर पर फिर से मतदान करने का पैâसला किया, तो सरकार और चुनाव आयोग के पैरों तले जमीन खिसक गई! सरकार और आयोग ने पुन: मतदान की इस योजना को विफल कर दिया। चुनावी घोटाला उजागर होने के डर से मारकडवाडी के ग्रामीणों को पुलिस बल के प्रयोग से मतदान करने से रोका गया। मारकडवाडी में जो हुआ वह महाराष्ट्र और हरियाणा के सैकड़ों बूथों पर हुआ।
चुनावों का ये घोटाला
जब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो मतदान केंद्रों पर बढ़े मतदान का समय और उस वक्त के फुटेज यदि अदालत के सामने आ गए तो मुंह दिखाने के लिए जगह नहीं बचेगी, इसलिए सरकार ने फुटेज और अन्य विवरण सार्वजनिक करने का नियम ही बदल डाला। गुजरते साल ने लोकतंत्र के इस संहार को नंगी आंखों से देखा। वर्ष २०२४ को हमेशा उस वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब देश के लोगों ने इन गड़बड़ घोटालों के चलते चुनावों में विश्वास खो दिया था। महाराष्ट्र की बात करें तो साल २०२४ में मराठा आरक्षण का आंदोलन राज्य पर सबसे ज्यादा छाया रहा। इस आंदोलन को दबाने के लिए सरकार ने राज्य की अन्य जातियों को भड़काने की कोशिश की। इससे राज्य के गांवों में एक बड़ा सामाजिक अंतर पैदा हो गया। वर्ष का समापन हुआ केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के अपमान, परभणी में ‘संविधान के अपमान’ का विरोध करने वाले सोमनाथ सूर्यवंशी की पुलिस हिरासत में संदिग्ध मौत और मराठवाड़ा के ही मस्साजोग के सरपंच संतोष देशमुख की निर्मम हत्या के साथ। इस हत्याकांड के बाद बीड जिले का ‘जंगलराज’ पूरी दुनिया के सामने आ गया। हत्याकांड की जड़ में रहे वसूली मामले के मास्टरमाइंड वाल्मीक कराड ने साल के आखिरी दिन सरेंडर कर दिया, लेकिन इस मामले में राज्य के गृह विभाग की नाक कट ही गई। गुजरते साल का अगर एक वाक्य में वर्णन किया जाए तो यह ‘लोकतंत्र के संहार का साल’ के तौर पर होगा। इस साल ने देश में विपक्षी पार्टियों को बहुत कुछ सिखाया। नए साल में विपक्षी दलों को इस बात की ठोस योजना बनानी होगी कि सरकारी तंत्र और संवैधानिक संस्थाओं का मनमाना दुरुपयोग कर देश को तानाशाही की ओर ले जाने वाली क्रूर शक्ति से वैâसे निपटा जाए। गुजरते साल में हिंदुस्थान के पड़ोसी देशों में जनता के आक्रोश के चलते सरकारों का तख्तापलट हुआ। दमनकारी साल को बीतता देख, हिंदुस्थान में वह दिन दूर नहीं है!

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